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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 96/ मन्त्र 12
    ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः देवता - हरिस्तुतिः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ त्वा॑ ह॒र्यन्तं॑ प्र॒युजो॒ जना॑नां॒ रथे॑ वहन्तु॒ हरि॑शिप्रमिन्द्र । पिबा॒ यथा॒ प्रति॑भृतस्य॒ मध्वो॒ हर्य॑न्य॒ज्ञं स॑ध॒मादे॒ दशो॑णिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । ह॒र्यन्त॑म् । प्र॒ऽयुजः॑ । जना॑नाम् । रथे॑ । व॒ह॒न्तु॒ । हरि॑ऽशिप्रम् । इ॒न्द्र॒ । पिब॑ । यथा॑ । प्रति॑ऽभृतस्य । मध्वः॑ । हर्य॑न् । य॒ज्ञम् । स॒ध॒ऽमादे॑ । दश॑ऽओणिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा हर्यन्तं प्रयुजो जनानां रथे वहन्तु हरिशिप्रमिन्द्र । पिबा यथा प्रतिभृतस्य मध्वो हर्यन्यज्ञं सधमादे दशोणिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । हर्यन्तम् । प्रऽयुजः । जनानाम् । रथे । वहन्तु । हरिऽशिप्रम् । इन्द्र । पिब । यथा । प्रतिऽभृतस्य । मध्वः । हर्यन् । यज्ञम् । सधऽमादे । दशऽओणिम् ॥ १०.९६.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 96; मन्त्र » 12
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वा) तुझ (हर्यन्तम्) उपासनारस को चाहनेवाले-दुःखहरण गतिवाले को (हरिशिप्रम्) उपासक जनों के प्राणायामादि प्रबल योगाभ्यास प्रयोग (रथे) रमण स्थान हृदय में (आ वहन्तु) सम्य्क् रूप से प्राप्त करावें-ले आवें (प्रतिभृतस्य) समर्पित (मध्वः) उपासनामधु के रस को (यथा पिब) यथेष्ट पान कर (सधमादे) सहस्थान हृदय में (दशोणिं यज्ञम्) दशेन्द्रियों के विषयों से ऊन-रिक्त या रहित-निर्विषयक अध्यात्मज्ञ को (हर्यन्) चाहता हुआ हमारे अन्दर विराजमान रह ॥१२॥

    भावार्थ

    परमात्मा प्राणायामादि योगाभ्यासों के सेवन से तथा इन्द्रियों के विषय से रहित ध्यान द्वारा हृदय में साक्षात् होता है, उपासक के समस्त दुःखों एवं दोषों को दूर कर देता है ॥१२॥

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    विषय

    दशोणि यज्ञ का स्वीकार

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (हरिशिप्रम्) = हरणशील हैं हनू व नासिका जिसकी जबड़े तो भोजन का खूब चर्वण करके रोगों को दूर करनेवाले हैं तथा नासिका प्राणायाम के द्वारा वासनाओं को विनष्ट करनेवाली है । इस प्रकार ये हनू व नासिका दोनों ही 'हरि' हैं । (त्वा) = इस तुझ हरिशिप्र को, (हर्यन्तम्) = प्रभु प्राप्ति की कामनावाले को (जनानाम्) = लोगों की (प्रयुजः) = प्रकृष्ट योगवृत्तियाँ (रथे) = इस शरीर रथ पर (आवहन्तु) = धारण करनेवाली हों। इन प्रयुजों से ही तू प्रभु को प्राप्त करनेवाला बनेगा। [२] इन योगवृत्तियों को तू अवश्य धारण कर, (यथा) = जिससे तू (प्रतिभृतस्य) = प्रतिदिन तेरे में पोषित होनेवाले (मध्वः) = सोम का, सब भोजनों के सारभूत मधुतुल्य सोम का (पिबा) = पान करनेवाला हो । [३] तू (सधमादे) = प्रभु प्राप्ति के द्वारा प्रभु के साथ [सह] मिलकर आनन्द अनुभव करने के निमित्त (दशोणिम्) = [ओणि = protection] दसों इन्द्रियों की रक्षा करनेवाले अथवा [ओणि=removing] दसों इन्द्रियों को विषयों से अपनीत करनेवाले (यज्ञम्) = श्रेष्ठतम कर्म की (हर्यन्) = कामना करनेवाला हो, श्रेष्ठतम कर्म की ओर तू चलनेवाला हो। [हर्य गतिकान्त्योः] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मनुष्य योगवृत्तिवाला बने, सोम का धारण करे, प्रभु प्राप्ति के आनन्द के लिए दसों इन्द्रियों के रक्षक यज्ञ को करनेवाला हो, अर्थात् सदा उत्तम कर्मों में लगा ।

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    विषय

    ज्ञानप्रद प्रभु।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! (जनानां) मनुष्यों के बीच में (रथे) रस स्वरूप एवं रमणीय रूप मे (प्रयुजः) उत्तम योग करने वाले अभ्यासी जन (हरि-प्रियं) सब मनुष्यों के प्यारे, (हर्यन्तम्) सबको चाहने वाले (त्वा आवहन्तु) तुझको सब प्रकार से धारण करें। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (प्रति-भृतस्य मध्वः) प्रीति पूर्वक लाये गये, आदर पूर्वक प्रदान किये अन्न, जल, घृत को अतिथिवत्, चरु को अग्निवत्, जलादि को मेघ वा सूर्यवत्, (प्रति-भृतस्य मध्वः हर्यंन्) प्रेम पूर्वक उपाहृत, मधुर, हर्षकर वचन की कामना करता हुआ, (सध-मादे) साथ मिलकर हर्ष आनन्द लाभ के अवसर में (दश-ओणिम्) दश अङ्गों से युक्त (यज्ञं) यज्ञ का (पिब) पालन कर। (दशोणिं यज्ञं) दसों अंगुलियों से किये गये देवपूजन रूप नमस्कार को स्वीकार कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः। देवताः—हरिस्तुतिः॥ छन्द्र:- १, ७, ८, जगती। २–४, ९, १० जगती। ५ आर्ची स्वराड जगती। ६ विराड् जगती। ११ आर्ची भुरिग्जगती। १२, १३ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वा हर्यन्तं हरि-शिप्रम्) त्वामुपासनारसं कामयमानं दुःखहरणगतिकम् (जनानां प्रयुजः) उपासकजनानां प्रयोगाः प्रबलयोगाभ्यासाः प्राणायामादयः (रथे-आ वहन्तु) रमणस्थाने हृदये-आनयन्तु (प्रतिभृतस्य मध्वः-यथा पिब) समर्पितस्य खलूपासनामधुनो रसं यथेष्टं पानं कुरु (सधमादे) सहस्थाने तत्रैव सहस्थाने हृदये (दशोणिं यज्ञं हर्यन्) दशेन्द्रियविषयरहितम् “दशोणिम्-दशधोणि परिहाणं यस्य तम्” [ऋ० ६।२०।८ दयानन्दः] अध्यात्मयज्ञं कामयमानाः सन् ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, may the radiations of your light bear and bring you, glorious lord of golden visor, by your cosmic chariot to the people so that you, loving the yajna, drink of the honey sweet soma extracted and prepared with utmost dexterity of hand and care in the hall of yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा प्राणायाम इत्यादी योगाभ्यासाद्वारे व इंद्रियांच्या विषयरहित (निर्विषय) ध्यानाद्वारे हृदयात साक्षात होतो. उपासकाच्या संपूर्ण दु:ख व दोषांना दूर करतो. ॥१२॥

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