ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 96/ मन्त्र 9
ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः
देवता - हरिस्तुतिः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
स्रुवे॑व॒ यस्य॒ हरि॑णी विपे॒ततु॒: शिप्रे॒ वाजा॑य॒ हरि॑णी॒ दवि॑ध्वतः । प्र यत्कृ॒ते च॑म॒से मर्मृ॑ज॒द्धरी॑ पी॒त्वा मद॑स्य हर्य॒तस्यान्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठस्रुवा॑ऽइव । यस्य॑ । हरि॑णी॒ इति॑ । वि॒ऽपे॒ततुः॑ । शिप्रे॒ इति॑ । वाजा॑य । हरि॑णी॒ इति॑ । दवि॑ध्वतः । प्र । यत् । कृ॒ते । च॒म॒से । मर्मृ॑जत् । हरी॒ इति॑ । पी॒त्वा । मद॑स्य । ह॒र्य॒तस्य । अन्ध॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्रुवेव यस्य हरिणी विपेततु: शिप्रे वाजाय हरिणी दविध्वतः । प्र यत्कृते चमसे मर्मृजद्धरी पीत्वा मदस्य हर्यतस्यान्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठस्रुवाऽइव । यस्य । हरिणी इति । विऽपेततुः । शिप्रे इति । वाजाय । हरिणी इति । दविध्वतः । प्र । यत् । कृते । चमसे । मर्मृजत् । हरी इति । पीत्वा । मदस्य । हर्यतस्य । अन्धसः ॥ १०.९६.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 96; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्य) (हरिणी) जिसके द्युमण्डलस्थ सूर्य चन्द्रमा (स्रुवा-इव) यज्ञ में दो स्रुवों की भाँति-घृतक्षेपणपात्र हैं (विपेततुः) अग्नि में घी फेंकने की भाँति प्रकाश को फेंकते हैं ((वाजाय) जल अन्न के लिए (हरिणी शिप्रे) मनुष्यादि प्रजा के दो हनू-जबड़े को (दविध्वतः) काँपते हैं चलते हैं अथवा प्रजारूप आकाश भूमि गतिशील काँपते हैं (यत्) जिससे (चमसे-कृते) चमस भोक्तव्य सम्पन्न जगत् में परमात्मा (हर्यतस्य) कमनीय (अन्धसः) आध्यानीय (मदस्य) हर्षकर उपासना रस को (पीत्वा) पीकर-स्वीकार करके (हरी) दुःखहरण व सुख प्राप्त करनेवाले अपने कृपाप्रसाद को (मर्मृजत्) प्राप्त कराता है ॥९॥
भावार्थ
परमात्मा के रचे सूर्य और चन्द्रमा जगत् में प्रकाश फेंकते हैं, मनुष्यादि प्रजाओं के जबड़े परमात्मा के दिये अन्न के लिए चलते हैं या उसके आकाशमण्डल या भूमण्डल दोनों गति करते हैं, जब जगत् उत्पन्न हो जाता है, तो उपासकों के उपासनारस को परमात्मा स्वीकार कर अपने दुःखनाशक व सुखकारक कृपाप्रसाद को प्राप्त कराता है ॥९॥
विषय
इन्द्रियों का मार्जन
पदार्थ
[१] (यस्य) = जिसके (हरिणी) = [ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी श० १।१] ऋक् और साम- विज्ञान व भक्ति (स्रुवा इव) = दो स्रुवों के समान, यज्ञपात्रों के समान (विपेततुः) = विशिष्ट गतिवाले होते हैं, अर्थात् जिसके जीवन में विज्ञान व भक्ति का समन्वय होता है । [२] (यस्य) = जिसके (शिप्रे) = हनू और नासिका (वाजाय) = शक्ति वृद्धि के लिए होते हुए (हरिणी) = रोगों व वासनाओं का हरण करनेवाले होकर (दविध्वतः) - रोगों व वासनाओं को कम्पित करते हैं। 'हनू' भोजन का ठीक चर्वण करते हुए, ठीक पाचन के द्वारा, शक्ति वृद्धि का कारण होते हैं। इस प्रकार इनके ठीक कार्य करने से सामान्यतः रोग नहीं आते। नासिका के ठीक कार्य करने पर प्राणायाम के द्वारा वासनाओं का विनाश होता है । इससे चित्तवृत्ति का निरोध होकर मन आधिशून्य बना रहता है। [३] इस वासनाशून्य मन के होने पर (हर्यतस्य) = अत्यन्त कान्त, कमनीय, (मदस्य) = आनन्द के कारणभूत (अन्धसः) = सोम का (पीत्वा) = पान करके, सोम को शरीर में ही व्याप्त करके इस (कृते चमसे) संस्कृत शरीर में [शरीर को 'तिर्यग् बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नः' कहा है] (यद्) = जो (हरी) ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व हैं उनको (मर्मृजत्) = शुद्ध कर डालता है । सोम के शरीर में रक्षण से इन्द्रियों की भक्ति दीप्त हो उठती है ।
भावार्थ
भावार्थ- दो यज्ञपात्रों की तरह हमारे जीवनयज्ञ में विज्ञान व भक्ति का मेल हो। हमारे इन्द्रियाँ हमारी नीरोगता के साधन हों। हमारी नासिका निर्वासनता का साधक बनें [प्राणायाम द्वारा ] सोमपान द्वारा, इस संस्कृत शरीर में हमारी इन्द्रियाँ दीप्तशक्तिवाली हों ।
विषय
प्रभु का व्यापक साम्राज्य।
भावार्थ
(यस्य) जिसके शासन में (स्त्रुवा इव) यज्ञ में दो स्रुवों के समान (हरिणी) दीप्तियुक्त सूर्य और चन्द्र (वि पेततुः) विशेष रूप से गति करते हैं, और जिसकी (हरिणी) आकाश और पृथिवी दोनों (शिप्रे) दो दाढ़ों के समान (वाजाय) अन्न-ऐश्वर्य,जल आदि वा बल कार्य के निमित्त (दविध्वतः) चल रही हैं। और (यत् कृते) जिसके बनाये (चमसे) कर्मफल भोगने योग्य इस विश्व में (मदस्य) अति हर्ष-सुखदायक (हर्यतस्य) अति कान्तियुक्त (अन्धसः) प्राण धारण कराने वाले के रस को (पीत्वा) पान कर आत्मा (हरी प्र मर्मृजत्) अपने इन्द्रिय वर्गों को पवित्र कर लेता है, वह प्रभु है। या वह प्रभु अन्न की (पीत्वा) रक्षा करके (हरी मर्मृजत्) समस्त नर नारी वर्गों को शुद्ध करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः। देवताः—हरिस्तुतिः॥ छन्द्र:- १, ७, ८, जगती। २–४, ९, १० जगती। ५ आर्ची स्वराड जगती। ६ विराड् जगती। ११ आर्ची भुरिग्जगती। १२, १३ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यस्य हरिणी स्रुवा-इव विपेततुः) यस्य परमात्मनोऽन्धकार-नाशिनी द्यौः-द्युमण्डलस्थौ सूर्यचन्द्रमसौ “द्यौः-हरिणी” [गो० २।७] यज्ञे स्रुवाविव स्तः-घृतक्षेपणपात्रे घृतं क्षिप्त्वाऽग्निं ज्वालयतः प्रकाशं कुरुतो यथा तथा प्रकाशं विशेषेण पातयतः अन्तर्गतणिजर्थः (वाजाय हरिणी शिप्रे दविध्वतः) जलान्नाय मनुष्यादिप्रजा “विड् वै हरिणी” [तै० ३।९।७।२] तस्याः-हनू कम्पेते-चलतः यद्वा प्रजाभूते-आकाशभूमी सर्पणशीले कम्पेते (यत्) यतः (चमसे कृते) चमनीये भोक्तव्ये सम्पन्ने जगति परमात्मा (हर्यतस्य-अन्धसः) कमनीयमाध्यानीयम् “द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन” (मदस्य पीत्वा) हर्षकरमुपासनारसं पीत्वा-स्वीकृत्य (हरी मर्मृजत्) दुःखहारकसुखकारकौ स्वकीयकृपा-प्रसादौ भृशं प्रापयति “मार्ष्टि गतिकर्मा” [निघ० २।१४] ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
His golden eyes, sun and moon, move and radiate light as two ladles of ghrta feed and exalt the fire, and the heaven and earth like his golden jaws move for the food, energy and advancement of life. In his created world, having tasted of the delicious and inspiring food and drink, man refines and exalts his will and understanding.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराने निर्माण केलेले सूर्य व चंद्र जगाला प्रकाश देतात. मनुष्य प्राण्यांचा जबडा परमेश्वराने दिलेल्या अन्न, जलासाठी उपयोगात येतो. जेव्हा जग उत्पन्न होते तेव्हा आकाशमंडल, भूमंडल गती करतात व उपासकाच्या उपासना रसाचा स्वीकार करून परमेश्वर आपला दु:खनाशक व सुखकारक कृपाप्रसाद प्रदान करतो. ॥९॥
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