ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 96/ मन्त्र 3
ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः
देवता - हरिस्तुतिः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
सो अ॑स्य॒ वज्रो॒ हरि॑तो॒ य आ॑य॒सो हरि॒र्निका॑मो॒ हरि॒रा गभ॑स्त्योः । द्यु॒म्नी सु॑शि॒प्रो हरि॑मन्युसायक॒ इन्द्रे॒ नि रू॒पा हरि॑ता मिमिक्षिरे ॥
स्वर सहित पद पाठसः । अ॒स्य॒ । वज्रः॑ । हरि॑तः । यः । आ॒य॒सः । हरिः॑ । निऽका॑मः । हरिः॑ । आ । गभ॑स्त्योः । द्यु॒म्नी । सु॒ऽशि॒प्रः । हरि॑मन्युऽसायकः । इन्द्रे॑ । नि । रू॒पा । हरि॑ता । मि॒मि॒क्षि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सो अस्य वज्रो हरितो य आयसो हरिर्निकामो हरिरा गभस्त्योः । द्युम्नी सुशिप्रो हरिमन्युसायक इन्द्रे नि रूपा हरिता मिमिक्षिरे ॥
स्वर रहित पद पाठसः । अस्य । वज्रः । हरितः । यः । आयसः । हरिः । निऽकामः । हरिः । आ । गभस्त्योः । द्युम्नी । सुऽशिप्रः । हरिमन्युऽसायकः । इन्द्रे । नि । रूपा । हरिता । मिमिक्षिरे ॥ १०.९६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 96; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्य) इस परमात्मा का (सः-वज्रः) यह शस्त्रविशेष है, (यः) जो (हरितः) दुःखहारक (आयसः) तेजस्वी है (गभस्त्योः) भुजाओं-हाथों में (हरिः) दुःख अज्ञान का हरनेवाला है (द्युम्नी) यशस्वी-यशस्कर (सुशिप्रः) सुष्ठु सुख प्राप्त करानेवाला (हरिमन्युसायकः) दुःख अज्ञान शत्रुओं का नाशक मन्युरूप सायक अर्थात् वाण जिसका है, ऐसा (इन्द्रे) परमात्मा में (हरिता) मनोहर (रूपा) गुणरूप (नि मिमिक्षिरे) स्वतः निषिक्त है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा का वज्र तेजस्वी दुःख, अज्ञान शत्रुओं को नष्ट करनेवाला है। उसमें परमात्मा का मन्युरूप वाण लगा हुआ है, परमात्मा में मनोहर गुण धर्म स्वतः ही रखे हैं, उसकी उपासना करनी चाहिए ॥३॥
विषय
हरिमन्युसायक
पदार्थ
[१] (सः) = वह (अस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष का (यः) = जो (वज्रः) = क्रियाशीलतारूप वज्र है, वह (हरितः) = सूर्य-किरणों के समान इसे उज्ज्वल बनानेवाला है [हरित् = a horse of the sun ], (आयसः) = लोहे के समान दृढ़ शरीरवाला करता है । [२] इस क्रियामय जीवन में (हरिः) = सब दुःखों का हरण करनेवाला प्रभु ही (निकामः) = इसके लिए नितरां चाहने योग्य होता है। ये कर्त्तव्य बुद्धि से कर्मों को करता है, सब सांसारिक फलों की कामना से ऊपर उठा हुआ 'अ-क्रतु' बनता है, एक मात्र प्रभु प्राप्ति के संकल्पवाला होता है। परिणामतः इसके लिए वे (हरिः) = दुःखों का हरण करनेवाला प्रभु (आगभस्त्योः) = हाथों में ही होते हैं, हस्तामलकवत् हो जाते हैं, प्रत्यक्ष होते हैं । [२] यह व्यक्ति (द्युम्नी) = ज्योतिर्मय जीवनवाला बनता है, (सुशिप्र:) = [ शिप्रो हनू नासिके वा नि०] उत्तम जबड़ों व नासिकावाला होता है। खूब चबाकर खाता है तथा प्राणायाम को नियम से करता है। परिणामतः पूर्ण स्वस्थ जीवनवाला बनता है । [३] (हरिमन्यु) = हरि का, प्रभु का, (मन्यु) = ज्ञान ही इसका शत्रुओं का अन्त करनेवाला (सायक) = बाण बनता है । इस (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (हरितारूपा) = सब तेजस्वीरूप (निमिमिक्षिरे) = निश्चय से सिक्त होते हैं । यह सूर्य किरणों के समान चमकता है। इसके सब अंग-प्रत्यंग दीप्त व ज्योतिर्मय बने रहते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - क्रियाशील पुरुष तेजस्वी दृढ़ शरीर व अन्ततः प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है । प्रभु का ज्ञान ही इसका शत्रु संहारक बाण बनता है ।
विषय
परमेश्वर तेजस्वी ‘दुष्ट’ दण्डकर्त्ता रूप।
भावार्थ
(सः अस्य वज्रः) वह इसका वज्र अर्थात् बल है (यः) जो (आयसः हरितः) स्वर्ण के समान रूप वाला, पीत रूप का, तेजोमय है। वह स्वयं (नि-कामः) अति कान्तियुक्त, (हरिः) सब के दुःखों वा अज्ञानों के अन्धकार को सूर्यवत् हरण करने वाला है, उसके (गभस्त्योः) बाहुओं में बल के तुल्य अन्धकार को दूर करने वाले सूर्य और चन्द्र दोनों का (हरिः) सञ्चालन करने वाला है। वह (द्युम्नी) तेजस्वी, ऐश्वर्यवान, (सु-शिप्रः) उत्तम बलशाली, (हरिमन्यु-सायकः) दुष्टों को हरण करने वाले क्रोध रूप शस्त्र वाला, जिसका कोप ही दुष्ट जनों को बाणादिवत् पीड़ित करता है, उस (इन्द्रे) ऐश्वर्यवान्, दुष्ट नाशक तेजोमय प्रभु में (हरिता रूपा निमिमिक्षिरे) हरित, तेजोमय, कमनीय मनोहर अनेक रूप वा गुण प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः। देवताः—हरिस्तुतिः॥ छन्द्र:- १, ७, ८, जगती। २–४, ९, १० जगती। ५ आर्ची स्वराड जगती। ६ विराड् जगती। ११ आर्ची भुरिग्जगती। १२, १३ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः-अस्य वज्रः-हरितः-यः-आयसः) अस्य परमात्मनः स वज्रः शस्त्रविशेषः सौवर्णः-दीप्यमानो दुःखहरणशीलः (गभस्त्योः-हरिः) भुजयोः-हस्तयोर्वा “गभस्ती बाहुनाम” [निघ० २।४] “पाणी वै गभस्ती” [श० ४।१।१।९] दुःखाज्ञानहारकः (द्युम्नी) यशस्वी-यशोदाता (सुशिप्रः) सुष्ठु सुखप्रापकः “सुशिप्र सुष्ठु सुखप्रापकः” [ऋ० १।१७।१० दयानन्दः-“अत्र शेवृ धातोः पृषोदरादिनेष्टसिद्धिः” दयानन्दः] (हरिमन्युसायकः) दुःखाज्ञानशत्रूणां नाशको मन्युदेवसायको वाणो यस्य तथाभूतः (इन्द्रे) ऐश्वर्यवति परमात्मनि (हरिता रूपा नि मिमिक्षिरे) मनोहराणि गुणस्वरूपाणि स्वतो निषिक्तानि सन्ति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That power of Hari, omnipotent Indra, is the thunderbolt, and the thunderbolt is electric, magnetic, unfailing in aim and desire and it is borne in the hands of centrifugal and centripetal forces. It is bright and blazing, mighty passionate, punitive and destructive for the evil. Indeed in Indra as in the sun, all forms, all colours and all beauties are integrated.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचे वज्र तेजस्वी असून दु:ख, अज्ञान या शत्रूंना नष्ट करणारे आहे. त्यात परमात्म्याचा मन्युरूप बाण लावलेला आहे. परमेश्वरामध्ये मनोहर गुणधर्म स्वत:च आहेत. त्यामुळे त्याची उपासना केली पाहिजे. ॥३॥
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