ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 96/ मन्त्र 13
ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः
देवता - हरिस्तुतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अपा॒: पूर्वे॑षां हरिवः सु॒ताना॒मथो॑ इ॒दं सव॑नं॒ केव॑लं ते । म॒म॒द्धि सोमं॒ मधु॑मन्तमिन्द्र स॒त्रा वृ॑षञ्ज॒ठर॒ आ वृ॑षस्व ॥
स्वर सहित पद पाठअपाः॑ । पूर्वे॑षाम् । ह॒रि॒ऽवः॒ । सु॒ताना॑म् । अथो॒ इति॑ । इ॒दम् । सव॑नम् । केव॑लम् । ते॒ । म॒म॒द्धि । सोम॑म् । मधु॑ऽमन्तम् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्रा । वृ॒ष॒न् । ज॒ठरे॑ । आ । वृ॒ष॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपा: पूर्वेषां हरिवः सुतानामथो इदं सवनं केवलं ते । ममद्धि सोमं मधुमन्तमिन्द्र सत्रा वृषञ्जठर आ वृषस्व ॥
स्वर रहित पद पाठअपाः । पूर्वेषाम् । हरिऽवः । सुतानाम् । अथो इति । इदम् । सवनम् । केवलम् । ते । ममद्धि । सोमम् । मधुऽमन्तम् । इन्द्र । सत्रा । वृषन् । जठरे । आ । वृषस्व ॥ १०.९६.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 96; मन्त्र » 13
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(हरिवः) हे उपासक मनुष्योंवाले (इन्द्र) परमात्मन् ! (सुतानां पूर्वेषाम्) उत्पन्न पूर्व उपासकों के (अपाः) उपासनारस को तू रखता है-स्वीकार करता है (इदं सवनम्) यह अध्यात्मयज्ञ (केवलं ते) केवल तेरा है-तेरी प्राप्ति के लिये किया जाता है (वृषन्) हे सुखवर्षक देव ! (मधुमन्तम्) दिया जाता हुआ मधुर उपासनारस जिसके पास हो, उस मधुर रसवाले (सोमम्) सौम्यस्वभाव उपासक को (ममद्धि) हर्षित कर (सत्रा) सत्यस्वरूप आत्मा के (जठरे) मध्य (आ वृषस्व) भलीभाँति अपने आनन्द को सिञ्च-वर्षा ॥१३॥
भावार्थ
उपासक मनुष्यों का इष्टदेव पूर्व उपासकों के उपासनारस को स्वीकार करता है तथा उपासक को हर्षित करता तथा अपने आनन्द को उसके आत्मा में सींच देता है-भरपूर कर देता है, उसकी उपासना अवश्य करनी चाहिए ॥१३॥
विषय
सोम का पान
पदार्थ
[१] हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले जीव ! (तूने पूर्वेषाम्) = इन पालन व पूरण करनेवाले (सुतानाम्) = उत्पादित सोमों का (अपाः) = पान किया है। (अथ उ) = और निश्चय से (इदं सवनम्) = यह सोम का उत्पादन (केवलं ते) = शुद्ध तेरे ही उत्कर्ष के लिए है । [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (मधुमन्तं सोमम्) = जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाले इस सोम को (ममद्धि) = [पिब आस्वादय सा०] पीनेवाला बन। हे (वृषन्) = शक्तिशालिन् ! तू (सत्रा) = सदा (जठरे) = अपने अन्दर (आवृषस्व) = इससोम का सेचन करनेवाला बन । यही मार्ग है, सब प्रकार के उत्कर्ष का । इसी सोम के पान से उन्नति करते-करते अन्त में प्रभु का दर्शन होता है।
भावार्थ
भावार्थ - हम सोम का पान करें। इसी से अन्त में हम प्रभु-दर्शन करनेवाले बनेंगे। सूक्त का भाव यह है कि हम सोम का पान करके सब रोगों व अन्य कष्टों का निवारण करनेवाले बनें । 'यह सोम ओषधि वनस्पतियों का ही सारभूत होना चाहिए' इस संकेत को करता हुआ अगला सूक्त 'ओषधयः' देवता का है। इन ओषधियों वनस्पतियों के द्वारा उत्पन्न सोम के रक्षण से शरीर में सब रोगों का निराकरण करनेवाला 'भिषक्' प्रस्तुत सूक्त का ऋषि है। यह 'आथर्वण' है, चित्तवृत्ति को न डाँवाडोल होने देनेवाला है, यह आथर्वण ही तो सोम का रक्षण कर पाता है । यह कहता है कि-
विषय
ज्ञानप्रद प्रभु।
भावार्थ
हे (हरिवः) समस्त मनुष्यों, जीवों और लोकों के स्वामिन् ! तू (पूर्वेषां सुतानां) पूर्व उत्पन्न लोकों को भी (अपाः) पालन करता रहा। (अथो) और (इदं सवनं) यह उत्पन्न भुवन भी (ते केवलम्), केवल एकमात्र तेरी ही विभूति है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (मधुमन्तं सोमम्) मधुर वचनों वाले जीव को पुत्रवत् (ममद्धि) हर्षित कर। वा हे (वृषभ) बरसते मेघ के तुल्य सुखों के वर्षक प्रभो ! तू (सत्रा) नित्य ही उसे (जठरे) अपने भीतर शिष्य को गुरु के तुल्य अपने गर्भ में (आवृषस्व) सब प्रकार से ग्रहण कर और ज्ञान और हर्ष से गर्भित बीजों को मेघ के तुल्य सेचित, परिवर्धित कर। इति सप्तमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः। देवताः—हरिस्तुतिः॥ छन्द्र:- १, ७, ८, जगती। २–४, ९, १० जगती। ५ आर्ची स्वराड जगती। ६ विराड् जगती। ११ आर्ची भुरिग्जगती। १२, १३ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(हरिवः इन्द्र) हे-उपासकमनुष्यवन् परमात्मन् ! “हरिवान् बहुप्रशस्तमनुष्ययुक्तः” [ऋ० ७।३२।१२ दयानन्दः] (सुतानां पूर्वेषाम्) उत्पन्नानां पूर्वेषामुपासकानाम् (अपाः) उपासनारसं त्वं रक्षसि-स्वीकरोषि (इदं सवनम्) अयमध्यात्मयज्ञः “सवनं यज्ञनाम” [निघ० ३।७] (केवलं ते) केवलं तवैव तव प्राप्तये क्रियते (वृषन्) हे सुखवर्षक परमात्मन् ! (मधुमन्तं सोमं ममद्धि) दीयमानमधुर उपासनारसो यस्य पार्श्वे तं मधुरोपासनारसवन्तं सोम्यस्वभावमुपासकं हर्षय “ममत्सि हर्षयसि” [ऋ० ४।२१।९ दयानन्दः] (सत्रा जठरे-आ वृषस्व) सत्यस्वरूपस्य आत्मनो मध्ये “मध्यं वै जठरम्” [श० ७।१।१।२२] समन्तात् स्वानन्दं सिञ्च “वृषस्व सिञ्चस्व” [ऋ० १।१०४।९ दयानन्दः] ॥१३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of light divine and solar radiations, you have drunk of the soma of the ancients of earliest sessions. This yajna session and the soma extracted in here is only for you. O lord of generous showers in this session, pray, drink of the honey sweet soma of our love and faith and let the showers of bliss flow and fill the skies and space unto the depth of our heart.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासकांचा इष्टदेव पूर्वीच्या उपासकांच्या उपासना रसाला स्वीकारतो. तेव्हा उपासक आनंदयुक्त बनतो व परमात्मा त्याच्या आत्म्यात आनंदाचे भरपूर सिंचन करतो. त्यासाठी त्याची उपासना अवश्य केली पाहिजे. ॥१३॥
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