ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 96/ मन्त्र 7
ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः
देवता - हरिस्तुतिः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
अरं॒ कामा॑य॒ हर॑यो दधन्विरे स्थि॒राय॑ हिन्व॒न्हर॑यो॒ हरी॑ तु॒रा । अर्व॑द्भि॒र्यो हरि॑भि॒र्जोष॒मीय॑ते॒ सो अ॑स्य॒ कामं॒ हरि॑वन्तमानशे ॥
स्वर सहित पद पाठअर॑म् । कामा॑य । हर॑यः । द॒ध॒न्वि॒रे॒ । स्थि॒राय॑ । हि॒न्व॒न् । हर॑यः । हरी॒ इति॑ । तु॒रा । अर्व॑त्ऽभिः । यः । हरि॑ऽभिः । जोष॑म् । ईय॑ते । सः । अ॒स्य॒ । काम॑म् । हरि॑ऽवन्तम् । आ॒न॒शे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरं कामाय हरयो दधन्विरे स्थिराय हिन्वन्हरयो हरी तुरा । अर्वद्भिर्यो हरिभिर्जोषमीयते सो अस्य कामं हरिवन्तमानशे ॥
स्वर रहित पद पाठअरम् । कामाय । हरयः । दधन्विरे । स्थिराय । हिन्वन् । हरयः । हरी इति । तुरा । अर्वत्ऽभिः । यः । हरिऽभिः । जोषम् । ईयते । सः । अस्य । कामम् । हरिऽवन्तम् । आनशे ॥ १०.९६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 96; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(हरयः) उपासक मनुष्य (कामाय-अरम्) परमात्मा को चाहने के लिए समर्थ हैं (दधन्विरे) इसलिए उसको धारण करते हैं-उसका ध्यान करते हैं (हरयः) वे उपासक मनुष्य (स्थिराय) उसे अपने आत्मा में स्थिर करने के लिए-(तुरा) शीघ्रता से पुनः-पुनः (हरी) स्तुति और उपासना को (हिन्वन्ति) प्रेरित करते हैं (यः) जो (अर्वद्भिः) प्रगतिशीलवाले (हरिभिः) उपासक मनुष्यों के द्वारा (जोषम्-ईयते) प्रीतिभाव में प्राप्त किया जाता है (अस्य) उसी परमात्मा के (कामम्) कमनीय (हरिवन्तम्) दुःखहरणवाले ज्ञानप्रकाश को प्राप्त होता है ॥७॥
भावार्थ
उपासक मनुष्य परमात्मा की कामना करने में लगे रहते हैं, उसे अपने अन्दर धारण करते हैं, पूर्णरूप से अन्दर बिठाने के लिये पुनः-पुनः उसकी स्तुति उपासना किया करते हैं, जिससे प्रीतिभाव उत्पन्न करके परमात्मा के ज्ञानप्रकाश को प्राप्त करते हैं ॥७॥
विषय
हरिवान् प्रभु की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (कामाय) = काम्य प्रभु की प्राप्ति के लिए (हरयः) [ सोमाः ] = सब रोगों का हरण करनेवाले सोम [वीर्यकण] (अरं दधन्विरे) = खूब ही धारण किए जाते हैं। ये (हरयः) = दुःख हरणकारी सोमकण (तुरा हरी) = त्वरा से युक्त इन इन्द्रियाश्वों को (स्थिराय) = उस स्थिर - कूटस्थ प्रभु के लिए (हिन्वन्) = प्रेरित करते हैं। सोमकणों के धारण से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है, दीप्त ज्ञानाग्नि से प्रभु का दर्शन होता है । [२] (यः) = जो व्यक्ति (अर्वद्भिः) = विघ्नों को विनष्ट करके आगे बढ़नेवाले (हरिभिः) = इन इन्द्रियाश्वों से (जोषम्) = प्रीतिपूर्वक उपासन को (ईयते) = प्राप्त होता है (सः) = वह (अस्य कामम्) = इसके चाहने योग्य (हरिवन्तम्) = प्रकाश की किरणोंवाले उस प्रभु को (आनशे) = प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम का रक्षण करें। शक्तिशाली इन्द्रियों को प्रभु की उपासना में प्रवृत्त करें। तो हम अवश्य उस कमनीय प्रकाशमय प्रभु को प्राप्त करेंगे।
विषय
प्रभु और भक्तों का पारस्परिक आकर्षण,
भावार्थ
(हरयः) मनुष्य (कामाय) सबसे चाहने योग्य प्रभु को प्राप्त करने के लिये (अरं) बहुत अधिक अपने आपको (दधन्विरे) रखते हैं। और (हरयः) वे मनुष्य (स्थिराय) स्थिर नित्य पुरुष को प्राप्त करने के लिये (तुरा हरी) वेगवान् इन्द्रियवर्गों को (हिन्वन्) प्रेरित करते हैं, (यः) जिसको (अर्वद्भिः हरिभिः) आगे बढ़ने वाले मनुष्य (जोषम् ईयते) प्रेमपूर्वक प्राप्त होते हैं, (सः) वह प्रभु (अस्य) इस जीव के (हरिवन्तम् कामम्) हरणशील इन्द्रियों से युक्त कमनीय वा कामनावान् आत्मा को (आनशे) व्यापता है। उसकी प्रत्येक कामना को पूर्ण करता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः। देवताः—हरिस्तुतिः॥ छन्द्र:- १, ७, ८, जगती। २–४, ९, १० जगती। ५ आर्ची स्वराड जगती। ६ विराड् जगती। ११ आर्ची भुरिग्जगती। १२, १३ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(हरयः-कामाय-अरं दधन्विरे) उपासका मनुष्याः परमात्मानं कामयितुमलं सन्ति तस्मात् ते तं धारयन्ति (हरयः) ते खलूपासका मनुष्याः (स्थिराय) स्वात्मनि स्थिरभावाय (तुरा हरी हिन्वन्ति) तं परमात्मानं शीघ्रतया हरन्तौ प्रापयन्तौ-ऋक्सामरूपौ स्तवनोपासनप्रकारौ प्रेरयन्ति (यः) यः खलु (अर्वद्भिः-हरिभिः-जोषम्-ईयते) तैः प्रगतिशील-वैदिकैरुपासकमनुष्यैः-प्रीतिभावं नीयते (अस्य कामं हरिवन्तम्-सः-आनशे) अस्य-उपास्यस्य दुःखहरणवन्तं कमनीयस्वरूपं प्राप्नोति ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The dynamics of divine nature sustain the refulgent Indra for its holy solar purpose. The same powers energise the gravitational forces to hold the sun in balanced orbit. By these energy forces does Indra’s presence vibrate in the universe with love. And through these very forces does Indra fulfil his dear divine purpose.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासक परमेश्वराची कामना करण्यात मग्न असतात. त्याला आपल्या अंत:करणात धारण करतात. पूर्णपणे अंत:करणात वसविण्यासाठी त्याची स्तुती, उपासना करतात. ज्यामुळे प्रेमभाव उत्पन्न करून परमेश्वराचा ज्ञानप्रकाश प्राप्त करतात. ॥७॥
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