ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 18/ मन्त्र 14
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - आदित्याः
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
समित्तम॒घम॑श्नवद्दु॒:शंसं॒ मर्त्यं॑ रि॒पुम् । यो अ॑स्म॒त्रा दु॒र्हणा॑वाँ॒ उप॑ द्व॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । इत् । तम् । अ॒घम् । अ॒श्न॒व॒त् । दुः॒ऽशंस॑म् । मर्त्य॑म् । रि॒पुम् । यः । अ॒स्म॒ऽत्रा । दुः॒ऽहना॑वान् । उप॑ । द्व॒युः ॥
स्वर रहित मन्त्र
समित्तमघमश्नवद्दु:शंसं मर्त्यं रिपुम् । यो अस्मत्रा दुर्हणावाँ उप द्वयुः ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । इत् । तम् । अघम् । अश्नवत् । दुःऽशंसम् । मर्त्यम् । रिपुम् । यः । अस्मऽत्रा । दुःऽहनावान् । उप । द्वयुः ॥ ८.१८.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 18; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यः) यो जनः (अस्मत्रा) अस्माद् (दुर्हणावान्) दुर्नीत्या दण्डनवान् (द्वयुः, उप) प्रत्यक्षहितं परोक्षाहितत्वमुपगतः (तम्) तादृशम् (दुःशंसम्) निन्द्यम् (रिपुम्, मर्त्यम्) शत्रुं जनम् (अघम्, इत्) पापमेव (समश्नवत्) व्याप्नोतु ॥१४॥
विषयः
दुष्टो दण्डनीयोऽस्तीति दर्शयति ।
पदार्थः
अघमित्=पापमेव । तम्+मर्त्यम्=मनुष्यम् । समश्नवत्=सम्यग् व्याप्नोतु । विनाशयत्वित्यर्थः । कीदृशं मर्त्यम् । दुःशंसम्=दुष्कीर्तिम् । पुनः । रिपुम्=मनुष्याणां शत्रुभूतम् । पुनः । योजनः । अस्मत्र=अस्मासु=अस्मद्विषये । दुर्हणावान्=दुष्टापकारी । उप=उपजायते । तमपि । अपि च । यो द्वयुर्द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां युक्तश्च भवति अयमर्थः । यः कश्चित् परोक्षे कार्य्यहन्ता प्रत्यक्षे प्रियवादी स द्वयुरिह निगद्यते य ईदृशः । पिशुनो वर्तते । तमपि च । पापमेव समश्नोतु=भक्षयतु ॥१४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यः) जो मनुष्य (अस्मत्रा) हम लोगों को (दुर्हणावान्) दुर्नीति से दण्ड देना चाहता है (द्वयुः, उप) और प्रत्यक्ष हितकारक तथा परोक्ष में अहित भाव रखता है (तम्) ऐसे (दुःशंसम्) निन्दनीय (रिपुम्, मर्त्यम्) शत्रु मनुष्य को (अघम्, इत्) पाप ही (समश्नवत्) आच्छादित करे ॥१४॥
भावार्थ
जो मनुष्य कुटिल नीति से हमको दुःख पहुँचाता अर्थात् प्रत्यक्ष में शुभचिन्तक तथा परोक्ष में अशुभ विचार करता हुआ सेवन करता है, ऐसा निन्दनीय शत्रु मनुष्य पापों से आच्छादित होकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है ॥१४॥
विषय
दुष्ट दण्डनीय है, यह दिखाते हैं ।
पदार्थ
(अघम्+इत्) पाप ही (तम्+मर्त्यम्) उस मनुष्य को (सम्+अश्नवत्) अच्छे प्रकार व्याप्त हो अर्थात् विनष्ट कर देवे, जो मनुष्य (दुःशंसम्) दुष्कीर्ति है, जिसने विविध कुकर्म करके संसार में अपयश खरीदा है और जो (रिपुम्) मनुष्यमात्र का शत्रु है, ऐसे मनुष्य को पाप ही खा जाय । पुनः (यः) जो (अस्मत्र) निरपराधी हम लोगों के विषय में (दुर्हणावान्) दुष्टापकारी है, उसको भी पाप हनन करे (द्वयुः) दो प्रकारों से जो युक्त है अर्थात् जो परोक्ष में कार्य्यहन्ता और प्रत्यक्ष में प्रियवादी है, उन सबको पाप खा जाए ॥१४ ॥
भावार्थ
अपनी ओर से किसी का अपराध न हो, ऐसी ही सदा चेष्टा करनी चाहिये । जो जन निरपराधी को सताते हैं, उन्हें सांसारिक नियम ही दण्ड देकर नष्ट कर देता है ॥१४ ॥
विषय
विद्वानों से अज्ञान और पापनाश की प्रार्थना।
भावार्थ
( यः ) जो ( अस्मत्रा ) हम लोगों में ( दुर्हणावान् ) दुःखदायी, पीड़ा देने वाला और ( द्वयुः ) हमारे प्रति दो प्रकार की भाव—बाहर कुछ और भीतर कुछ, प्रत्यक्ष में कुछ और परोक्ष में कुछ भाव—रखता है, ( तं ) उस ( दुःशंसं ) दुर्गृहीत नाम वाले, बदनाम वा बुरी बात करने वाले ( रिपुम् मर्त्यम् ) शत्रु, पापी पुरुष को ( अघम् सम्-अश्नवत् ) पाप ही व्याप लेता और नष्ट कर देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—७, १०—२२ आदित्यः। ८ अश्विनौ। ९ आग्निसूर्यांनिलाः॥ छन्दः—१, १३, १५, १६ पादनिचृदुष्णिक्॥ २ आर्ची स्वराडुष्णिक् । ३, ८, १०, ११, १७, १८, २२ उष्णिक्। ४, ९, २१ विराडुष्णिक्। ५-७, १२, १४, १९, २० निचृदुष्णिक्॥ द्वात्रिंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
'दुर्हणावान्-द्वयु' दुःशंस
पदार्थ
[१] (तम्) = उस (दुःशंसम्) = अशुभ का शंसन करनेवाले औरों के अशुभ को चाहनेवाले, (रिपुं मर्त्यम्) = औरों का विदारण करनेवाले मनुष्य को (इत्) = ही (अघम्) = वह पाप व कष्ट (सं अश्नवत्) = सम्यक् व्याप्त करे, (यः) = जो (अस्मत्रा) = हमारे विषय में (दुर्हणावान्) = बुरी तरह से हनन करनेवाला है और (द्वयुः उप) = [ जायते] दो प्रकार का, अन्दर कुछ और बाहिर कुछ, अर्थात् छल छिद्रवाला होता है। [२] वस्तुतः जो औरों का बुरा चाहता है, उसका स्वयं ही बुरा होता है। वस्तुतः न तो हमें 'दुर्हणावान्' बनना चाहिये और न ही 'द्वयु'।
भावार्थ
भावार्थ- हम न तो औरों का हनन करनेवाले हों, ना ही छल-छिद्र से वर्ते । ये बातें हमारी अकीर्ति का कारण बनेंगी। उस अघ के शिकार हम ही होंगे।
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the sin itself consume and wholly destroy that sinner, evil designer, maligner, mortal enemy of humanity who is a treacherous double dealer and seeks to destroy us.
मराठी (1)
भावार्थ
आपल्याकडून कुणाचाही अपराध होता कामा नये, असाच प्रयत्न सदैव केला पाहिजे. जे लोक निरपराधी लोकांना त्रास देतात त्यांना जगाचा नियमच दंड देऊन नष्ट करतो. ॥१४॥
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