ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 18/ मन्त्र 16
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - आदित्याः
छन्दः - पादनिचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
आ शर्म॒ पर्व॑ताना॒मोतापां वृ॑णीमहे । द्यावा॑क्षामा॒रे अ॒स्मद्रप॑स्कृतम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । शर्म॑ । पर्व॑तानाम् । आ । उ॒त । अ॒पाम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ । द्यावा॑क्षामा । आ॒रे । अ॒स्मत् । रपः॑ । कृ॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ शर्म पर्वतानामोतापां वृणीमहे । द्यावाक्षामारे अस्मद्रपस्कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । शर्म । पर्वतानाम् । आ । उत । अपाम् । वृणीमहे । द्यावाक्षामा । आरे । अस्मत् । रपः । कृतम् ॥ ८.१८.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 18; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(पर्वतानाम्) गिरीणाम् (शर्म, आ) सर्वं सुखम् (उत) अथ (अपाम्) जलानाम् (आवृणीमहे) आभुञ्जामहे, अतः (द्यावाक्षामा) हे द्यावापृथिव्यौ ! (अस्मत्, आरे) अस्मत्तः दूरदेशे (रपः, कृतम्) पापं कुरुतम् ॥१६॥
विषयः
कल्याणप्रार्थनां विदधति ।
पदार्थः
हे आदित्याः । वयं पर्वतानां शर्म=सुखमावृणीमहे= आसमन्ताद्याचामहे । उत=अपि च । अपाम्=नदीनां शर्म आवृणीमहे । हे द्यावाक्षामा=द्यावापृथिव्यौ द्यावापृथिव्याविव प्रकाशक्षमायुक्ते मातरौ बुद्धिजनन्यौ । अस्मदस्मत्तः । रपः=पापम् । आरे=दूरदेशे । कृतमपगमयतम् ॥१६ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(पर्वतानाम्) पर्वतों के (शर्म, आ) सर्वविध सुखों को (उत) और (अपाम्) अन्तरिक्षस्थ जलों के सुखों को (आवृणीमहे) हम अनुभव करते हैं, इसलिये (द्यावाक्षामा) हे अन्तरिक्ष तथा पृथिवी ! (अस्मत्, आरे) हमसे दूरदेश में (रपः, कृतम्) पापों को करो ॥१६॥
भावार्थ
हे पापकारी मनुष्यो ! यह पृथिवी तथा अन्तरिक्ष, जो मनुष्यमात्र को सुख देनेवाले हैं, इन पर पाप मत करो, किन्तु इनसे पृथक् होकर करो अर्थात् सब स्थानों में पाप न करते हुए अपने जीवन को पवित्र और उच्चभावोंवाला बनाओ ॥१६॥
विषय
कल्याण के लिये प्रार्थना करते हैं ।
पदार्थ
हे आचार्य्यादि विद्वान् जनों ! हम प्रजागण (पर्वतानाम्) पर्वतों का (शर्म) सुख (आ+वृणीमहे) माँगते हैं (उत) और (अपाम्) नदियों का सुख (आ+वृणीमहे) माँगते हैं अर्थात् आप ऐसा उद्योग करें कि जैसे पर्वत और नदी परमोपकारी हैं, सदा नाना वस्तुओं से सुभूषित रहते हैं, उनसे सहस्रों जीवों का निर्वाह होता है, पर्वत उच्च दृढ़ और नदी शीतल होती है, हम मनुष्य भी वैसे होवें । यद्वा जैसे पर्वत और नदी को सब कोई चाहते हैं तद्वत् हम भी सर्वप्रिय होवें । यद्वा पर्वत और नदी के समीप हमारा वास होवे । (द्यावाक्षामा) द्युलोक के सदृश दीप्तिमती, पृथिवी के सदृश क्षमाशीला बुद्धिमाता और माता, ये दोनों यहाँ द्यावाक्षामा कहलाती हैं । हे बुद्धि तथा माता आप दोनों (रपः) पाप को (अस्मद्+आरे) हम लोगों से बहुत दूर देश में (कृतम्) ले जावें ॥१६ ॥
भावार्थ
जो कोई पृथिवी और द्युलोक के तत्त्वों को सर्वदा विचारते हैं, वे पाप में प्रवृत्त नहीं होते, क्योंकि पाप में क्षुद्रजन प्रवृत्त होते हैं, महान् जन नहीं । तत्त्ववित् जनों का हृदय महाविशाल हो जाता है ॥१६ ॥
विषय
विद्वानों से अज्ञान और पापनाश की प्रार्थना।
भावार्थ
हे ( द्यावाक्षाम ) सूर्य और पृथिवीवत् तेजस्वी और क्षमा-शील, माता पिता गुरु जनो ! हम लोग ( पर्वतानां ) मेघों वा पर्वतों के और ( अपां ) जलों के बीच ( शर्म ) शान्ति सुखदायक शरण या गृह के समान सुरक्षित, ( पर्वतानां अपां ) पालक साधनों वाले दृढ़ बलवान् महापुरुषों और आप्तजनों के बीच ( शर्म वृणीमहे ) शान्ति सुख को प्राप्त करें। आप दोनों ( रपः ) पापको ( अस्मत् ) हम से ( आरे ) दूर ( कृतम् ) करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—७, १०—२२ आदित्यः। ८ अश्विनौ। ९ आग्निसूर्यांनिलाः॥ छन्दः—१, १३, १५, १६ पादनिचृदुष्णिक्॥ २ आर्ची स्वराडुष्णिक् । ३, ८, १०, ११, १७, १८, २२ उष्णिक्। ४, ९, २१ विराडुष्णिक्। ५-७, १२, १४, १९, २० निचृदुष्णिक्॥ द्वात्रिंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
'पर्वत- जल व द्युलोक और पृथ्वीलोक' की अनुकूलता
पदार्थ
[१] हम (पर्वतानाम्) = पर्वतों के (उत) = और (अपाम्) = जलों के (शर्म) = सुख को (आवृणीमहे) = सर्वथा वरते हैं। हमें पर्वतों व जलों से कल्याण ही कल्याण प्राप्त हो। [२] हे (द्यावाक्षामा) = धुलोक व पृथ्वीलोक (अस्मद्) = हमारे से (रपः) = पाप को व दोष को (आरे कृतम्) = दूर करिये। सारा ब्रह्माण्ड हमारे साथ अनुकूलतावाला हो और हमारा जीवन बड़ा निर्दोष बने ।
भावार्थ
भावार्थ- पर्वत, जल, द्युलोक व पृथ्वीलोक सब हमारे साथ अनुकूलतावाले हों और परिणामतः हमारा जीवन निर्दोष बने।
इंग्लिश (1)
Meaning
We pray for the peace and protection of the mountains and the clouds. We pray for the peace and protection of the running waters. May heaven and earth, divine intelligence and holy mother, keep off sin and evil, suffering and disease from us. (Our choice and prayer is freedom from sin and suffering.)
मराठी (1)
भावार्थ
जे कोणी पृथ्वी व द्युलोकाच्या तत्त्वांचा विचार करतात ते पापात प्रवृत्त होत नाहीत. कारण पापात क्षुद्र लोक प्रवृत्त होतात. मोठे लोक नाही. तत्त्वज्ञानी लोकांचे हृदय महाविशाल असते. ॥१६॥
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