ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - आदित्याः
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
ते हि पु॒त्रासो॒ अदि॑तेर्वि॒दुर्द्वेषां॑सि॒ योत॑वे । अं॒होश्चि॑दुरु॒चक्र॑योऽने॒हस॑: ॥
स्वर सहित पद पाठते । हि । पु॒त्रासः॑ । अदि॑तेः । वि॒दुः । द्वेषां॑सि । योत॑वे । अं॒होः । चि॒त् । उ॒रु॒ऽचक्र॑यः । अ॒ने॒हसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते हि पुत्रासो अदितेर्विदुर्द्वेषांसि योतवे । अंहोश्चिदुरुचक्रयोऽनेहस: ॥
स्वर रहित पद पाठते । हि । पुत्रासः । अदितेः । विदुः । द्वेषांसि । योतवे । अंहोः । चित् । उरुऽचक्रयः । अनेहसः ॥ ८.१८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ विद्यायाः प्रकारान्तरेण महत्त्वमुपदिश्यते।
पदार्थः
(ते, हि, अदितेः, पुत्रासः) विद्यायाः पुत्रतुल्यास्ते विद्वांसः (द्वेषांसि) शत्रून् (अंहोः, चित्) पापाच्च (योतवे) पृथक्कर्तुम् (विदुः) जानन्ति (उरुचक्रयः) बहुकर्माणः (अनेहसः) रक्षकाश्च सन्ति ॥५॥
विषयः
विदुषां प्रशंसा विधीयते ।
पदार्थः
अदितेः=विमलबुद्धेः । ते+हि=ते खलु प्रसिद्धाः । पुत्रासः=पुत्रा आचार्य्याः । द्वेषांसि=द्वेष्टॄणि राक्षसादीनि । यद्वा । पारस्परिकद्वेषान् । विदुः=जानन्ति । तथा । ते । उरुचक्रयः=उरूणां महतां कार्य्याणां चक्रयः=कर्त्तारः । पुनः । अनेहसोऽनाहन्तारो रक्षकास्ते । अंहोः+चित्=आगत्य हन्तुः पापादपि अस्मान् । योतवे=पृथक्कर्तुम् । जानन्ति । अतस्तेषामेषामाज्ञायां सर्वे जना वर्तन्तामित्युपदेशः ॥५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब विद्या की प्रकारान्तर से महिमा वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(ते, हि, अदितेः, पुत्रासः) विद्या के पुत्रसमान वे विद्वान् (द्वेषांसि) शत्रुओं से (अंहोः, चित्) और पाप से (योतवे) दूर करने को (विदुः) जानते हैं (उरुचक्रयः) अनेक कर्मोंवाले और (अनेहसः) रक्षण में समर्थ हैं ॥५॥
भावार्थ
विद्यासम्पन्न=विद्या के पुत्रवत् विद्वान् पुरुष पापों और शत्रुओं से निवृत्त करना जानते हैं अर्थात् वे पुरुष के राग, द्वेष, काम तथा क्रोधादि वेगों को रोककर उनमें एकमात्र शान्ति स्थापन करते हैं, “यह विद्या का महत्त्व” है, अतएव सर्वोपरि शान्तिधारण करने के लिये पुरुष को चाहिये कि वे विद्वानों की सङ्गति से अपने को शान्त बनाएँ, जिससे सर्वप्रिय तथा सर्वमित्र हों ॥५॥
विषय
विद्वानों की प्रशंसा विधान करते हैं ।
पदार्थ
(अदितेः) विमलबुद्धि के (ते+हि) वे सुप्रसिद्ध (पुत्रासः) पुत्र=आचार्य्य और पण्डितगण (द्वेषांसि) दुष्ट राक्षसादिकों को यद्वा द्वेषों और शत्रुता को समाज से (योतवे) पृथक् करना (विदुः) जानते हैं । तथा (उरुचक्रयः) महान् कार्य्य करनेवाले (अनेहसः) अहन्ता=रक्षक वे आचार्य्य (अंहोः+चित्) महापाप से भी हम लोगों को दूर करना जानते हैं । इस कारण उनकी आज्ञा में सब जन रहा करें, यह उपदेश है ॥५ ॥
भावार्थ
आचार्य्य या विद्वद्वर्ग सदा जनता को नाना क्लेशों से बचाया करते हैं । अपने सुभाषण से लोगों को सन्मार्ग में लाके पापों से दूर करते हैं । अतः देश में ऐसे आचार्य्य और विद्वान् जैसे बढ़ें, वैसा उपाय सबको करना उचित है ॥५ ॥
विषय
विदुषी माता के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( ते हि ) वे ( अदितेः पुत्रासः ) भूमि के पुत्र वा भूमि माता के बहुतों की रक्षा करने वाले तेजस्वी पुरुष, ( उरु-चक्रयः ) बड़े २ कार्य करने वाले ( अनेहसः ) निष्पाप लोग ( अंहो:-चित् ) पापी के भी ( द्वेषांसि ) अप्रीतिकारक द्वेष भागों को ( योतवे विदुः ) दूर करने का उपाय जानते हैं। इति पञ्चविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—७, १०—२२ आदित्यः। ८ अश्विनौ। ९ आग्निसूर्यांनिलाः॥ छन्दः—१, १३, १५, १६ पादनिचृदुष्णिक्॥ २ आर्ची स्वराडुष्णिक् । ३, ८, १०, ११, १७, १८, २२ उष्णिक्। ४, ९, २१ विराडुष्णिक्। ५-७, १२, १४, १९, २० निचृदुष्णिक्॥ द्वात्रिंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
द्वेष व पाप से दूर
पदार्थ
[१] (ते) = वे (अदितेः पुत्रासः) = अदिति के पुत्र आदित्य विद्वान् (हि) = निश्चय से (द्वेषांसि) = द्वेषों को (योतवे) = पृथक् करने के लिये (विदुः) = जानते हैं। वे हमें ऐसे मार्ग से ले चलते हैं कि हम द्वेष की भावना में नहीं फँसते, द्वेष आदि की ओर हमारा झुकाव ही नहीं रहता। [२] वे आदित्य (उरुचक्रय:) = खूब ही क्रियाशील जीवनवाले होते हैं । (अनेहसः) = निष्पाप होते हैं। ये विद्वान् (अंहोः चित्) = पाप से हमें पृथक् करना जानते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम आदित्य विद्वानों के सम्पर्क में चलें। ये हमें द्वेष व पाप से दूर करेंगे।
इंग्लिश (1)
Meaning
Those children of divinity, sages, scholars and redoubtable warriors, pure at heart and great performers of boundless possibilities, know how to remove jealousies, fight out enmities and eliminate sin and crime.
मराठी (1)
भावार्थ
आचार्य किंवा विद्वान सदैव जनतेला नाना क्लेशांपासून वाचवितात. आपल्या चांगल्या वाणीने लोकांना सन्मार्गाला लावून पापांपासून दूर करतात. त्यासाठी देशात असे आचार्य व विद्वान अधिक वाढावेत असे उपाय करावेत. ॥५॥
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