ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 13
एन्दु॒मिन्द्रा॑य सिञ्चत॒ पिबा॑ति सो॒म्यं मधु॑ । प्र राध॑सा चोदयाते महित्व॒ना ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इन्दु॑म् । इन्द्रा॑य । सि॒ञ्च॒त॒ । पिबा॑ति । सो॒म्यम् । मधु॑ । प्र । राध॑सा । चो॒द॒या॒ते॒ । म॒हि॒ऽत्व॒ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्दुमिन्द्राय सिञ्चत पिबाति सोम्यं मधु । प्र राधसा चोदयाते महित्वना ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इन्दुम् । इन्द्राय । सिञ्चत । पिबाति । सोम्यम् । मधु । प्र । राधसा । चोदयाते । महिऽत्वना ॥ ८.२४.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Prepare, offer and regale Indra with the nectar drink of faith and performance. He values, enjoys and promotes the honey sweets of peace, pleasure and progress and inspires the people with will and competence and ambition for progress and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्माच आम्हाला उन्नतीच्या मार्गाकडे नेतो. त्यामुळे प्रेम व श्रद्धेने तोच स्वीकारण्यायोग्य आहे. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
इन्द्राय प्रियं समर्पणीयमिति दर्शयति ।
पदार्थः
हे मनुष्याः ! यूयम् । इन्द्राय=परमेश्वराय । इन्दुम्=स्वकीयं प्रियं वस्तु । आ+सिञ्चत=समर्पयत । येन । सः । सोम्यम् । मधु । पिबाति=पिबेत्=रक्षेत् । यः । महित्वना=स्वमहिम्ना । राधसा=संसाधकेन धनेन सह । स्तुतिपाठकान् । चोदयाते=ऊर्ध्वं गमयति ॥१३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इन्द्र को ही प्रिय वस्तु समर्पणीय है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यों ! आप सब मिलकर (इन्द्राय) इन्द्र के निकट (इन्दुम्) स्वकीय प्रियवस्तु (आ+सिञ्चत) समर्पण करें । जिससे वह इन्द्र (सोम्यम्+मधु) सोमरसयुक्त मधुर पदार्थों को (पिबाति) कृपादृष्टि से देखे और बचावे और (महित्वना) जो अपने सामर्थ्य से (राधसा) और संसाधक सम्पत्तियों से स्तुतिपाठक जनों को (चोदयाते) उन्नति की ओर ले जाता है ॥१३ ॥
भावार्थ
वही हमको उन्नति की ओर भी ले जाता है, अतः प्रेम और श्रद्धा से वही सेव्य है ॥१३ ॥
विषय
उसकी नाना प्रकार से उपासनाएं वा भक्तिप्रदर्शन और स्तुति ।
भावार्थ
जो परमेश्वर ( राधसा ) अपनी आराधना वा वशीकारक ऐश्वर्य से और (महित्वना) महान् सामर्थ्य से ( प्र चोदयाति) समस्त जगत् को और जीव संसार को अच्छी प्रकार, ठीक राह पर प्रेरित करता है और जो ( सोम्यं मधु ) उत्पन्न होने वाले जगत्, अन्न वा जल को जीव के सदृश (पिबाति) पी लेता वा खालेता, अपने भीतर लीन करलेता है, उस (इन्द्राय) महान् ऐश्वर्यवान् प्रभु परमेश्वर के लिये ( इन्दुम् ) इस प्रेमार्द आत्मा को उसकी ओर ( आ सिञ्चत ) प्रवाहित कर, आत्मा को उसी की ओर प्रवृत्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सोमरक्षण व धन प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे जीवो! (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिये (इन्दुम्) = सोम को (आसिञ्चत) = शरीर में ही चारों ओर सिक्त करो। वस्तुतः ये प्रभु ही (सोम्यम्) = सोम सम्बन्धी मधु-इस सारभूत जीवन को मधुर बनानेवाली वस्तु को (पिबाति) = शरीर में ही पीनेवाले व सुरक्षित करनेवाले हैं। प्रभु स्मरण से ही सोम का रक्षण होता है। [२] ये प्रभु ही (महित्वना) = अपनी महिमा से (राधसा) = कार्यसिद्धि के उद्देश्य से सब धनों को (प्रचोदयाते) = हमारे में प्रेरित करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिये हम सोम को शरीर में ही सुरक्षित करें। वस्तुतः प्रभु ही सोम को सुरक्षित करते हैं और हमारे लिये कार्यसाधक धनों को प्राप्त कराते हैं।
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