ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 29
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिः
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
आ ना॒र्यस्य॒ दक्षि॑णा॒ व्य॑श्वाँ एतु सो॒मिन॑: । स्थू॒रं च॒ राध॑: श॒तव॑त्स॒हस्र॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ना॒र्यस्य॑ । दक्षि॑णा । विऽअ॑श्वान् । ए॒तु॒ । सो॒मिनः॑ । स्थू॒रम् । च॒ । राधः॑ । श॒तऽव॑त् । स॒हस्र॑ऽवत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नार्यस्य दक्षिणा व्यश्वाँ एतु सोमिन: । स्थूरं च राध: शतवत्सहस्रवत् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नार्यस्य । दक्षिणा । विऽअश्वान् । एतु । सोमिनः । स्थूरम् । च । राधः । शतऽवत् । सहस्रऽवत् ॥ ८.२४.२९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 29
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
May the gifts of soma celebrants and generous lovers of mankind reach the dynamic sages of mental and moral discipline who may also get gifts of permanent assets in hundreds and thousands.
मराठी (1)
भावार्थ
जे पदार्थविज्ञानतज्ज्ञ आहेत त्यांना साह्य करणे हा सर्वांचा धर्म असला पाहिजे. ज्यामुळे ते सुखी होऊन नाना विद्या प्रकट करून देशाची शोभा वाढवितील. ॥२९॥
संस्कृत (1)
विषयः
प्रार्थनां दर्शयति ।
पदार्थः
नार्य्यस्य=नरहितकारकस्येश्वरस्य । दक्षिणा=दानम् । सोमिनः=सोमादिलतातत्त्वज्ञानम् । व्यश्वान्=जितेन्द्रियान् । एतु=प्राप्नोतु । च=पुनः । शतवत्+सहस्रवत्= नानाविधानन्तवस्तुयुक्तम् । स्थूरम्=स्थूलं सूक्ष्मञ्च । राधः=धनम् । तानेतु ॥२९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
प्रार्थना दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(नार्य्यस्य) नरहितकारक ईश्वर का दान सोमादि लताओं के तत्त्वज्ञों और (व्यश्वान्) जितेन्द्रिय पुरुषों को (एतु) प्राप्त हो (च) और (शतवत्+सहस्रवत्) शतशः और सहस्रशः (स्थूरम्) पश्वादि स्थूल और ज्ञानादि सूक्ष्म (राधः) धन उनको प्राप्त हों ॥२९ ॥
भावार्थ
जो पदार्थतत्त्वविद् हों, उनका साहाय्य करना सबका धर्म होना चाहिये, जिससे वे सुखी रहकर नाना विद्याएँ प्रकाशित कर देश की शोभा बढ़ा सकें ॥२९ ॥
विषय
सत्पात्र में दान का उपदेश ।
भावार्थ
( नार्यस्य ) मनुष्यों में श्रेष्ठ और उनके हितैषी (सोमिनः) ऐश्वर्यवान् पुरुष की ( दक्षिणा ) दान का द्रव्य (वि-अश्वान्) विविध विद्याओं में पारंगत एवं जितेन्द्रिय पुरुषों को (आ एतु ) प्राप्त हो । वा ( सोमिनः ) पुत्र शिष्यादि के गुरुजनों को प्राप्त हो और उसका (स्थूरं ) स्थायी ( शतवत् सहस्रवत् ) सौ, हज़ार संख्या वाला ( राधः ) धन भी ऐसे ही पुरुषों को प्राप्त हो। परमेश्वर नरों, जीवों का स्वामी होने से नर्य वा 'नार्य' है। उसका दान विविध इन्द्रियोपभोगभूमियों में वर्त्तमान कर्मफल वाले जीवों को प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'व्यश्व सोमी' के लिये दान
पदार्थ
[१] (नार्यस्य) = अतिशयेन नरहितकारी पुरुष [नर्यस्य अपत्यम्] की (दक्षिणा) = दान (व्यश्वान्) = विशिष्ट इन्द्रियाश्ववाले (सोमिनः) = सोमरक्षक पुरुषों को (आ एतु) = सर्वथा प्राप्त हो। गत मन्त्र का 'वरु' ही यहाँ नार्य है। यह उन पुरुषों के लिये दान करता है जो उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले व सोमरक्षक [संयमी जीवनवाले] हैं। [२] इन दानों से नार्य का धन घट नहीं जाता। अपितु उसका (राधः) = ऐश्वर्य (स्थूरम्) = [स्थूलं] और अधिक बढ़ा हुआ (शतवत्) = सैंकड़ों की संख्यावाला (च) = व (सहस्त्रवत्) = सहस्रों की संख्यावाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम परोपकार की वृत्तिवाले बनकर उत्तम इन्द्रियोंवाले संयमी पुरुषों के लिये दान को दें। हमारा यह दिया हुआ दान हमारे ऐश्वर्य को सैंकड़ों व हजारों गुणा बढ़ानेवाला होगा।
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