ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 28
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिः
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
यथा॑ वरो सु॒षाम्णे॑ स॒निभ्य॒ आव॑हो र॒यिम् । व्य॑श्वेभ्यः सुभगे वाजिनीवति ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । व॒रो॒ इति॑ । सु॒ऽसाम्णे॑ । स॒निऽभ्यः॑ । आ । अव॑हः । र॒यिम् । विऽअ॑श्वेभ्यः । सु॒ऽभ॒गे॒ । वा॒जि॒नी॒ऽव॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा वरो सुषाम्णे सनिभ्य आवहो रयिम् । व्यश्वेभ्यः सुभगे वाजिनीवति ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । वरो इति । सुऽसाम्णे । सनिऽभ्यः । आ । अवहः । रयिम् । विऽअश्वेभ्यः । सुऽभगे । वाजिनीऽवति ॥ ८.२४.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 28
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as the lord supreme, choice of the wise for worship and service, brings wealth and honour to the Sama celebrants and supplicants, so may you, O lady of good fortune possessed of food, energy prosperity of life, and divine intelligence, bring wealth of honour and knowledge to the sages of mental and moral discipline.
मराठी (1)
भावार्थ
जसा परमात्मा या जगावर कृपा करतो तसे सर्वांनी परस्पर वागावे व आपापल्या इंद्रियांनाही आपापल्या कह्यात ठेवून त्याच्याकडे वळवावे. तेव्हाच मनुष्य ऋषी व महाकवी इत्यादी होतो. ॥२८॥
संस्कृत (1)
विषयः
इन्द्रियाणि जेतव्यानीति दर्शयति ।
पदार्थः
हे वरो=वरणीय परमदेव ! यथा त्वम् । सुसाम्ने=शोभनगानवते । सनिभ्यः=सुपात्रेभ्यश्च । रयिम्= सम्पत्तिम् । आवहः=आवहसि । तथा । हे सुभगे=शोभनधने ! हे वाजिनीवति=बुद्धे ! व्यश्वेभ्यः=जितेन्द्रियेभ्य ऋषिभ्यः । त्वमपि । रयिम् । देहि ॥२८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इन्द्रिय जेतव्य हैं, यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(वरो) हे वरणीय परमदेव ! (यथा) जैसे तू (सुसाम्ने) सुन्दर गानेवाले (सनिभ्यः) और याचक सुपात्रों की ओर (रयिम्+आवहसि) धन ले जाता है, (सुभगे) हे सुभगे ! (वाजिनीवति) हे बुद्धे ! इन्द्र के समान ही तू भी (व्यश्वेभ्यः) जितेन्द्रिय ऋषियों को धन दे ॥२८ ॥
भावार्थ
जैसे परमात्मा इस संसार पर कृपा रखता है, तद्वत् सब ही परस्पर रक्खें और अपनी-२ इन्द्रियों को भी अपने-२ वश में कर उसकी ओर लगावें, तब ही मनुष्य ऋषि और महाकवि आदि होता है ॥२८ ॥
विषय
सत्पात्रों में दान देने वाले को प्रभु भी देता है ।
भावार्थ
हे (वरो ) श्रेष्ठ पुरुष ! ( यथा ) जिस प्रकार तू (सुषाम्ने) उत्तम साम द्वारा स्तुति करने वाले, उत्तम निष्पक्षपात और ( सनिभ्यः ) उत्तम दान पात्रों को ( रयिम् आवहः ) ऐश्वर्य प्राप्त कराता है उसी प्रकार हे ( सुभगे ) उत्तम ऐश्वर्यशालिन् ! हे ( वाजिनी-वति ) ऐश्वर्य सम्पदा की स्वामिनी ! वधू ! तू भी ( व्यश्वेभ्यः ) विजितेन्द्रिय पुरुषों को ( रयिम् ) अन्नैश्वर्य ( आ वहः ) प्राप्त करा। वर वधू दोनों को चाहिये कि वे सत्पात्रों में दान दिया करें। इसी प्रकार परमेश्वर ‘सुसामा’ सम्यग् दृष्टि और समदर्शी तथा भक्तजनों को ऐश्वर्य देता है। और सुभगा प्रकृति भी अश्व अर्थात् विविध इन्द्रियों से सम्पन्न जीवों को अपनी विभूति देती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
पति-पत्नी की दानशीलता
पदार्थ
[१] यहाँ मन्त्र में पति-पत्नी को 'वरु व सुभगा' कहा गया है। पति वरु है, श्रेष्ठ मार्ग का वरण करनेवाला है, प्रकृति की अपेक्षा प्रभु के मार्ग पर चलनेवाला है। पत्नी घर को सौभाग्य-सम्पन्न बनानेवाली है। इनके लिये कहते हैं कि हे (वरो) = श्रेष्ठ मार्ग का वरण करनेवाले गृह स्वामिन्! तू (यथा) = जैसे (सुषाम्णे) = उत्तम शान्त स्वभाववाले उपासकों के लिये (सनिभ्यः) = संविभावा के लिये (रयिं आवहः) = धन को प्राप्त कराता है। इसी प्रकार हे वाजिनीवति उत्तम अन्नोंवाली (सुभगे) = घर को सौभाग्य सम्पन्न बनानेवाली पत्नि ! तू भी (व्यश्वेभ्यः) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले पुरुषों के लिये धन को देनेवाली होती है। [२] वस्तुतः घर में अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों को करने के द्वारा घर को उत्तम बनाते हुए पति-पत्नी दोनों का ही कर्त्तव्य है कि उत्तम पुरुषों के लिये उत्तम कार्यों के लिये सदा दान करते ही रहें।
भावार्थ
भावार्थ-पति उत्तम मार्ग का वरण करता हुआ घर को ऐश्वर्य सम्पन्न बनाये तथा पत्नी घर में अन्न की कमी न होने देती हुई घर को सौभाग्य-सम्पन्न रखे। दोनों सदा उत्तम पुरुषों को उत्तम कार्यों के लिये धन देते रहें।
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