ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 22
स्तु॒हीन्द्रं॑ व्यश्व॒वदनू॑र्मिं वा॒जिनं॒ यम॑म् । अ॒र्यो गयं॒ मंह॑मानं॒ वि दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒हि । इन्द्र॑म् । व्य॒श्व॒ऽवत् । अनू॑र्मिम् । वा॒जिन॑म् । यम॑म् । अ॒र्यः । गय॑म् । मंह॑मानम् । वि । दा॒शुषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुहीन्द्रं व्यश्ववदनूर्मिं वाजिनं यमम् । अर्यो गयं मंहमानं वि दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठस्तुहि । इन्द्रम् । व्यश्वऽवत् । अनूर्मिम् । वाजिनम् । यमम् । अर्यः । गयम् । मंहमानम् । वि । दाशुषे ॥ ८.२४.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 22
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Like the sage of perfect mental and moral discipline, worship Indra, constant lord of eternity without fluctuation, omnipresent power over universal energy, controller and guide of the evolution of the universe, omnificent lord giver of a prosperous household to the generous devotees of yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
जो आम्हा सर्वांना भोग्य पदार्थ देतो, त्या परमेश्वराची स्तुती करा. ॥२२॥
संस्कृत (1)
विषयः
स एव स्तुत्य इति दर्शयति ।
पदार्थः
हे विद्वन् ! व्यश्ववत्=अश्वः=इन्द्रियगणः । विगतोऽश्व इन्द्रियगण इन्द्रियप्रभावो यस्मात् स व्यश्वः=जितेन्द्रिय ऋषिः । तद्वत् । अनूर्मिम्=एकरसम्=तरङ्गरहितम् । वाजिनम्= विज्ञानमयम् । यमम्=नियन्तारम् । इन्द्रं स्तुहि । योऽर्य्यः=सर्वस्वामीन्द्रः । दाशुषे=भक्तजनाय । मंहमानम्= पूज्यमानम् । गयम्=गृहं धनं च । वितरति ॥२२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
वही स्तवनीय है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(व्यश्ववत्) हे विद्वन् ! जितेन्द्रिय ऋषिवत् (इन्द्रम्+स्तुहि) इन्द्र की स्तुति करो, जो (अनूर्मिम्) एकरस (वाजिनम्) विज्ञानमय (यमम्) जगन्नियन्ता है, (अर्य्यः) जो सर्वस्वामी भगवान् (दाशुषे) भक्तजन को (मंहमानम्+गयम्) प्रशस्त गृह और धन (वि) देता है ॥२२ ॥
भावार्थ
जो हमको सकल भोग पदार्थ दे रहा है, उसी की स्तुति करो ॥२२ ॥
विषय
उसकी नाना प्रकार से उपासनाएं वा भक्तिप्रदर्शन और स्तुति ।
भावार्थ
उस ( अनूर्मिम् ) तरङ्ग या धारा से रहित प्रशान्त और अगाध, ( वाजिनम् ) ज्ञान और ऐश्वर्य के स्वामी, (यमम् ) सर्वनियन्ता, ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान्, प्रभु को ( वि-अश्ववत् ) विविध अश्वों, इन्द्रियों से युक्त आत्मा के समान ही ( स्तुहि ) स्तुति कर और ( दाशुषे ) भक्त को ( गयं महमानं ) प्राण और देह, गृहादि देने वाले उस स्वामी की स्तुति कर जो ( अर्यः ) स्वामी ( वि ) विविध प्रकार से ऐश्वर्य प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'अनूर्मि वाजी- यम' प्रभु का स्तवन
पदार्थ
[१] (व्यश्ववत्) = व्यश्व की तरह उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले पुरुष की तरह तू (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का स्तुहि स्तवन कर, जो (अनूर्मिम्) = [ऊर्मि] शोक-मोह, जरा-मृत्यु व क्षुत् पिपासा रूप ऊर्मियों से रहित हैं 'शोकमोहौ जरामृत्यू क्षुत् पिपासे षडूर्मयः'। उस प्रभु में शोक- मोह आदि किसी भी दुर्बलता का निवास नहीं। (वाजिनम्) = जो प्रभु शक्तिशाली हैं और (यमम्) = सर्वनियन्ता हैं। इस प्रभु का स्तवन करता हुआ स्तोता भी दुर्बलताओं से ऊपर उठने का प्रयत्न करता है, शक्तिशाली बनता है और अपना संयम करनेवाला होता है। [२] उस प्रभु का हम स्तवन करें जो (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिये, प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले पुरुष के लिये (अर्य:) = काम-क्रोध-लोभरूप शत्रुओं के (गयम्) = गृह को (विमंहमानम्) = विशेषरूप से प्राप्त कराता है। काम ने आज तक इन्द्रियों में अपना निवास बनाया हुआ था, क्रोध ने मन को अपनाया हुआ था और लोभ ने बुद्धि पर अधिकार किया हुआ था। प्रभु इन सब को दूर करके यह शरीर गृह दाश्वान् को प्राप्त कराते हैं। उपासक के जीवन में काम-क्रोध-लोभ का निवास नहीं रहता ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-स्तवन से हम शोक-मोह आदि से ऊपर उठते हैं, शक्तिशाली व संयमी बनते हैं। हमारा शरीर काम-क्रोध-लोभ का घर नहीं बना रहता । =
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