ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
शव॑सा॒ ह्यसि॑ श्रु॒तो वृ॑त्र॒हत्ये॑न वृत्र॒हा । म॒घैर्म॒घोनो॒ अति॑ शूर दाशसि ॥
स्वर सहित पद पाठशव॑सा । हि । असि॑ । श्रु॒तः । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑न । वृ॒त्र॒ऽहा । म॒घैः । म॒घोनः॑ । अति॑ । शू॒र॒ । दा॒श॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शवसा ह्यसि श्रुतो वृत्रहत्येन वृत्रहा । मघैर्मघोनो अति शूर दाशसि ॥
स्वर रहित पद पाठशवसा । हि । असि । श्रुतः । वृत्रऽहत्येन । वृत्रऽहा । मघैः । मघोनः । अति । शूर । दाशसि ॥ ८.२४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O heroic leader and ruler, by virtue of your strength and will you are renowned as the destroyer of evil for having eliminated evil, want and suffering. You are famous as the lord magnanimous of glory for your wealth and generosity because your generosity exceeds the expectations of the richest generous people.
मराठी (1)
भावार्थ
यात दोन गोष्टी दर्शविलेल्या आहेत. एम परमात्मा सर्व विघ्नविनाशक आहे व दुसरी गोष्ट तो अत्यंत दानी आहे. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
इन्द्रं स्तौति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वम् । शवसा=महत्या शक्त्या हि । श्रुतोऽसि=प्रसिद्धोऽसि त्वम् । वृत्रहत्येन=वृत्राणां विघ्नानां विनाशेन हेतुना । वृत्रहेति प्रसिद्धोऽसि । हे शूर ! मघोनः=धनवतः पुरुषान् । मघैर्धनैरतिक्रम्य । त्वं स्तोतृभ्यः । दाशसि=प्रयच्छसि ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इससे इन्द्र की स्तुति करते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (हि) निश्चय तू (शवसा) अपनी अचिन्त्य शक्ति से (श्रुतोऽसि) प्रसिद्ध है (वृत्रहत्येन+वृत्रहा) वृत्र जो विघ्न उनके नाश करने के कारण तू वृत्रहा इस नाम से प्रसिद्ध होता है, (शूर) हे महावीर ! (मघोनः) जितने धनिक पुरुष जगत् में हैं, उनसे (मघैः) धनों के द्वारा (अति) तू अतिश्रेष्ठ है और उनसे कहीं अधिक (दाशसि) अपने भक्तों को देता है ॥२ ॥
भावार्थ
इससे दो बातें दिखलाई गई हैं, एक परमात्मा सर्वविघ्नविनाशक है और दूसरा वह परम दानी है ॥२ ॥
विषय
दुष्टहन्ता प्रभु ।
भावार्थ
हे ( शूर ) दुष्टों के नाशक ! प्रभो ! तू (वृत्य हत्येन) प्रकृति के 'सरिर'मय स्वरूप में आघात या स्पन्द उत्पन्न करने वाले मेघ के आघातकारी विद्युत् के समान ( शवसा ) बल से ही तू ( वृत्र-हा ) 'वृत्रहा' नाम से ( श्रुतः असि ) प्रसिद्ध है । हे प्रभो ! अथवा, तू (वृत्र-हत्येन शवसा) दुष्टों के नाशक बल से ‘वृत्र-हा' दुष्टहन्ता प्रसिद्ध है । तू (मधैः ) उत्तम २ ऐश्वर्यों से ( मघोनः ) बड़े २ धनवानों को भी पार कर। उनसे भी अधिक ( अति दाशसि ) बहुत बहुत दान देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
वासना - विनाश व ऐश्वर्यदान
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (शवसा) = बल के द्वारा (हि) = निश्चयपूर्वक (श्रुतः असि) = प्रसिद्ध हैं। (वृत्रहत्येन) = वासना के विनाश के द्वारा आप 'वृत्र - हा '-' वृत्रहा' नामवाले हैं। आप ही ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करते हैं। [२] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! आप (मघैः) = ऐश्वर्यों से (मधोन:) = सब ऐश्वर्यशालियों को (अति) = लांघ करके (दाशसि) = देनेवाले हैं। किसी भी अन्य धनी ने क्या देना? देनेवाले आप ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु बल के द्वारा वासनारूप शत्रु का संहार करनेवाले हैं। इस प्रकार वे प्रभु हमारी अध्यात्म उन्नति का कारण बनते हैं। वे प्रभु ही सब ऐश्वर्यों को देकर हमारी ऐहिक उन्नति के साधक होते हैं।
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