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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 15
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    न॒ह्य१॒॑ङ्ग पु॒रा च॒न ज॒ज्ञे वी॒रत॑र॒स्त्वत् । नकी॑ रा॒या नैवथा॒ न भ॒न्दना॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । अ॒ङ्ग । पु॒रा । च॒न । ज॒ज्ञे । वी॒रऽत॑रः । त्वत् । नकिः॑ । रा॒या । न । ए॒वऽथा॑ । न । भ॒न्दना॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नह्य१ङ्ग पुरा चन जज्ञे वीरतरस्त्वत् । नकी राया नैवथा न भन्दना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । अङ्ग । पुरा । चन । जज्ञे । वीरऽतरः । त्वत् । नकिः । राया । न । एवऽथा । न । भन्दना ॥ ८.२४.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pray listen, Indra, dearest lord of life, true it is that no one born ever before or after was greater or mightier than you, none by wealth and power, none by competence and advancement, none by songs of prayer and adoration, none like you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर सर्वगुणसंपन्न असल्यामुळे परमपूज्य आहे. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तस्यैव महत्त्वं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे ईश ! त्वत्=त्वत्तः । पुरा=पूर्वम् । वीरतरः कश्चित् । नहि जज्ञे । अङ्गेति प्रसिद्धम् । राया=सम्पत्त्या सह । त्वदधिकः । नकिः=न कोऽपि वर्तते । एवथा=अवथा=रक्षणेन कारणेन । न त्वदधिकः । भन्दना=स्तुत्या च । न त्वदधिकः । त्वमेव वीरो धनवान् रक्षकः स्तुत्यश्चेति दर्शयति ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उसी का महत्त्व दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे ईश ! (त्वत्) तुझसे बढ़कर (पुरा) पूर्वकाल में या वर्तमानकाल में (वीरतरः+न+च+जज्ञे) कोई वीर पुरुष न उत्पन्न हुआ, न होगा (अङ्ग) यह प्रसिद्ध है, (राया) सम्पत्ति में भी (नकिः) तुमसे बढ़कर कोई नहीं, (एवथा+न) रक्षण के कारण ही तुमसे अधिक कोई नहीं (भन्दना+न) और स्तुति के कारण भी तुमसे अधिक नहीं, तू ही वीर धनवान् रक्षक और स्तुत्य है ॥१५ ॥

    भावार्थ

    वही सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण परमपूज्य है ॥१५ ॥

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    विषय

    उसकी नाना प्रकार से उपासनाएं वा भक्तिप्रदर्शन और स्तुति ।

    भावार्थ

    ( अंग ) हे प्रभो ! ( पुरा चन ) पहले भी, और अब भी ( त्वत् ) तुझ से अधिक ( वीरतरः ) बड़ा वीर, जगत् संचालक, और विविध विद्याओं का उपदेष्टा, (नहि जज्ञे ) नहीं पैदा हुआ, और ( नकि: राया ) न कोई ऐश्वर्य से ( न एवथा ) न ज्ञान, और रक्षण सामर्थ्य से और ( न भन्दना ) न जगत् के कल्याण और सुखदायक सामर्थ्य से तुझ से कोई बड़ा है, न होगा। इति सप्तदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वीरता - ऐश्वर्य - गतिशीलता व कल्याण

    पदार्थ

    [१] हे (अंग) = गतिशील प्रभो ! (पुराचन) = आज तक पहले कभी भी (त्वत्) = आप से (वीरतर:) = अधिक वीर (न हि) = नहीं ही (जज्ञे) = हुआ। प्रभु सर्वोपरि वीर हैं। प्रभु ही हमारे सब शत्रुओं को कम्पित करनेवाले हैं। [२] हे प्रभो ! (नकिः राया) = तो ही धन के दृष्टिकोण से आप से अधिक कोई हुआ है। (न एवथा) = न गतिशीलता के दृष्टिकोण से आप से कोई अधिक है और (न) = न ही (भन्दना) = कल्याण व सुख के दृष्टिकोण से कोई आप से अधिक हुआ है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही 'वीरता, ऐश्वर्य, गतिशीलता व कल्याण' के स्रोत हैं। इन दृष्टिकोणों से कोई भी प्रभु से अधिक नहीं है।

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