ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 26
तमु॑ त्वा नू॒नमी॑महे॒ नव्यं॑ दंसिष्ठ॒ सन्य॑से । स त्वं नो॒ विश्वा॑ अ॒भिमा॑तीः स॒क्षणि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । नू॒नम् । ई॒म॒हे॒ । नव्य॑म् । दं॒सि॒ष्ठ॒ । सन्य॑से । सः । त्वम् । नः॒ । विश्वाः॑ । अ॒भिऽमा॑तीः । स॒क्षणिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु त्वा नूनमीमहे नव्यं दंसिष्ठ सन्यसे । स त्वं नो विश्वा अभिमातीः सक्षणि: ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ऊँ इति । त्वा । नूनम् । ईमहे । नव्यम् । दंसिष्ठ । सन्यसे । सः । त्वम् । नः । विश्वाः । अभिऽमातीः । सक्षणिः ॥ ८.२४.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 26
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of highest beauty and sublimity, for our acquisitions as well as for our freedom from acquisition we worship you only, the same lord of protection and defence, ever new though constant and eternal. You as the same lord are our friend and protector, and the destroyer of all our enemies of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
‘सन्यसे’ याचा अर्थ असा की, आम्ही जे काही प्राप्त करू त्यापैकी आपल्यासाठी योग्य ते ठेवून इतर सर्व दान करावे व काम, क्रोध इत्यादी जे महाशत्रू आहेत त्यांना जिंकण्यासाठी सदैव प्रयत्न करत राहावे. ॥२६॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
हे दंसिष्ठ=अद्भुतकर्मकारिन् ! संन्यसे=संन्यासार्थम्=त्यागाय । असु क्षेपणे । भावे क्विप् । नव्यम्=स्तुत्यम् । तमु+त्वा=तमेव त्वाम् । नूनमीमहे=याचामहे । स त्वम् । नोऽस्माकम् । विश्वाः=सर्वाः । अभिमातीः=विघ्नसेनाः । सक्षणिः= अभिभवशीलो भव । तासां विनाशको भवेत्यर्थः ॥२६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(दंसिष्ठ) हे अद्भुत कर्मकारी ! हे परमदर्शनीय ! (संन्यसे) संन्यास अर्थात् त्याग के लिये भी (नव्यम्) स्तुत्य (तम्+उ+त्वा) उस तुझसे ही (नूनम्) निश्चय (ईमहे) याचना करते हैं । (सः+त्वम्) वह तू (नः) हमारी (विश्वाः) सब (अभिमातीः) विघ्न सेनाओं का (सक्षणिः) विनाशक हो ॥२६ ॥
भावार्थ
“संन्यसे” इसका तात्पर्य यह है कि हम जो कुछ प्राप्त करें, उसमें से अपने योग्य रख करके अन्य सब दान कर दिया जाए और काम क्रोधादि जो महाशत्रु हैं, उनको भी जीतने के लिये सदा प्रयत्न करता रहे ॥२६ ॥
विषय
दुष्टों के नाश की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( दंसिष्ठ ) दुःखों के नाशक ! ( नूनं ) निश्चय ( त्वा तम् उ ) उस पूज्य तुझ ( नव्यं ) स्तुति योग्य को ही ( संन्यसे ) सर्व वासना और बन्धनों के त्यागने के लिये, ( ईमहे ) हम याचना करते हैं । ( सः स्वं ) वह तू (सक्षणिः) सब दुःखों का नाशक, सबका पराजयकारी होकर ( विश्वाः अभिमातीः ) समस्त अभिमानी जीवों को पराजित करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अभिमान विजय
पदार्थ
[१] हे (नव्य) = स्तुत्य (दंसिष्ठ) = शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले प्रभो ! (तं त्वा उ नूनम्) = उन आपको ही निश्चय से संन्यसे सब कामनाओं के त्याग के लिये (ईमहे) = याचना करते हैं । [२] (सः) = वे (त्वम्) = आप ही (नः) = हमारे (विश्वाः) = सब (अभिमाती:) = शत्रुओं को, अभिमान आदि आसुरभावों को (सक्षणि:) = पराभूत करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उपासक की कामनाओं व अभिमान आदि आसुर भावों का विनाश करते हैं।
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