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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    अध्व॑र्यो द्रा॒वया॒ त्वं सोम॒मिन्द्र॑: पिपासति । उप॑ नू॒नं यु॑युजे॒ वृष॑णा॒ हरी॒ आ च॑ जगाम वृत्र॒हा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध्व॑र्यो॒ इति॑ । द्रा॒वय॑ । त्वम् । सोम॑म् । इन्द्रः॑ । पि॒पा॒स॒ति॒ । उप॑ । नू॒नम् । यु॒यु॒जे॒ । वृष॑णा । हरी॒ इति॑ । आ । च॒ । ज॒गा॒म॒ । वृ॒त्र॒ऽहा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध्वर्यो द्रावया त्वं सोममिन्द्र: पिपासति । उप नूनं युयुजे वृषणा हरी आ च जगाम वृत्रहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध्वर्यो इति । द्रावय । त्वम् । सोमम् । इन्द्रः । पिपासति । उप । नूनम् । युयुजे । वृषणा । हरी इति । आ । च । जगाम । वृत्रऽहा ॥ ८.४.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 11
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अध्वर्यो) हे यज्ञपते ! (त्वम्, द्रावय) इन्द्रभागं साधयत्वम् (इन्द्रः) कर्मयोगी सः (सोमं) सोमरसं (पिपासति) सर्वदा पातुमिच्छति (नूनं) नूनं सम्भावयामो यत् (वृषणा) पुष्टौ (हरी) अश्वौ (उपयुयुजे) रथेन योजितवान् (वृत्रहा) शत्रूणां हन्ता सः (आजगाम च) आगतवानेव ॥११॥

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    विषयः

    अपाप ईशं प्राप्नोतीति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे अध्वर्यो=हे कर्मकाण्डनिपुण ! त्वम् । द्रावय=आत्मनः समीपात् पापानि दूरीकुरु । यतः । इन्द्रः=सर्वद्रष्टा प्रभुः । सोमम्=पवित्रमेव वस्तु । पिपासति=पातुं द्रष्टुमिच्छति । नहीशः पापिनं दिदृक्षते । अयमिन्द्रः । नूनम्=निश्चितमेवात्र न सन्देहः । वृषणा=वृषणौ=परस्परं वर्षाकारिणौ । हरी=परस्परहरणशीलौ=स्थावरजङ्गमात्मकौ संसारौ । युयुजे=स्वस्वकार्ये नियोजितवानस्ति । एवं सर्वपदार्थान् योजयित्वा । स्वयं वृत्रहा=सर्वविघ्नप्रहर्ता इन्द्रः । आजगाम च=तस्मिन् तस्मिन् वस्तुनि आगतवान्=व्याप्तवान् वर्तते । अतो हे अध्वर्यो ! पापमपाकुरु ॥११ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अध्वर्यो) हे यज्ञपते ! (त्वम्, द्रावय) आप इन्द्र भाग को सिद्ध करें (इन्द्र) कर्मयोगी (सोमं, पिपासति) वह सोमरस सर्वदा पीना चाहता है (नूनम्) सम्भावना करते हैं कि (वृषणा) बलवान् (हरी) अश्वों को (उपयुयुजे) रथ में नियुक्त किया है (वृत्रहा) शत्रुओं का नाशक वह (आजगाम, च) आ ही गया है ॥११॥

    भावार्थ

    हे यज्ञपति=यजमान ! पूज्य कर्मयोगी सोमरस पान करने के लिये शीघ्र ही अश्वों के रथ में सवार होकर यज्ञस्थान को आ रहे हैं, सो आने से प्रथम ही सोमरस सिद्ध करके तैयार रखना चाहिये ॥११॥

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    विषय

    पापरहित उपासक ईश्वर को पाता है, यह इससे दिखलाया जाता है ।

    पदार्थ

    (अध्वर्यो) हे कर्मकाण्डनिपुण जन ! (त्वम्) आप (द्रावय) अपने समीप से पाप को दूर करो, क्योंकि (इन्द्रः) सर्वद्रष्टा महेश (सोमम्) शुद्ध पदार्थ को ही (पिपासति) उत्कट इच्छा से देखना चाहता है, क्योंकि ईश्वर पापी को देखना नहीं चाहता । जो इन्द्र (वृष्णा) परस्पर सुखों की वर्षाकारी और (हरी) अपने आकर्षण द्वारा हरणशील स्थावर जंगमात्मक द्विविध संसारों को (नूनम्) नियतरूप से (उप+युयुजे) स्व-स्व कार्य्य में अच्छे प्रकार लगाता है । जो इन्द्र (वृत्रहा) सर्वविघ्नहर्त्ता है और (आ+जगाम) इनमें आगत=व्यापक है, उस इन्द्र को यदि प्रसन्न करना चाहते हो तो प्रथम पापों को दूर करो ॥११ ॥

    भावार्थ

    सर्वगत सर्वद्रष्टा ईश्वर को जान पाप से निवृत्त हो और इस जगत् का परस्परोपकारित्व को देख उपकार में प्रवृत्त रहो ॥११ ॥

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    विषय

    राजा प्रजा का गृहस्थवत् व्यवहार । राजा के राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अध्वर्यो ) प्रजा के 'ध्वर' अर्थात् हिंसन, पीड़नादि को न चाहने वाले सेनापते ! ( त्वं ) तू ( द्रवय ) शत्रु को दूर भगा वा प्रजापालनार्थ नहरादि को बहा। क्योंकि ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( सोमं ) राष्ट्र को ( पिपासति ) पालन करना चाहता है। वह ( नूनं ) निश्चय से ( वृषणा हरी ) बलवान् अश्वों को ( उप युयुजे ) रथ में जोड़ता है और वह ( वृषणा हरी ) बलवान्, वीर्यवान् स्त्री पुरुषों का ( उप युयुजे ) परस्पर सम्बन्ध करे और उनका राष्ट्र के कार्य में उपयोग करे और इस प्रकार वह ( बृत्रहा ) बढ़ते शत्रु तथा विघ्नों को नाश करता हुआ (आजगाम च) आवे और आगे बढ़े।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु के समीप पहुँचना

    पदार्थ

    [१] हे (अध्वर्यो) = यज्ञशील पुरुष ! (त्वं द्रावया) = तू वासनाओं को दूर भगा दे। (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (सोमं पिपासति) = सोम के पान की कामना करता है। यज्ञशीलता वासनाओं से बचायेगी। वासनाओं का अभाव इसे सोमरक्षण के योग्य करेगा। [२] यह सोमपान करनेवाला इन्द्र (नूनम्) = निश्चय से (वृषणा) = शक्तिशाली (हरी) = इन्द्रियाश्वों को (उपयुयुजे =) शरीर-रथ में जोतता है। (च) = और सदा उत्तम कर्मों में लगा हुआ (वृत्रहा) = वासना का विनाश करनेवाला यह (इन्द्र) = उस इन्द्रियाश्वों से जुते शरीर-रथ के द्वारा (आजगाम) = प्रभु के समीप आता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- वासनाओं को दूर करके हम सोम का रक्षण करें। शक्तिशाली इन्द्रियाश्वों को शरीर - रथ में जोतकर, वासनारूप विघ्नों को नष्ट करते हुए, प्रभु तक पहुँचने के लिये यत्नशील हों ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Hasten, O master of ceremonies, let the soma be prepared and flow forth for service. Indra is thirsty, he has harnessed his mighty chariot forces, indeed the thunderous breaker of clouds has arrived.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे यज्ञपती = यजमान पूज्य कर्मयोगी सोमरसाचे पान करून तात्काळ अश्वरथावर स्वार होऊन यज्ञस्थानी येत आहेत. त्यासाठी त्यांच्या येण्याअगोदरच सोमरस सिद्ध करून ठेवा. ॥११॥

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