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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स॒हस्रे॑णेव सचते यवी॒युधा॒ यस्त॒ आन॒ळुप॑स्तुतिम् । पु॒त्रं प्रा॑व॒र्गं कृ॑णुते सु॒वीर्ये॑ दा॒श्नोति॒ नम॑उक्तिभिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्रे॑णऽइव । स॒च॒ते॒ । य॒वि॒ऽयुधा॑ । यः । ते॒ । आन॑ट् । उप॑ऽस्तुतिम् । पु॒त्रम् । प्रा॒व॒र्गम् । कृ॒णु॒ते॒ । सु॒ऽवीर्ये॑ । दा॒श्नोति॑ । नम॑ऽउक्तिऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रेणेव सचते यवीयुधा यस्त आनळुपस्तुतिम् । पुत्रं प्रावर्गं कृणुते सुवीर्ये दाश्नोति नमउक्तिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रेणऽइव । सचते । यविऽयुधा । यः । ते । आनट् । उपऽस्तुतिम् । पुत्रम् । प्रावर्गम् । कृणुते । सुऽवीर्ये । दाश्नोति । नमऽउक्तिऽभिः ॥ ८.४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (यवियुधा) विद्युदिव योद्धा सन् स पुरुषः (सहस्रेणेव) सहस्रप्रकारकेण बलेन (सचते) संगतो भवति (यः) यः पुरुषः (ते) तव (उपस्तुतिं) उपस्तोत्रं (आनट्) प्राप्नोति, यश्च (नमउक्तिभिः) नमोवचनैः (दाश्नोति) भवद्भागं ददाति सः (सुवीर्ये) शोभनपराक्रमसहिते भवति पालके (पुत्रं) स्वसन्तानं (प्रावर्गं) प्रकर्षेण शत्रूणां वर्जयितारं (कृणुते) करोति ॥६॥

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    विषयः

    ईशोपासकः किं किं लभत इत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! यो विद्वान् । ते=तव । उपस्तुतिम्=साहाय्यम् । आनट्=व्याप्नोति लभते । सः । सहस्रेण इव=अनन्तेन । सहस्रशब्दोऽनन्तवाची । यवीयुधा=युद्धबलेन । सचते= समवेतः संमिलितो भवति । षच समवाये । यश्च पुरुषः । नमउक्तिभिः=नमस्कारवचनैः सत्कारपूर्वकम् । दाश्नोति= दरिद्रेभ्यो ददाति । स खलु । प्रावर्गम्=प्रकर्षेण शत्रूणां प्रवर्जयितारं निरासयितारम् । सुवीर्य्ये=सुवीर्य्यं शोभनवीर्य्योपेतम् । द्वितीयार्थे सप्तमी । पुत्रम् । कृणुते=जनयति । यद्वा । सुवीर्य्ये शोभनवीर्य्ययुक्ते संग्रामे पुत्रं कृणुते ॥६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (यवियुधा) वह पुरुष विद्युत् के समान युद्ध करनेवाला होकर (सहस्रेणेव) सहस्रों बलों से (सचते) संगत होता है, (यः) जो (ते) आपकी (उपस्तुतिं) अल्प स्तुति को भी (आनट्) करता है और जो (नमउक्तिभिः) नम्र वचनों से (दाश्नोति) आपका भाग देता है वह (सुवीर्ये) सुन्दर पराक्रमवाले आपकी अध्यक्षता में (पुत्रं) अपनी सन्तान को (प्रावर्गं) अतिशय अनिवार्य (कृणुते) बनाता है ॥६॥

    भावार्थ

    हे युद्धविद्याविशारद कर्मयोगिन् ! आपकी स्तुति द्वारा आपसे शिक्षा प्राप्त किया हुआ पुरुष अति तीव्र युद्ध करनेवाला तथा सहस्रों योद्धाओं से युक्त होता है और जो नम्रतापूर्वक आपका सत्कार करता है, वह स्वयं युद्धविशारद होता और कर्मयोगी की अध्यक्षता में रहने के कारण उसकी सन्तान भी संग्राम में कुशल होती है अर्थात् उसको कोई युद्ध में निवारण=हटा नहीं सकता ॥६॥

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    विषय

    ईश्वरोपासक क्या-२ पाता है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (यः) जो विद्वान् (ते) तेरी (उपस्तुतिम्) साहाय्य (आनट्) प्राप्त करता है, वह (सहस्रेण+इव) मानो सहस्रों प्रकार के (यवीयुधा) युद्धबल से (सचते) सम्मिलित होता है और जो (नमउक्तिभिः) नमस्कार वचनों से=सत्कारपूर्वक (दाश्नोति) दरिद्र पुरुषों को दान देता है, वह (प्रावर्गम्) शत्रुओं को हटानेवाले (सुवीर्य्ये) शोभनवीर्य्ययुक्त पुत्र को (कृणुते) उत्पन्न करता है । अथवा (सुवीर्य्ये) महासंग्राम के लिये शत्रुविजेता अपत्य पाता है ॥६ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! ईश्वर की सहायता वे ही प्राप्त कर सकते हैं, जो उसकी आज्ञा में चलते हैं । उसी की कृपा वास्तव में महाबल है । जो ईश्वर की कृपा का पात्र है, उसको जगत् में सम्राट् भी गिरा नहीं सकता, उसके उपासक के पुत्रादि भी महाबलिष्ठ और विजेता होते हैं । अतः उसी की कृपा के पात्र बनो, शुभकर्म करके उसके आशीर्वाद के भाजन होओ ॥६ ॥

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    विषय

    आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! स्वामिन् ! ( यः ) जो ( ते ) तेरी ( उप-स्तुतिम् ) स्तुति, गुणानुवाद को ( आनड् ) प्राप्त करता है, वह ( सहस्त्रेण इव ) अनेक, बलशाली ( यवीयुधा ) शत्रुनाशक प्रहारक बल से ( सचते ) सम्पन्न होता है, वह ( सु-वीर्ये ) उत्तम वीर्य बल के आश्रय पर ( पुत्रं ) अपने पुत्र, प्रजा को ( प्रावर्गं ) शत्रु को निवारण करने में समर्थ ( कृणुत ) बनाता है, और ( नमः-उक्तिभिः ) विनय युक्त वचनों से ( दाश्नोति ) दान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रावर्ग पुत्र

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (यः) = जो (ते) = आपकी (स्तुतिं आनट्) = स्तुति को व्यापता है, अर्थात् सदा आपका स्तवन करता हुआ कार्यों को करता है वह (सहस्रेण इव) = हजारों के समान (यवीयुधा) = शत्रु-नाशक बल से सचते संयुक्त होता है। स्तोता के अन्दर हजारों पुरुषों का बल आ जाता है और यह शत्रु नाश करने में समर्थ होता है। [२] (नम उक्तिभिः) = नमन के वचनों से, प्रभु के प्रति इन स्तुति-वचनों से (सुवीर्ये) = उत्तम वीर्य के होने पर (पुत्रम्) = सन्तान को (प्रावर्गम्) = प्रकर्षेण शत्रुओं का वर्जन करनेवाला (कृणुते) = करता है। अर्थात् इस उपासक की सन्तान नीरोग व निर्मल होती है । और यह इन स्तुति वचनों से सब शत्रुओं को (दानोति) = समाप्त करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु-स्तवन से हजारों पुरुषों के बल के समान बल प्राप्त होता है। सन्तान नीरोग व निर्मल मनवाली होती है। हम भी सब शत्रुओं का शातन [संहार] कर पाते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The youthful warrior who pays you homage and does honour and reverence to you, and the one who gives in charity, in service to you, with holy chants and humility receives the strength of a thousand heroes and, under the guidance and care of the lord, renders his progeny unconquerable and exclusive in merit and prowess.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे युद्धविशारद कर्मयोगी! तुमच्याकडून स्तुत्य व शिक्षित झालेला पुरुष अति तीव्र युद्ध करणारा व हजारो योद्ध्यांनी युक्त असतो व जो नम्रतापूर्वक तुमचा सत्कार करतो तो स्वत: युद्धविशारद असतो व कर्मयोग्याच्या अध्यक्षतेखाली राहण्याने त्याचे संतानही युद्धात कुशल असते. अर्थात त्याचे युद्धात कुणी निवारण करू शकत नाही. ॥६॥

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