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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    मा भे॑म॒ मा श्र॑मिष्मो॒ग्रस्य॑ स॒ख्ये तव॑ । म॒हत्ते॒ वृष्णो॑ अभि॒चक्ष्यं॑ कृ॒तं पश्ये॑म तु॒र्वशं॒ यदु॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । भे॒म॒ । मा । श्र॒मि॒ष्म॒ । उ॒ग्रस्य॑ । स॒ख्ये । तव॑ । म॒हत् । ते॒ । वृष्णः॑ । अ॒भि॒ऽचक्ष्य॑म् । कृ॒तम् । पश्ये॑म । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा भेम मा श्रमिष्मोग्रस्य सख्ये तव । महत्ते वृष्णो अभिचक्ष्यं कृतं पश्येम तुर्वशं यदुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । भेम । मा । श्रमिष्म । उग्रस्य । सख्ये । तव । महत् । ते । वृष्णः । अभिऽचक्ष्यम् । कृतम् । पश्येम । तुर्वशम् । यदुम् ॥ ८.४.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (उग्रस्य) शत्रूणां भयंकरस्य (तव) तव कर्मयोगिणः (सख्ये) मैत्रीभावे सति (मा, भेम) मा भैष्म (मा, श्रमिष्म) श्रान्ताश्च मा भूम (वृष्णः) कामानां वृष्टिकारकस्य (ते) तव (महत्, कृतं) महत्कर्म (अभिचक्ष्यं) अभिख्यातव्यमस्ति, हे इन्द्र ! (यदुं) स्वसन्तानं (तुर्वशं) शत्रूणां हिंसितारं (पश्येम) त्वत्कृपया पश्येम ॥७॥

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    विषयः

    अनयाऽऽशिषः प्रार्थयते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! उग्रस्य=दुष्टान् प्रति भयङ्करस्य । तव । सख्ये=मित्रतायामाज्ञायां वर्तमाना वयम् । मा भेम=न कस्माच्चिदपि पुरुषाद् भीता भवेम । अपि च । मा श्रमिष्म=नहि कदाचिदपि कस्मिंश्चित् शुभकार्य्ये श्रान्ता भवेम । यद्वा । केनचित् पीडिता न भवेम । हे इन्द्र ! वृष्णः=भक्तान् प्रति । यद्वा । संसारे निखिलकामानां वर्षितुः । ते=तव कृतम्=सृष्ट्यादि कर्म । महदस्ति । पुनः । अभिचक्ष्यम्=सर्वतो दर्शनीयं प्रख्यापनीयञ्च वर्तते । अपि च । स्वात्मानम् । तुर्वशम्=तवाधीनम् । यदुम्= तवाभिमुखीनं च पश्येम । तवाज्ञायां सदा वर्तेमहीत्यर्थः ॥७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (उग्रस्य) शत्रुओं को भयप्रद (तव) आप कर्मयोगी के (सख्ये) मैत्रीभाव होने पर (मा, भेम) न हम भयभीत होते और (मा, श्रमिष्म) न श्रान्त होते हैं (वृष्णः) कामनाओं की वर्षा करनेवाले (ते) आपका (महत्, कृतं) महान् कर्म (अभिचक्ष्यं) प्रशंसनीय है, हे इन्द्र ! (यदुं) अपनी सन्तान को (तुर्वशं) शत्रुहिंसनशील (पश्येम) आपकी कृपा से हम देखें ॥७॥

    भावार्थ

    हे शत्रुओं को वशीभूत करनेवाले कर्मयोगिन् ! आपसे मैत्रीभावसम्बन्ध प्राप्त होने पर न हम शत्रुओं से भयभीत होते और न अपनी कार्य्यसिद्धि में श्रान्त होते हैं अर्थात् निर्भयता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं। हमारी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले कर्मयोगिन् ! आपकी शिक्षाद्वारा उक्त महान् कर्म करने को हम समर्थ हुए हैं, सो आपका यह शिक्षणरूप कर्म प्रशंसनीय है। हे शत्रुओं के नाशक कर्मयोगिन् ! आपकी कृपा से यही भाव हमारी सन्तान में भी आवे अर्थात् उसको भी शत्रुओं के मध्य हम विजय प्राप्त करता हुआ देखें, हमारी इस कामना को पूर्ण करें ॥७॥

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    विषय

    इससे आशिष माँगते हैं ।

    पदार्थ

    हे महान् देव ! (उग्रस्य) दुष्टजनों के प्रति भयङ्कर (तव) तेरी (सख्ये) मित्रता और आज्ञा में वर्तमान हम उपासकगण (मा+भेम) किन्हीं अन्यायकारी वा पापी आदि अधम जनों से न डरें । तथा (मा+श्रमिष्म) किसी उत्तम कार्य में श्रान्त और स्थगित न होवें अथवा किसी दुष्ट से पीड़ित न होवें । हे भगवन् ! (वृष्णः) इस संसार में समस्त कामनाओं की वर्षा करनेवाले (ते) तेरे (कृतम्) सृष्टि आदि कर्म (महत्) महाश्चर्य्यजनक हैं और (अभिचक्ष्यम्) सर्वतो दर्शनीय और प्रख्यापनीय हैं । तथा हे भगवन् ! अपने आत्मा को (तुर्वशम्) तेरे वशीभूत और (यदुम्) तेरे अभिमुखीन (पश्येम) हम देखें । अर्थात् सदा हम आज्ञा में स्थित रहें, यह मेरी प्रार्थना स्वीकृत हो ॥७ ॥

    भावार्थ

    हम क्यों डरते हैं ? उत्तर−आन्तरिक दुर्बलता के कारण । जिसका आत्मा दुर्बल है, वह सबसे डरता है । असत्यता, मिथ्याव्यवहार, स्वेच्छाचारित्व, कदाचार, राजनियमों का पालन न करना और ईश्वरीय आज्ञाओं का उल्लङ्घन, इस प्रकार के विकर्म मनुष्यों को दुर्बल बना देते हैं । अबल पुरुष जगत् में स्थितिलाभ नहीं करते । केवल धन से, राज्य से, शरीर से, जन से, सेनादि बल से यह आत्मा बलिष्ठ नहीं होता, किन्तु एक ही सम्यगनुष्ठित सत्य से यह आत्मा महान् बलवान् होता है । विदेशी गैलेलियो और साक्रेटीज आदि विद्वान् और स्वदेशी युधिष्ठिर, बुद्ध आदि महात्मा सत्य ही से महाबली थे । जिनके नाम ही सम्प्रति इस भूमि को पवित्र कर रहे हैं । हे मनुष्यो ! सत्यव्रत पालकर निर्भय होओ । अतः वेद में हम न डरें, इत्यादि प्रार्थना होती है । और भी−हे मेधाविजनो ! ईश्वर का जो यह जगद्रूप कर्म है, इसका माहात्म्य मनुष्यों को समझाओ, क्योंकि यह महाश्चर्य्य और प्रशंसनीय है और इस आत्मा को भी उसके अधीन कर उसी का यश गाओ और विस्तार करो, इत्यादि शिक्षा इससे होती है ॥७ ॥

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    विषय

    आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! हे प्रभो ! हम ( उग्रस्य ) उग्र, अति बलवान् ( तव ) तेरे ( सख्ये ) मित्रभाव में रहकर ( मा भेम ) कभी न डरें, ( मा श्रमिष्म ) कभी न थकें। ( वृष्णः ते ) उत्तम प्रबन्धक और सुखों के वर्षक तेरे ( कृतं ) किये ( महत् ) बड़े भारी ( अभि-चक्ष्यं ) प्रत्यक्ष दर्शनीय कार्य को तथा ( यदुम् ) यत्नशील ( तुर्वशम् ) धर्मार्थ काम मोक्षादि के अभिलाषी मानव जन को ( पश्येम ) देखें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मा भेम, मा श्रमिष्म

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (उग्रस्य) = शत्रुओं के लिये भयंकर (तव) = आपके (सख्ये) = मित्रभाव में हम (मा भेम) = न तो शत्रुओं से भयभीत हों और (मा) = ना ही श्रमिष्मथक जायें, सदा श्रमशील बनें रहें, अनथक रूप से कार्य करनेवाले हों। [२] (वृष्णः) = शक्तिशाली (ते) = आपकी (महत्) = महान् (अभिचक्ष्यम्) = [means of defence] रक्षण व्यवस्था (कृतम्) = की गयी है। उस रक्षण व्यवस्था से रक्षित हुए- हुए हम अपने को (तुर्वशम्) = त्वरा से शत्रुओं को वश में करनेवाला व (यदुम्) = यत्नशील (पश्येम) = देखें। आप से रक्षित हुए हुए हम शत्रुओं के शीर्ण करके सदा धर्म कार्यों में यत्नशील रहें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की मित्रता में हम अभय व सतत कार्यशील बनें। प्रभु की रक्षण व्यवस्था में शत्रुओं को वश में करनेवाले व यत्नशील हों।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let us never feel afraid, let us never tire or feel depressed under your kind care and friendship, commander of blazing lustre. Admirable is your action and prowess, mighty generous lord. We celebrate you and pray we may see that our people and our progeny be industrious and high achievers.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे शत्रूंना वशीभूत करणाऱ्या कर्मयोग्यांनो! तुमच्याशी मैत्री स्थापित झाल्यावर आम्ही शत्रूची भीती बाळगत नाही व आमच्या कार्यसिद्धीत श्रान्त होत नाही. अर्थात निर्भयतेने शत्रूवर विजय प्राप्त करतो. आमच्या कामना पूर्ण करणाऱ्या कर्मयोग्यांनो! तुमच्या शिकवणुकीद्वारे वरील महान कर्म करण्यास आम्ही समर्थ झालेले आहोत. त्यामुळे तुमचे शिकवणरूपी कर्म प्रशंसनीय आहे. हे शत्रूनाशक कर्मयोगी ! तुमच्या कृपेने हाच भाव आमच्या संतानात येऊ द्या. अर्थात् त्यालाही शत्रूवर विजय प्राप्त करताना आम्ही पाहावे. आमची ही कामना पूर्ण करावी. ॥७॥

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