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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पथ्यावृहती स्वरः - मध्यमः

    अ॒श्वी र॒थी सु॑रू॒प इद्गोमाँ॒ इदि॑न्द्र ते॒ सखा॑ । श्वा॒त्र॒भाजा॒ वय॑सा सचते॒ सदा॑ च॒न्द्रो या॑ति स॒भामुप॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्वी । र॒थी । सु॒ऽरू॒पः । इत् । गोऽमा॑न् । इत् । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । सखा॑ । श्वा॒त्र॒ऽभाजा॑ । वय॑सा । स॒च॒ते॒ । सदा॑ । च॒न्द्रः । या॒ति॒ । स॒भाम् । उप॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वी रथी सुरूप इद्गोमाँ इदिन्द्र ते सखा । श्वात्रभाजा वयसा सचते सदा चन्द्रो याति सभामुप ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वी । रथी । सुऽरूपः । इत् । गोऽमान् । इत् । इन्द्र । ते । सखा । श्वात्रऽभाजा । वयसा । सचते । सदा । चन्द्रः । याति । सभाम् । उप ॥ ८.४.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 9
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ कर्मयोगिमैत्रीफलमुच्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (ते, सखा) तव मित्रम् (अश्वी) अश्वयुक्तः (रथी) रथयुक्तः (सुरूपः, इत्) शोभनरूपवानेव (गोमान्, इत्) गवादियुक्त एव सन् (श्वात्रभाजा) धनसहितेन (वयसा) अन्नेन (सचते) संगतो भवति (सदा) शश्वत् (चन्द्रः) चन्द्र इव द्युतिमान् भूत्वा (सभाम्) संसदम् (उपयाति) उपगच्छति ॥९॥

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    विषयः

    अनया प्रार्थनाफलमाह ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ते=तव । सखा=मित्रभूत आज्ञायां वर्तमानो जनः । अश्वी इत्=प्रशस्तैर्बहुभिरश्वैरुपेत एव भवति । रथी इत्=अनेकै रथैर्युक्त एव भवति । सुरूप इत्=शोभनरूप एव भवति । गोमान्=इत् बह्वीभिर्गोभिः संयुक्त एव भवति । अश्वरथसुरूपगवादिवस्तुभिर्न कदापि वियुक्तो भवतीत्यर्थः । अपि च । श्वात्रभाजा=यशोयुक्तेन । वयसा=आयुषा । सदा । सचते=संमिलितो भवति । षच समवाये । अत एव । ईदृग्जनः । चन्द्रः=सर्वेषामाह्लादको भूत्वा । सभाम्= सभ्यपरिषदम् । उपयाति=उपगच्छति ॥९ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब कर्मयोगी से मित्रता करनेवाले को फल कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (ते, सखा) आपका मित्र (अश्वी) अश्वयुक्त (रथी) रथी=रथयुक्त (सुरूपः, इत्) सुरूपवान् (गोमान्, इत्) गवादियुक्त होकर (श्वात्रभाजा) धनों के सहित (वयसा) अन्न से (सदा) सदैव (सचते) संगत होता है (चन्द्रः) चन्द्रमा के समान द्युतिमान् होकर (सभाम्) सभा को (उपयाति) जाता है ॥९॥

    भावार्थ

    जो पुरुष कर्मयोगी को प्रसन्न रखकर उससे मित्रता करते हैं, वे अश्व, रथ तथा गौ आदि पशु और अन्नादि धनों से युक्त होकर सदैव आनन्द भोगते हैं। वे बड़ी आयुवाले होते और स्वरूपवान् तथा प्रतिष्ठित हुए सभा-समाज में मान को प्राप्त होते हैं, इसलिये प्रतिष्ठाभिलाषी पुरुष को उक्त गुणसम्पन्न कर्मयोगी से मित्रता करके सदा लाभ उठाना चाहिये ॥९॥

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    विषय

    इससे प्रार्थना का फल कहते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (ते) तेरा (सखा) मित्र अर्थात् उपासक और आज्ञाकारी जन (अश्वी+इत्) सदा बहुत अच्छे-२ घोड़ों से युक्त ही रहता है (रथी+इत्) अनेक रथों से उपेत ही रहता है (सुरूपः+इत्) सुरूपवान् ही होता है (गोमान्+इत्) गौओं से युक्त ही रहता है (सदा) सर्वदा (श्वात्रभाजा) यशोधारी (वयसा) आयु से (सचते) युक्त रहता है । इसी कारण वह (चन्द्रः) सबका आह्लादक होकर (सभाम्) सभ्यसमाजों में (उपयाति) जाता है यद्वा सभ्यसमाज के निकट पहुँचता है ॥९ ॥

    भावार्थ

    इसका आशय यह है कि जो परमात्मा की उपासना करता है, उसके सब कर्म नियत अविच्छिन्न और मन से अनुष्ठित होते हैं, अतः वे शीघ्र पुष्पों और फलों से युक्त होते हैं और ऐसे उपासक की दिन-२ उन्नति होती जाती है ॥९ ॥

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    विषय

    राजा प्रजा का गृहस्थवत् व्यवहार । राजा के राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! स्वामिन् ! ( ते ) तेरा ( सखा ) मित्र ( अश्वी ) अश्वों का स्वामी, ( रथी ) रथों का स्वामी ( सु-रूपः ) उत्तम रूपवान् ( गोमान् ) उत्तम इन्द्रियों, वाणियों, भूमियों का स्वामी ( इद् ) ही हो जाता है। वह ( श्वात्र-भाजा वयसा ) धनादि से समृद्ध अन्न बल आयु से ( सदा सचते ) सदा युक्त होता और ( चन्द्रः ) सबको सुखी करने वाला होकर ( सभाम् उप याति ) सभा को प्राप्त होता है। वह सभापति वा सभासत् बनता है। प्रभु का मित्र जीव, भक्त, उत्तम मन, देह, रूप वाणी आदि से युक्त होता और सुखप्रद ऐश्वर्ययुक्त ज्ञान से सम्पन्न होता और आह्लादयुक्त होकर 'सभाम्' प्रभु के समान शुद्ध कान्ति को प्राप्त करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सुरूप: गोमान्

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते सखा) = आपका मित्र (अश्वी) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला होता है, रथी उत्तम शरीर-रथवाला बनता है और (इत्) = निश्चय से (सुरूपः) = उत्तम रूपवाला होता है। यह (गोमान् इत्) = प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाला ही होता है। जहाँ इसका रूप उत्तम होता है, वहाँ यह ज्ञान के दृष्टिकोण से भी उत्तम होता है। [२] यह (सदा) = सदा (श्वात्रभाजा) = [श्वि वृद्धौ] वृद्धि का सेवन करनेवाले (वयसा) = आयुष्य से (सचते) = युक्त होता है जीवन में सदा बढ़ता ही चलता है और (चन्द्रः) = आह्लादमय मनोवृत्तिवाला (सभां उपयाति) = सभा में उपस्थित होता है। जब कभी जन समुदाय में आता है, प्रसन्न ही मनोवृत्तिवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का मित्र 'उत्तम इन्द्रियों व शरीरवाला, सुरूप, ज्ञानी, वृद्धिशील व प्रसन्न मनोवृत्तिवाला' होता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of light and ruling power, your devoted friend ever blest with the powers of life’s progress onwards like a chariot hero of war, enjoying grace of person and culture, wealth of knowledge and riches of the earth, has his full share of good health, full age and gifts of existence, and he goes forward to the assembly of people like the full moon among stars.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे कर्मयोग्याला प्रसन्न ठेवून त्याच्याबरोबर मैत्री करतात ती अश्व, रथ, गाई इत्यादी पशू व अन्न इत्यादी धनाने युक्त होऊन सदैव आनंद भोगतात, ती दीर्घायु होतात व स्वरूपवान आणि प्रतिष्ठित असलेल्या सभा समाजात मान प्राप्त करतात. त्यासाठी प्रतिष्ठाभिलाषी माणसाला वरील गुणसंपन्न कर्मयोग्याशी मैत्री करून सदैव लाभ घेतला पाहिजे. ॥९॥

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