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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यद्वा॒ रुमे॒ रुश॑मे॒ श्याव॑के॒ कृप॒ इन्द्र॑ मा॒दय॑से॒ सचा॑ । कण्वा॑सस्त्वा॒ ब्रह्म॑भि॒: स्तोम॑वाहस॒ इन्द्रा य॑च्छ॒न्त्या ग॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वा॒ । रुमे॑ । रुश॑मे । श्याव॑के । कृपे॑ । इन्द्र॑ । मा॒दय॑से । सचा॑ । कण्वा॑सः । त्वा॒ । ब्रह्म॑ऽभिः । स्तोम॑ऽवाहसः । इन्द्र॑ । आ । य॒च्छ॒न्ति॒ । आ । ग॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वा रुमे रुशमे श्यावके कृप इन्द्र मादयसे सचा । कण्वासस्त्वा ब्रह्मभि: स्तोमवाहस इन्द्रा यच्छन्त्या गहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वा । रुमे । रुशमे । श्यावके । कृपे । इन्द्र । मादयसे । सचा । कण्वासः । त्वा । ब्रह्मऽभिः । स्तोमऽवाहसः । इन्द्र । आ । यच्छन्ति । आ । गहि ॥ ८.४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे इन्द्र (यद्वा) यद्यपि (रुमे) केवलं शब्दस्य कर्तरि (रुशमे) दीप्तिमति (श्यावके) तमःप्रकृतिके (कृपे) समर्थे च (सचा) सह (मादयसे) सर्वान् हर्षयसि तथापीदानीम् (स्तोमवाहसः) तव भागं वाहयन्तः (कण्वासः) विद्वांसः (ब्रह्मभिः) स्तुतिभिः (त्वा) त्वां (आयच्छन्ति) आगमयन्ति (इन्द्र) हे इन्द्र ! (आगहि) आयाहि ॥२॥

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    विषयः

    स कस्मिन् दयत इत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! यद्वा=यद्यपि । रुमे=रुग्णं पुरुषं यो मन्यते=मातृवन् मानयति स रुमो रोगिसेवकस्तस्मिन् । रुशमे=रुग्णं शमयतीति रुशमस्तस्मिन् । रोगिचिकित्सके वैद्ये । श्यावके=परानुग्रहायाभिगन्तरि । तथा । कृपे=कृपालौ जने । सचा=सार्धम् । रुमादिषु सर्वत्र तृतीयार्थे सप्तमी । रुमादिभिः । सार्धमित्यर्थः । त्वं मादयसे=आनन्दसि= तानानन्दयसि च । तथापि । स्तोमवाहसः=मनुष्येषु तव गुणप्रापकाः । कण्वासः=कण्वा ग्रन्थरचयितारो मेधाविनः । ब्रह्मभिः=स्वकीयैरुत्कृष्टैः स्तोत्रैः करणैः । त्वा+आयच्छन्ति=त्वां स्वाभिमुखीकुर्वन्ति । वयमपि तादृशाः । अतोऽस्मान् । आगहि=आगच्छ ॥२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (यद्वा) यद्यपि (रुमे) केवल शब्दमात्र करनेवाले तथा (रुशमे) तेजस्वी (श्यावके) तमोगुणवाले तथा (कृपे) समर्थ पुरुषों में (सचा) साथ ही (मादयसे) हर्ष उत्पन्न करते हैं, तथापि (स्तोमवाहसः) आपके भाग को लिये हुए (कण्वासः) विद्वान् लोग (ब्रह्मभिः) स्तुति द्वारा (त्वा) आपको (आयच्छन्ति) बुलाते हैं, (इन्द्र) हे इन्द्र ! (आगहि) आइये ॥२॥

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न कर्मयोगिन् ! भीरु, तेजस्वी, तमोगुणी तथा सम्पत्तिशाली सब प्रकार के पुरुष आपको बुलाकर सत्कार करते और आप सबको हर्ष उत्पन्न करते हैं, सो हे भगवन् ! आपके सत्कारार्ह पदार्थ लिये हुए विद्वान् लोग स्तुतियों द्वारा आपको बुला रहे हैं। आप कृपा करके शीघ्र आइये ॥२॥

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    विषय

    वह किसके ऊपर दया करता है, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (यद्+वा) यद्यपि (रुमे) रोगी जनों को मातृवत् माननेवाले के (सचा) साथ (रुशमे) औषधि से रोगों को शान्त करनेवाले वैद्य के साथ (श्यावके) परानुग्रहार्थ भ्रमण करनेवाले मनुष्य के साथ तथा (कृपे) कृपा करनेवाले के साथ तू सदा (मादयसे) आनन्दित रहता है और उनको आनन्दित रखता है । तथापि हे इन्द्र ! (स्तोमवाहसः) मनुष्यों में तेरे गुणों के पहुँचानेवाले (कण्वासः) ग्रन्थरचयिता जन (ब्रह्मभिः) निज-२ उत्कृष्ट स्तोत्रों के द्वारा (त्वा) तुझको (आ+यच्छन्ति) अपनी ओर कर लेते हैं । हे परमात्मन् ! हम उपासक भी तेरी स्तुति करते हैं । (आगहि) अतः हमारे ऊपर कृपा करने के लिये आ ॥२ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो उसकी आज्ञा अच्छे प्रकार जानकर जगत् में परार्थ प्रवृत्त होते हैं, वे ही ईश के दयापात्र हैं । वे कौन हैं, इस अपेक्षा में कतिपय उदाहरण दिखलाते हैं । जो कोई रोगार्तों के उद्धारक हैं, जो जनों के दुःख की निवृत्ति के लिये सदा यत्न करते हैं, सर्वभूतों पर अपने समान कृपा करते हैं, ऐसे मनुष्यों के हृदय में वह ईश निवास करता है । इनके अतिरिक्त संसार के कल्याण के लिये जो उपदेश दिया करते हैं, उपदेशमय ग्रन्थों को रचकर प्रचार करते हैं और ईश्वरीय आज्ञाओं को लोगों में समझाते हैं, इस प्रकार के जो जन हैं, वे भी ईश्वर की दया पाते हैं । तुम भी ऐसे शुभकर्म करके उसके अनुग्राह्य बनो ॥२ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यद् वा ) और जो तू ( रुमे ) उपदेष्टा, ( रुशमे ) अन्यों की पीड़ा शान्त करनेवाले रक्षक, (श्यावके) इधर उधर जाने वाले व्यापारी और ( कृपे ) दयनीय, सामर्थ्यवान् श्रमी, सभी जनवर्ग में ( सचा ) एक साथ ही सबको (मादयसे) प्रसन्न करता है, हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! और ( स्तोम-वाहसः) स्तुतिधारक, ( कण्वासः ) बुद्धिमान् पुरुष ( ब्रह्मभिः त्वा यच्छन्ति ) वेदमन्त्रों से तुझे यज्ञ द्वारा अपने को अर्पित करते हैं वह तू ( आ गहि ) हमें प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'रुम-रुशम-श्यावक-कृप'

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यद् वा) = या तो (रुमे) = [रु शब्दे] स्तुति शब्दों का उच्चारण करनेवाले पुरुष में या (रुशमे) = स्तुति शब्दों का उच्चारण करते हुए शत्रु संहार करनेवाले में [रुश शब्दे ] तथा श्यावके शत्रु संहार के उद्देश्य से ही निरन्तर गतिशील पुरुष में और (कृपे) = [कृप् सामर्थ्ये] शक्तिशाली पुरुष में (सचा) = समवाय [मेल] वाले होते हुए आप (मादयसे) = इन उपासकों को आनन्दित करते हैं। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (स्तोमवाहसः) = स्तुति समूहों का धारण करनेवाले (कण्वासः) = बुद्धिमान् लोग (ब्रह्मभिः) = ज्ञानपूर्वक उच्चरित होनेवाली इन स्तुति वाणियों से (त्वा यच्छन्ति) = आपके प्रति अपने को दे डालते हैं। (आगहि) = आप इन स्तोताओं को प्राप्त होइये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु उन्हें प्राप्त होते हैं जो [क] स्तुति शब्दों का उच्चारण करते हैं, [ख] वासनाओं का संहार करते हैं, [ग] गतिशील हैं तथा [घ] शक्तिशाली बनते हैं। स्तोता प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते हैं, प्रभु इन्हें प्राप्त होते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And since, O lord Indra, you go to the celebrants, illustrious, child-like innocent and the humble and kind alike, sit with them, socialise and enjoy, so the dedicated admirers and learned men of vision and wisdom offer homage and reverence, exalt you with sacred hymns and say : Come, O lord, and accept our tributes and homage.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यसंपन्न कर्मयोगी! भित्रे, तेजस्वी, तमोगुणी व संपत्तिवान सर्व प्रकारची माणसे तुम्हाला बोलावून सत्कार करतात व तुम्ही सर्वांना आनंदित करता. हे भगवान! तुमच्या सत्कारासाठी पदार्थ (भेट) घेऊन विद्वान लोक स्तुती करून तुम्हाला बोलावीत आहेत. तुम्ही कृपा करून शीघ्र या ॥२॥

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