ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः पूषा वा
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
परा॒ गावो॒ यव॑सं॒ कच्चि॑दाघृणे॒ नित्यं॒ रेक्णो॑ अमर्त्य । अ॒स्माकं॑ पूषन्नवि॒ता शि॒वो भ॑व॒ मंहि॑ष्ठो॒ वाज॑सातये ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । गावः॑ । यव॑सम् । कत् । चि॒त् । आ॒घृ॒णे॒ । नित्य॑म् । रेक्णः॑ । अ॒म॒र्त्य॒ । अ॒स्माक॑म् । पू॒ष॒न् । अ॒वि॒ता । शि॒वः । भ॒व॒ । मंहि॑ष्ठः । वाज॑ऽसातये ॥
स्वर रहित मन्त्र
परा गावो यवसं कच्चिदाघृणे नित्यं रेक्णो अमर्त्य । अस्माकं पूषन्नविता शिवो भव मंहिष्ठो वाजसातये ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । गावः । यवसम् । कत् । चित् । आघृणे । नित्यम् । रेक्णः । अमर्त्य । अस्माकम् । पूषन् । अविता । शिवः । भव । मंहिष्ठः । वाजऽसातये ॥ ८.४.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ गोरक्षायोग्यपदार्थाः प्रार्थ्यन्ते।
पदार्थः
(अमर्त्य) हे रोगादिरहित कर्मयोगिन् ! (गावः) मदीया गावः (कच्चित्) कस्मिंश्चित्काले (यवसं) तृणं (परा) अत्तुं परागच्छेयुः तदा (रेक्णः) तद्गोस्तृणरूपं धनम् (नित्यम्) नित्यं भवतु (पूषन्) हे पोषक ! (अस्माकम्) अस्माकं जिज्ञासूनां (शिवः, अविता, भव) कल्याणमयः रक्षको भव (वाजसातये) धनदानाय (मंहिष्ठः) उदारतमो भव ॥१८॥
विषयः
रक्षायै परमेश्वर एव प्रार्थनीयः ।
पदार्थः
हे आघृणे=हे सर्वप्रकाशक देव ! कच्चित्=कस्मिंश्चित्काले=यदा कदाचित् । अस्मदीयाः । गावः=गवादिपशवः । यदि । यवसम्=तृणं भक्षयितुम् । परा=दूरदेशे । गच्छेयुः । तदा । हे अमर्त्य=मरणरहित नित्येश्वर ! तद् । रेक्णः=गोरूपधनम् । नित्यम्=ध्रुवं भवतु । चौरव्याघ्रादिभिर्न हिंसितं भवतु । हे पूषन्=पोषक इन्द्र ! अस्माकम् । अविता=रक्षको भूत्वा । शिवो भव । तथा । वाजसातये=ज्ञानप्राप्त्यर्थम् । मंहिष्ठोऽतिशयेन दाता भव ॥१८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब गवादि पशुओं के लिये चारारूप तृण के लिये प्रार्थना करना कथन करते हैं।
पदार्थ
(अमर्त्य) हे रोगादिरहित कर्मयोगिन् ! (गावः) मेरी गाएँ (कच्चित्) किसी समय (यवसम्) तृण को (परा) भक्षण करने के लिये यदि जाएँ तो (रेक्णः) वह उनका तृणरूप धन (नित्यम्) नित्य हो (पूषन्) हे पोषक इन्द्र ! (अस्माकं) हम जिज्ञासुओं के (शिवः, अविता, भव) कल्याणमय रक्षक आप हों (वाजसातये) धनदान के लिये (मंहिष्ठः) उदारतम हों ॥१८॥
भावार्थ
हे सबके पालक कर्मयोगिन् ! हमारी गौओं के भक्षणार्थ तृणरूप धन नित्य हो। मन्त्र में “गावः” पद सब पशुओं का उपलक्षण है अर्थात् हमारे पशुओं के लिये नित्य पुष्कल उत्तम चारा मिले, जिससे वह हृष्ट-पुष्ट रहें। हे कर्मयोगिन् ! आप हम जिज्ञासुओं के सदैव रक्षक हों और हमारे लिये धन-दान देने में सदा उदारभाव हों ॥१८॥
विषय
रक्षा के लिये परमेश्वर ही प्रार्थनीय है ।
पदार्थ
(आघृणे) हे सर्वप्रकाशक भगवन् ! (कच्चित्) किसी समय में यदि (गावः) हमारे गौ आदि पशु (यवसम्) तृण चरने के लिये (परा) दूर देश में जाएँ, तब आपकी कृपा से (रेक्णः) वह गोरूप धन (नित्यम्) ध्रुव होवे अर्थात् चौर व्याघ्रादिक से हिंसित न होवे । (अमर्त्य) हे नित्य शाश्वत ईश ! (पूषन्) हे पोषक ! (अस्माकम्) हम लोगों का रक्षक होकर (शिवः+भव) कल्याणकारी हो तथा (वाजसातये) विज्ञानप्राप्त्यर्थ (मंहिष्ठः) अत्यन्त दाता बन ॥१८ ॥
भावार्थ
यह स्वाभाविकी प्रार्थना है । सब कार्य में प्रथम महेश प्रार्थनीय है, यह दिखलाते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि मन से ध्यात ईश प्रसन्न होता है ॥१८ ॥
विषय
राजा प्रजा का गृहस्थवत् व्यवहार । राजा के राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( आघृणे ) सब प्रकार से प्रकाशमान ! तेजस्विन् ! हे अमर्त्य ! साधारण मनुष्यों में विशेष ! ( कञ्चित् ) जब कभी भी ( गाव: ) गौवें ( यवसम् ) चारे का लक्ष्य कर ( परा) दूर भी हों तो भी ( रेक्णः ) वह धन ( नित्यं ) स्थिर बना रहे, उसे कोई न हरे । हे ( पूषन् ) पोषक स्वामिन् ! तू ( अस्माकम् अविता ) हमारा रक्षक और ( शिवः ) कल्याणकारक ( भव ) हो । और तू ( वाजसातये ) ऐश्वर्य के संविभाग चल को प्राप्त करने के लिये ( मंहिष्ठः ) अति दानशील और सर्वपूज्य ( भव ) हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
नित्यं रेक्णः
पदार्थ
[१] हे (आघृणे) = सर्वत दीप्त प्रभो ! (गाव:) = हमारी ये इन्द्रियाँ (परा) = दूर बाहिर की ओर (यवसम्) = विषयरूप घास को चरने के लिये जाती हैं। हे (अमर्त्य) = हमें न नष्ट होने देनेवाले प्रभो ! (कच्चित्) = क्या कभी ये इन्द्रियाँ (नित्यं रेक्णः) = उस अविनश्वर ज्ञानरूप धन को लेने के लिये भी चलेंगी? क्या हमारी इन्द्रियाँ ज्ञान की रुचिवाली न बनेगी ? [२] हे (पूषन्) = पोषक प्रभो ! आप (अस्माकम्) = हमारे (अविता) = रक्षक व (शिवः) = कल्याण करनेवाले (भव) = होइये। आप (वाजसातये) = शक्ति को प्राप्त कराने के लिये (मंहिष्ठ:) = दातृतम होइये । आप हमें अधिक से अधिक शक्ति को प्राप्त करानेवाले हों। यह शक्ति ही हमारा रक्षण व कल्याण करेगी। विषयों में भटककर इन्द्रियाँ शक्तियों को जीर्ण कर लेती थीं। आप की कृपा से ये ज्ञान की ओर झुकी और हम अमंगल से बच गये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के अनुग्रह से हमारी इन्द्रियाँ विषयों में न भटककर ज्ञानरूप नित्य धन की प्राप्ति के लिये झुकाववाली हों। प्रभु हमारा रक्षण करें और अधिक से अधिक शक्ति को प्राप्त करायें ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of light and immortality, our cows go far and wide for pasture, let that wealth of ours be always constant and imperishable. O lord most potent giver of health and generous nourishment, be our protector and saviour, and our source of peace and well being for the sake of ultimate victory.
मराठी (1)
भावार्थ
हे सर्वांचे पालक कर्मयोगी! आमच्या गाईना चरण्यासाठी तृणरूपी धन सदैव असावे, या मंत्रात ‘गाव:’ पद पशूंचे उपलक्षण आहे. अर्थात् आमच्या पशूंना नित्य पुष्कळ उत्तम चारा मिळावा, ज्यामुळे ते हृष्टपुष्ट राहावेत. हे कर्मयोगी! तुम्ही जिज्ञासूंचे सदैव रक्षक आहात व आम्हाला धन देण्यात तुम्ही सदैव उदार असावे. ॥१८॥
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