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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 12
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स्व॒यं चि॒त्स म॑न्यते॒ दाशु॑रि॒र्जनो॒ यत्रा॒ सोम॑स्य तृ॒म्पसि॑ । इ॒दं ते॒ अन्नं॒ युज्यं॒ समु॑क्षितं॒ तस्येहि॒ प्र द्र॑वा॒ पिब॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒यम् । चि॒त् । सः । म॒न्य॒ते॒ । दाशु॑रिः । जनः॑ । यत्र॑ । सोम॑स्य । तृ॒म्पसि॑ । इ॒दम् । ते॒ । अन्न॑म् । युज्य॑म् । सम्ऽउ॑क्षितम् । तस्य॑ । इ॒हि॒ । प्र । द्र॒व॒ । पिब॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वयं चित्स मन्यते दाशुरिर्जनो यत्रा सोमस्य तृम्पसि । इदं ते अन्नं युज्यं समुक्षितं तस्येहि प्र द्रवा पिब ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वयम् । चित् । सः । मन्यते । दाशुरिः । जनः । यत्र । सोमस्य । तृम्पसि । इदम् । ते । अन्नम् । युज्यम् । सम्ऽउक्षितम् । तस्य । इहि । प्र । द्रव । पिब ॥ ८.४.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 12
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ कर्मयोगिनः सोमरसपानं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    हे कर्मयोगिन् ! (यत्र) यस्मिन् यजमाने (सोमस्य, तृम्पसि) सोमपानेन तृप्नोषि (सः, दाशुरिः जनः) स सेवको जनः (स्वयं, चित्, मन्यते) स्वयमेव जागरूको भवति (ते) तव (इदम्, युज्यम्, अन्नम्) इदं योग्यमन्नम् (समुक्षितम्) साधितम् (तस्य) तदन्नम् (इहि) आयाहि (प्रद्रव) शीघ्रमायाहि (पिब) पिबतु ॥१२॥

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    विषयः

    ईश्वरकृपया किं भवतीत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे महेश ! यत्र=यस्य जनस्य । सोमस्य=सोमेन=शुद्धद्रव्येण । त्वम् । तृम्पसि=तृप्यसि । तृप तृम्प तृप्तौ तौदादिकः । शे तृम्पादीनाम् इति नुम् । सजनः । स्वयंचित्=स्वमेव । मन्यते=कर्त्तव्याकर्त्तव्ये विजानाति । स पुनः । दाशुरिः=ज्ञानविज्ञानद्रव्यादिप्रदो भवति । दाशृ दाने । औणादिक उरिन् । हे इन्द्र ! ते=त्वया प्रदत्तम् । इदमस्माकं पुरतः स्थितम् । अन्नम्=भोज्यं वस्तु । युज्यम्=सर्वथैव उपयोजनीयमस्ति । तथा समुक्षितम् । विविधरसैः सम्यक् सिक्तम् । उक्ष सेचने । हे ईश ! तस्य=तम् एहि । प्रद्रव=तस्योपरि कृपां कुरु । पिब=दृष्ट्यावलोकय ॥१२ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब कर्मयोगी का सोमरसपान करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    हे कर्मयोगिन् ! (यत्र) जिस यजमान में (सोमस्य, तृम्पसि) सोमपान से तृप्त होते हैं (सः, दाशुरिः, जनः) वह सेवकजन (स्वयम्, चित्, मन्यते) स्वयं ही जागरूक रहता है (ते) आपका (इदम्, युज्यम्, अन्नम्) यह योग्य अन्न (समुक्षितम्) सिद्ध हो गया (तस्य) उसका (इहि) आइये (प्रद्रव) शीघ्र आइये (पिब) पान कीजिये ॥१२॥

    भावार्थ

    हे कर्मयोगिन् ! यजमान की ओर से कुशल सेवकों द्वारा अन्नपान भले प्रकार सिद्ध हो गया है, आप इसको ग्रहण कीजिये ॥१२॥

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    विषय

    ईश्वर की कृपा से क्या होता है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे महेश ! (यत्र) जिस जन के (सोमस्य) शुद्ध द्रव्य से तू (तृम्पसि) तृप्त होता है (सः+जनः) वह जन (दाशुरिः) नाना ज्ञान-विज्ञान और द्रव्यों का दाता होता है और वह (स्वयम्+चित्) स्वयं ही (मन्यते) कर्त्तव्य अकर्त्तव्य को समझता है, क्योंकि वह तुझसे सद्बुद्धि प्राप्त करता है । हे परमात्मन् ! (ते) तुझसे प्रदत्त (इदम्+अन्नम्) यह अन्न (युज्यम्) हम लोगों के योग्य है और (समुक्षितम्) अच्छे प्रकार नाना रसों से सिक्त है, इस कारण (तस्य+एहि) उसको देखने के लिये तू आ (प्रद्रव) उस पर दया कर तथा (पिब) उसे कृपादृष्टि से देख ॥१२ ॥

    भावार्थ

    जिस पर परमेश्वर की कृपा होती है, वह वस्तुतत्त्वों को विचारने लगता है । उससे वह परम पण्डित बन जाता है । इन पदार्थों का तत्त्व जो नहीं जानता है, क्या वह पण्डित है ? इनके विज्ञान से ही मनुष्य ऋषि और मुनि हुए । हे स्त्रियो और पुरुषो ! इस सृष्टि का अध्ययन करो ॥१२ ॥

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    विषय

    राजा प्रजा का गृहस्थवत् व्यवहार । राजा के राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ( यत्र ) जिस राष्ट्र वा उच्चपद में ( सोमस्य ) तू ऐश्वर्य से ( तृम्पसि ) तृप्त होता है ( सः ) वह राष्ट्रवासी प्रजाजन ( दाशुरिः ) कर आदि देने वाला होकर ( स्वयं चित् ) अपने आप ही ( मन्यते ) सब राष्ट्र कार्य को समझता है। ( ते ) तेरे लिये ( इदं ) यह समस्त ( अन्नं ) अन्न ( युज्यं ) और सहयोगी बल ( सम्-उक्षितम् ) अच्छी प्रकार सींचा जावे। (तस्य ) उसको तू ( आ इहि ) प्राप्त कर और ( प्र द्रव ) अन्नादि के लिये जल धाराएं प्रद्रवित कर, नहरें चला और ( प्र द्रव ) वेग से शत्रु पर आक्रमण कर । और ( पिब ) राष्ट्र का पालन और उपभोग कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सोमरक्षण के तीन लाभ

    पदार्थ

    [१] (यत्रा) = जब (सोमस्य तृम्पसि) = तू सोम से तृप्त होता है, अर्थात् सोम का रक्षण करनेवाला बनता है, तो (सजनः) = वह मनुष्य स्वयं (चित् स्वयं मन्यते) = ज्ञानवान् बनता है। यह व्यक्ति सोम के द्वारा दीप्त ज्ञानाग्निवाला बनकर अन्तः प्रकाश को देखनेवाला होता है। (दाशुरिः) = दान व त्याग की वृत्तिवाला बनता है। [२] हे जीव ! (इदम्) = यह सोम (ते अन्नम्) = तेरा अन्न है। (युज्यम्) = यह तुझे प्रभु से मिलाने का उत्तम साधन है। (समुक्षितम्) = शरीर के अंग-प्रत्यंगों में यह सिक्त होता है। तू (इहि) = आ, (प्र द्रवा) = शीघ्र गतिवाला हो और (तस्य पिब) = उस सोम का तू पान कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के लाभ ये हैं- [क] अन्त: प्रकाश प्राप्त होता है, [ख] त्यागवृत्ति का उदय होता है, [ग] यह सोम हमें प्रभु से मिलानेवाला होता है। इस प्रकार इस सोम का महत्त्व स्पष्ट है। सो हमें सोमरक्षण पर बड़ा बल देना चाहिए।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, the devout yajamana regards himself as divinely blest when you visit and drink the soma of hospitality. Here is the soma fit for you, matured and poured, pray accept it and drink.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे कर्मयोगी! यजमानाकडून कुशल सेवकाद्वारे अन्नपान चांगल्या प्रकारे सिद्ध झालेले आहे. तुम्ही ते ग्रहण करा. ॥१२॥

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