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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 26
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    वि॒श्वक॑र्म्मा॒ विम॑ना॒ऽआद्विहा॑या धा॒ता वि॑धा॒ता प॑र॒मोत स॒न्दृक्। तेषा॑मि॒ष्टानि॒ समि॒षा म॑दन्ति॒ यत्रा॑ सप्तऽऋ॒षीन् प॒रऽएक॑मा॒हुः॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। विम॑ना॒ इति॒ विऽम॑नाः। आत्। विहा॑या॒ इति॒ विऽहा॑याः। धा॒ता। वि॒धा॒तेति॑ विऽधा॒ता। प॒र॒मा। उ॒त। स॒न्दृगिति॑ स॒म्ऽदृक्। तेषा॑म्। इ॒ष्टानि॑। सम्। इ॒षा। म॒द॒न्ति॒। यत्र॑। स॒प्त॒ऋ॒षीनिति॑ सप्तऽऋ॒षीन्। प॒रः। एक॑म्। आ॒हुः ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वकर्मा विमनाऽआद्विहाया धाता विधाता परमोत सन्दृक् । तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऽऋषीन्पर एकमाहुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। विमना इति विऽमनाः। आत्। विहाया इति विऽहायाः। धाता। विधातेति विऽधाता। परमा। उत। सन्दृगिति सम्ऽदृक्। तेषाम्। इष्टानि। सम्। इषा। मदन्ति। यत्र। सप्तऋषीनिति सप्तऽऋषीन्। परः। एकम्। आहुः॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 26
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! विश्वकर्मा यो विमना विहाया धाता विधाता संदृक् परोऽस्ति, यमेकमाहुराद् यत्र सप्तऋषीन् प्राप्येषा जीवाः संमदन्त्युत यस्तेषां परमेष्टानि साध्नोति तं परमेश्वरं यूयमुपाध्वम्॥२६॥

    पदार्थः

    (विश्वकर्मा) विश्वं सर्वं जगत् कर्म क्रियमाणं यस्य सः (विमनाः) विविधं मनो विज्ञानं यस्य सः (आत्) आनन्तर्ये (विहायाः) विविधेषु पदार्थेषु व्याप्तः। अत्रोहाङ् गतावित्यस्मादसुन् णित्कार्यं च (धाता) धर्त्ता पोषको वा (विधाता) निर्माता (परमा) परमाणि श्रेष्ठानि (उत) अपि (सन्दृक्) या सम्यक् पश्यति (तेषाम्) (इष्टानि) सुखसाधकानि कर्माणि (सम्) (इषा) इच्छया (मदन्ति) हर्षन्ति (यत्र) अत्र ऋचि तुनुघ॰ [अष्टा॰६.३.१३३] इति दीर्घः (सप्तऋषीन्) सप्तप्राणादीन्। प्राणदयः पञ्च सूत्रात्मा धनञ्जयश्चेति (परः) सर्वोत्तमः (एकम्) अद्वितीयम् (आहुः) कथयन्ति॥२६॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सर्वस्य जगतः स्रष्टा धर्त्ता पालको नाशकोऽद्वितीयः परमेश्वर एवेष्टसाधना-योपासनीयः॥२६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमेश्वर कैसा है यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (विश्वकर्मा) जिसका समस्त जगत् का बनाना क्रियमाण काम और जो (विमनाः) अनेक प्रकार के विज्ञान से युक्त (विहायाः) विविध प्रकार के पदार्थों में व्याप्त (धाता) सब का धारण-पोषण करने (विधाता) और रचने वाला (सन्दृक्) अच्छे प्रकार सब को देखता (परः) और सब से उत्तम है तथा जिसको (एकम्) अद्वितीय (आहुः) कहते अर्थात् जिसमें दूसरा कहने में नहीं आता (आत्) और (यत्र) जिसमें (सप्तऋषीन्) पांच प्राण, सूत्रात्मा और धनञ्जय इन सात को प्राप्त होकर (इषा) इच्छा से जीव (सं, मदन्ति) अच्छे प्रकार आनन्द को प्राप्त होते (उत) और जो (तेषाम्) उन जीवों के (परमा) उत्तम (इष्टानि) सुखसिद्ध करने वाले कामों को सिद्ध करता है, उस परमेश्वर की तुम लोग उपासना करो॥२६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि सब जगत् का बनाने, धारण, पालन और नाश करनेहारा एक अर्थात् जिसका दूसरा कोई सहायक नहीं हो सकता, उसी परमेश्वर की उपासना अपने चाहे हुए काम के सिद्ध करने के लिये करना चाहिये॥२६॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे सर्वज्ञ, सर्वरचक ईश्वर! आप (विश्वकर्मा) विविध जगदुत्पादक हो तथा (विमना:)  विविध (अनन्त) विज्ञानवाले हो, तथा (आद्विहाया) सर्वव्यापक और आकाशवत् निर्विकार, अक्षोभ्य, सर्वाधिकरण हैं। आप ही सब जगत् के (धाता) धारणकर्ता और (विधाता) के विविध तथा विचित्र जगत् के उत्पादक हैं तथा (परम उत) सर्वोत्कृष्ट हैं (सन्दृक्) सबके पाप और पुण्यों को यथावत् देखनेवाले हैं। जो मनुष्य आपकी भक्ति, आपमें विश्वास और आपका सत्कार [पूजा] करते हैं, आपको छोड़के अन्य किसी को लेशमात्र भी नहीं मानते, उन पुरुषों को ही सब इष्टसुख मिलते हैं, औरों को नहीं। आप अपने भक्तों को सुख में ही रखते हैं और वे भक्त भी (तेषाम् इष्टानि समिषा) सम्यक् स्वेच्छापूर्वक (मदन्ति) परमानन्द में ही सदा रहते हैं, कभी दुःख को प्राप्त नहीं होते। आप (परः एकम् आहुः) एक, अद्वितीय हैं, जिस आपके सामर्थ्य में (सप्त ऋषीन्) सात ऋषि, अर्थात् पञ्च प्राण, अन्तःकरण और जीव- ये सब प्रलयविषयक कारणभूत ही रहते हैं। आप जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में निर्विकार आनन्दस्वरूप ही रहते हैं । उस आपकी उपासना करने से हम लोगों को सदा सुख रहता है ॥ ४० ॥ "

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    विषय

    विश्वकर्मा, सबका पोषक राष्ट्र निर्माता । सात प्राणों के समान सातों प्रकृतियों का नियामक । पक्षान्तर में ईश्वर का वर्णनं ।

    भावार्थ

    राजा के पक्ष में- ( विश्वकर्मा ) पूर्वोक्त राष्ट्र के समस्त कार्यों का सम्पादक राजा ( विमनाः ) विविध विज्ञानों से युक्त अथवा विशेष रूप से मननशील होकर ( आत् विहायाः ) फिर स्वयं विविध कार्यों, व्यवहारों में ज्ञानपूर्वक प्राप्त होता है और पुनः ( धाता ) सबका पोषण करने वाला, ( विधाता ) राष्ट्र के विविध अंगों का निर्माता, ( परमा ) सर्वोच्च पदपर विराजमान और ( संदृक् ) समस्त राष्ट्र के कार्यों और प्रजा के व्यवहारों को देखने हारा होता है । ( तेषाम् ) उन प्रजाजनों के ( इष्टानि ) समस्त अभिलषित सुख के पदार्थ ( इषा ) अन्न के सहित उसी के आश्रय पर ( सम् मदन्ति ) हर्ष और आनन्दप्रद होते हैं, वृद्धि को प्राप्त होते हैं ( यत्र ) जहां ( सप्त ऋषीन् ) शरीरगत सातों प्राणों के समान राष्ट्र के मुख्य मन्त्रद्रष्टा सात प्रधानामात्यों को ( परः ) अपने से भी उत्कृष्ट राजा में ( एकम् ) एकाकार हुए( आहुः ) बतलाते हैं। ईश्वरपक्ष में - वह विश्वस्रष्टा, विज्ञानवान्, व्यापक, पालक पोषक, कर्त्ता परम द्रष्टा है। जिसमें समस्त जीवों के ( इष्टानि ) प्राप्य कर्मफल आश्रित हैं । और जिसके आश्रय पर सर्व जीव (इषा ) अन्न तथा कर्म फल द्वारा खूब हर्षित होते हैं। और जहां सातों ( ऋषीन् ) गतिशील प्रकृति के मुख्य विकारों को भी परबह्म में एकाकार हुआ बतलाते हैं । अथवा - ( यत्र तेषाम् हृष्टानि ) जिसके वश में जीवों के इष्ट कर्मफल हैं । ( यत्र सप्त ऋषीन् प्राप्य जीवाः इषा सम्मदन्ति ) और जिसके आधार पर जीव अपने अन्नादि, कर्म फल से तृप्त होते हैं । और ( यः परः ) जो सब से उत्कृष्ट है ( यत् एकम् आहुः ) जिसको एक, अद्वितीय बतलाते हैं । आत्मापक्ष में - आमा विश्वकर्मा है। वह विशेष मन रूप उपकरण वाला, सब में व्यापक, सब प्राणों का पोषक, कर्त्ता, परम द्रष्टा है प्राणों की वाञ्छित चेष्टाएं उसी में आश्रित हैं। और ( इषा ) इसी की इच्छा या प्रेरणा से ( सम्मदन्ति ) भली प्रकार तृप्त होते हैं। जिसमें सातों शीर्ष गत प्राणों को एकाकार मानते हैं। वही सब से पर, उत्कृष्ट है ।

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    विषय

    विश्वकर्मा-विमनाः

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (विश्वकर्मा) = [विश्वं कर्म यस्य] इस सृष्टिरूप कर्मवाले हैं, इस ब्रह्माण्ड के निर्माता हैं । २. (विमनाः) = [विविधं मनो विज्ञानं यस्य - द०] विविध व विशिष्ट ज्ञानवाले हैं। अपनी उत्कृष्ट ज्ञानमयता से ही प्रभु सृष्टि का निर्माण करते हैं। प्रभु के विशिष्ट ज्ञान के कारण ही यह सृष्टि पूर्ण है । ३. (आत्) = और [अपि च] (विहायाः) = वे प्रभु महान् हैं, सर्वव्यापाक हैं। सर्वत्र प्राप्त होने से ही वे सृष्टिरूप कार्य के करनेवाले हैं। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया सम्भव नहीं है। ४. (धाता) = वे प्रभु धर्त्ता व पोषक हैं। ५. (विधाता) = उत्पादक हैं, जीवों को कर्मानुसार शरीरों के देनेवाले हैं । ६. (परमः) = प्रकृति 'पर' है, जीव 'पर - तर ' है और परमात्मा 'परतम' व 'परम' है, सबसे उत्कृष्ट हैं। प्रकृति से पुरुष = जीव उत्कृष्ट है, परन्तु प्रभु जीवों से भी उत्तमपुरुष हैं, इसी से 'पुरुषोत्तम' कहलाते हैं । ७. (उत) = और (सन्दृक्) = वे प्रभु सम्यग् द्रष्टा हैं। अपने उपासकों के योगक्षेम का ध्यान करनेवाले हैं। ८. (तेषाम्) = उन लोगों को ही (इष्टानि) = इष्टसुख प्राप्त होते हैं और वे ही इषा = प्रभु प्रेरणा से (संमदन्ति) = उत्तम आनन्द को अनुभव करते हैं । (यत्र) = जबकि (सप्तऋषीन्) = 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' = कान, नासिका, आँखों व मुख-इन सप्त ऋषियों को पर उस परब्रह्म में (एकम्) = एकीभाव को प्राप्त हुआ हुआ (आहुः) = कहते हैं, अर्थात् जब ये सब इन्द्रियाँ उस उत्कृष्ट परब्रह्म में एकाग्र हो जाती हैं तब प्रभु प्रेरणा के सुनने से ये ध्यानी लोग एक आनन्द - विशेष का अनुभव करते हैं और इन्हें सब इष्टसुख प्राप्त होते हैं। =

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपनी इन्द्रियों को एकाग्र करके उस परमात्मा का चिन्तन करें जो ऐसा करने 'विश्वकर्मा - विमना - विहाया - धाता - विधाता - परम व सन्दृक्' है, जो 'पर' हैं। पर हम प्रेरणा के सुननेवाले होंगे और आनंन्द का अनुभव करेंगे।

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    मराठी (3)

    भावार्थ

    ज्याला कुणाच्या साह्याची आवश्यकता नसते व जो सर्व जगाचे धारण, पालन, संहार करतो अशा परमेश्वराची आपण आपले कार्य सिद्ध होण्यासाठी उपासना केली पाहिजे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात, परमेश्‍वर कसा आहे, हे सांगितले आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (तत्त्ववेत्ता विद्वान सांगत आहे) हे मनुष्यांनो, तो परमेश्‍वर (विश्‍वकर्मा) संपूर्ण जगाचा निर्माता आहे (सृष्ट्युत्यत्ती) त्याचे कार्य आहे), तो (विमना:) अनेक प्रकारच्या ज्ञान विज्ञानाचा ज्ञाता आहे, तोच (विहाया:) विविध पदार्थांमध्ये व्याप्त असून (धाता) सर्वांचे धारण-पोषण करणारा आणि (विधाता) रचयिता आहे, तोच (संदृक्‌) सर्वांना सर्व प्रकारे पाहत असून तोच (पर:) सर्वोत्तम आहे. (विद्वज्जन) त्या एकालाच (एकम्‌) अद्वितीय (आहु:) म्हणतात म्हणजे त्याच्यासारखा दुसरा कोणी नाही. (आत्‌) आणखी असे की (यंत्र) त्या परमेश्‍वरातच (सप्तऋषीन्‌) पंचप्राण, सूत्रात्मा आणि धनंजय या सातांच्या साहाय्याने (इषा) जीव इच्छा करीत (स, मदन्ति) चांगल्याप्रकारे आनंद उषभोगतात (उत्‌) आणि तो परमेश्‍वरच (तेषाम्‌) त्या जीवांच्या (परमा) उत्तम (इष्टानि) इच्छित सुखांची प्राप्ती करून देणारा आहे. हे मनुष्यांनो, तुम्ही त्या परमेश्‍वरची उपासना करा ॥26॥

    भावार्थ

    missing

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    सर्वज्ञ सर्व उत्पादक ईश्वर (विश्वकर्मा) [विविध जगाचा निर्माणकर्ता] आहे व विमनाः विज्ञानकर्ता आहे. आणि (आविहाया) तो सर्वव्यापक व आकाशाप्रमाणे निर्विकार आहे. सर्वांचे स्थिर आश्रयस्थान आहे तोच सर्व जगाचा (धाता) धारणकर्ता आहे (विधाता) या विविध व विचित्र जगाचा उत्पादक आहे. (परम उत) सर्वोत्कृष्ट आहे. (सन्दृक्) सर्वांच्या पाप व पुण्याचा द्रष्टा आहे. जी माणसे त्या ईश्वरावर विश्वास ठेवून त्याची भक्ति व पूजा करतात त्यालाच मानतात दुसऱ्याला मानत नाहीत त्या पुरुषांना सर्व इष्ट सुख मिळते इतरांना मिळत नाही. ईश्वर अशा भक्तांना सुखात ठेवतो व त्याचे भक्त नेहमी सम्यक व स्वेच्छापूर्वक (मदन्ति) परमानन्दामध्ये राहतात त्यांना दुःख प्राप्त होत नाही, परमेश्वर अद्वितीय असल्यामुळे त्याच्या सामर्थ्यान (सप्त ऋषीन्) सप्त लोक अर्थात पंच प्राण अन्तःकरण व जीव, हे सर्व प्रलयामध्ये कारण बनून राहतात. तोच या जगाची उत्पत्ती स्थिती व प्रलय करतो. तो निर्विकार व आनंद स्वरूप आहे. त्याचीच उपासना करण्याने आपण सदैव सुखी राहू शकतो.॥४०॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    God is the Creator of the whole universe, full of knowledge. Ubiquitous Sustainer, Maker, Seer, and foremost of all. He is known as the Incomparable One. In Him the souls controlling the seven rishis live in enjoyment according to their desire. He fulfils their lofty ambition.

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    Meaning

    Vishvakarma is the one lord maker of the world, sole treasure-home of universal knowledge, present in the universal variety of existence, creator and sustainer of the universe, all-seeing universal presence and supreme reality, whom the wise sages call one and absolute, wherein the humans with their five senses, mind and intelligence rejoice and wherein they realise their supreme ambitions.

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    Purport

    O Omniscient I God of gods ! You are the Architectthe Creator of all the different kinds of the worlds and possessor of Infinite wisdom. You are Omnipresent. You are defectless and unchangeable like space. You are imperturbable. You are above all and Support of all.

    You are the upholder of the whole world, the Creater of this multifarious and variegated universe, and the Most Excellent. You are the observer of good and evil deeds of all thoroughly. Those persons who worship You alone, have faith in you and adore you they do not trust anyone except you, in the least, they enjoy their cherished happiness, not the others.

    You keep your devotees in the state of happiness, and the devotees also, always live in the Supreme bliss of their own accord, and never fall in miseries-sorrows and pains. You are God unparalleled (one without a second). Supreme Lord, in whose Power and Might all the five Vital energies, mind and the soul remain inherent at the time of dissolution of the world. You remain unchanged in Most Beatific Blissful state at the time of Creation, Continuance and Dissolution of the world. Only by worshiping You, we can always live in a happy state free from all pains and sorrows. 

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    Translation

    Those, who are looked after by the Universal Architect, mighty of mind, the destroyer, the sustainer, the creator, and the supreme observer, obtain all their desired objects along with food in the world, where the seven seers enjoy. He is one, beyond all, they say. (1)

    Notes

    Viśvakarma, विश्वं करोति य: स:, who creates all; who creates the universe. विश्वं कर्म यस्य य: स:, He whose creation is this universe (or, all, each and everything). Vimanāh, विशिष्टमनाः, mighty of mind. Also, विश्वभूतमनाः, one minded with all the beings. Vihāyāh, विशेषेण जहाति त्यजति इति विहायाः संहर्ता, de stroyer. Dhātā vidhātā, धारयिता , उत्पादक: , sustainer, creator. Sandrk, सम्यक् , द्रष्टा, a vigilant overseer; keen observer. Tesām, येषां भूतानां विश्वकर्मा द्रष्टा तेषां, of those beings, who are looked after by Viśvakarmā. Sapta ṛṣin param ekam āhuḥ, whom they call the one, beyond the reach of the seven seers. The commentators have in terpreted it as : यत्र सप्त ऋषीन् पर परेण विश्वकर्मणा सह एकीभूतान् बुधा वदंति, in that world, where wise people say that the seven seers become one with Viśvakarmā. Seven rsis, in legend, are: Marici, Angira, Atri, Pulastya, Pulaḥa, Kratu and Vasiştha.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ পরমেশ্বরঃ কীদৃশোऽস্তীত্যুপদিশ্যতে ॥
    এখন পরমেশ্বর কেমন, এই বিষয়ে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (বিশ্বকর্মা) যাহার সমস্ত জগতের রচনা করা ক্রিয়মাণ কর্ম এবং যিনি (বিমনাঃ) অনেক প্রকার বিজ্ঞানযুক্ত (বিহায়াঃ) বিবিধ প্রকারের পদার্থে ব্যাপ্ত (ধাতা) সকলের ধারণ-পোষণকারী (বিধাতা) এবং রচনাকারী (সংদৃক্) উত্তম প্রকার সকলকে দেখেন (পরঃ) এবং সর্বাপেক্ষা উত্তম তথা যাহাকে (একম্) অদ্বিতীয় (আহুঃ) বলে অর্থাৎ যাহার মধ্যে অন্যের হস্তক্ষেপ হয় না (আৎ) এবং (য়ত্র) যাহার (সপ্তঋষীন্) পাঁচ প্রাণ, সূত্রাত্মা এবং ধনঞ্জয় এই সাতকে প্রাপ্ত হইয়া (ইষা) ইচ্ছা দ্বারা জীব (সং বদন্তি) উত্তম প্রকার আনন্দ প্রাপ্ত হয় (উত) এবং যিনি (তেষাম্) সেই সব জীবদিগকে (পরমা) উত্তম (দৃষ্টানি) সুখসিদ্ধকারী কর্মকে সিদ্ধ করেন সেই পরমেশ্বরের তোমরা উপাসনা কর ॥ ২৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, সর্ব জগতের রচনাকারী, ধারণ-পালন, নাশকারী এক অর্থাৎ যাহার অন্য কোন সহায়ক হইতে পারে না, সেই পরমেশ্বরের উপাসনা নিজের আকাঙ্ক্ষিত কর্ম সিদ্ধ করিবার জন্য করা দরকার ॥ ২৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বি॒শ্বক॑র্ম্মা॒ বিম॑না॒ऽআদ্বিহা॑য়া ধা॒তা বি॑ধা॒তা প॑র॒মোত সং॒দৃক্ ।
    তেষা॑মি॒ষ্টানি॒ সমি॒ষা ম॑দন্তি॒ য়ত্রা॑ সপ্তऽঋ॒ষীন্ প॒রऽএক॑মা॒হুঃ ॥ ২৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিশ্বকর্মেত্যস্য ভুবনপুত্রো বিশ্বকর্মা ঋষিঃ । বিশ্বকর্মা দেবতা । ভুরিগার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे सर्वज्ञ, सर्वरचक ईश्वर ! तपाईं विश्वकर्मा - विविध जगदुन्पादक हुनुहुन्छ, तथा विमना: = विविध [अनन्त] विज्ञानवान् हुनुहुन्छ, तथा आद्विहाया= सर्व व्यापक र आकाशवत् निर्विकार, अक्षोभ्य, सर्वाधिकरण हुनुहुन्छ, तपाईं नै समस्त जगत् का धाता = धारण कर्ता र विधाता= विविध तथा विचित्र जगत् का उत्पादक हुनुहुन्छ, तथा परम उत= सर्वोत्कृष्ट हुनुहुन्छ, एवं सन्दृक् = सबैका पाप र पुण्य हरु लाई यथावत देखने द्रष्टा हुनुहुन्छ । जुन मानिस तपाईंको भक्ति, तपाईंमा विश्वास र तपाईंको सत्कार [पूजा] गर्दछन्, तपाईंलाई छोडेर अन्य कसैलाई लेश मात्र पनि मान्दैनन् । ति पुरुष हरु लाई मात्रै सबै इष्टसुख उपलब्ध हुन्छ । अरू हरु लाई हुँदैन । तपाईं आफ्ना भक्त हरु लाई सुख मा नै राख्नु हुन्छ । अरू ति भक्तजन पनि तेषाम् इष्टानि समिषा= सम्यक् स्वेच्छा पूर्वक मदन्ति = सदा परमआनन्द मा नै रहन्छन्, कहिल्यै पनि दुःख पाउँदैनन् । तपाईं परः एकम् आहुः =एक अद्वितीय हुनुहुन्छ, तपाईंको सामर्थ्य मा सप्त ऋषीन्=सात ऋषि हरु, अर्थात् पञ्च प्राण, अन्तःकरण र जीव ई सबै प्रलय - विषयक कारण भूत नै रहन्छन् । तपाईं जगत् को उत्पति स्थिति र प्रलय मा निर्विकार आनन्दस्वरूप नै रहनु हुन्छ तेस तपाईंको उपासना गर्नाले हामी हरु लाई सदा सर्वदा सुख रहन्छ । ॥ ४० ॥

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