यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 55
ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
2
समि॑द्धेऽअ॒ग्नावधि॑ मामहा॒नऽउ॒क्थप॑त्र॒ऽईड्यो॑ गृभी॒तः। त॒प्तं घ॒र्म्मं प॑रि॒गृह्या॑यजन्तो॒र्जा यद्य॒ज्ञमय॑जन्त दे॒वाः॥५५॥
स्वर सहित पद पाठसमि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धे। अ॒ग्नौ। अधि॑। मा॒म॒हा॒नः। म॒म॒हा॒न इति॑ ममहा॒नः। उ॒क्थप॑त्र॒ इत्यु॒क्थऽप॑त्रः। ईड्यः॑। गृ॒भी॒तः। त॒प्तम्। घ॒र्म्मम्। प॒रि॒गृह्येति॑ परि॒ऽगृह्य॑। अ॒य॒ज॒न्त॒। ऊ॒र्जा। यत्। य॒ज्ञम्। अय॑जन्त। दे॒वाः ॥५५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धेऽअग्नावधि मामहानऽउक्थपत्रऽईड्यो गृभीतः । तप्तङ्घर्मम्परिगृह्यायजन्तोर्जा यद्यज्ञमयजन्त देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
समिद्ध इति सम्ऽइद्धे। अग्नौ। अधि। मामहानः। ममहान इति ममहानः। उक्थपत्र इत्युक्थऽपत्रः। ईड्यः। गृभीतः। तप्तम्। घर्म्मम्। परिगृह्येति परिऽगृह्य। अयजन्त। ऊर्जा। यत्। यज्ञम्। अयजन्त। देवाः॥५५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
यज्ञः कथं कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यूयं यथा देवा समिद्धेऽग्नौ यद्यं यज्ञमयजन्त, तथा योऽधि मामहान उक्थपत्र ईड्यो गृभीतोऽस्ति, तं तप्तं घर्ममूर्जा परिगृह्यायजन्त॥५५॥
पदार्थः
(समिद्धे) सम्यक् प्रदीप्ते (अग्नौ) पावके (अधि) (मामहानः) अतिशयेन महान् पूजनीयः (उक्थपत्रः) उक्थानि वक्तुं योग्यानि वेदस्तोत्राणि पत्राणि विद्यागमकानि यस्य सः (ईड्यः) ईडितुं स्तोतुमध्येषितुं योग्यः (गृभीतः) गृहीतः (तप्तम्) तापान्वितम् (घर्मम्) अग्निहोत्रादिकं यज्ञम्। घर्म इति यज्ञनामसु पठितम्॥ (निघं॰३.१७) (परिगृह्य) सर्वतो गृहीत्वा (अयजन्त) यजन्तु (ऊर्जा) बलेन (यत्) यम् (यज्ञम्) अग्निहोत्रादिकम् (अयजन्त) यजन्ते (देवाः) विद्वांसः॥५५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्जगदुपकाराय यथा विद्वांसोऽग्निहोत्रादिकं यज्ञमनुतिष्ठन्ति, तथाऽयमनुष्ठातव्यः॥५५॥
हिन्दी (3)
विषय
यज्ञ कैसे करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे (देवाः) विद्वान् जन (समिद्धे) अच्छे जलते हुए (अग्नौ) अग्नि में (यत्) जिस (यज्ञम्) अग्निहोत्र आदि यज्ञ को (अयजन्त) करते हैं, वैसे जो (अधि, मामहानः) अधिक और अत्यन्त सत्कार करने योग्य (उक्थपत्रः) जिसके कहने योग्य विद्यायुक्त वेद के स्तोत्र हैं, (ईड्यः) जो स्तुति करने तथा चाहने योग्य वा (गृभीतः) जिसको सज्जनों ने ग्रहण किया है, उस (तप्तम्) तापयुक्त (घर्मम्) अग्निहोत्र आदि यज्ञ को (ऊर्जा) बल से (परिगृह्य) ग्रहण करके (अयजन्त) किया करो॥५५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि संसार के उपकार के लिये जैसे विद्वान् लोग अग्निहोत्र यज्ञ का आचरण करते हैं, वैसे अनुष्ठान किया करें॥५५॥
विषय
यज्ञ और युद्ध की तुलना ।
भावार्थ
( देवा: ) जिस प्रकार विद्वान् ऋत्विग् लोग ( यत् ) जब ( तप्तम् ) प्रतप्त ( धर्मम् ) सेचन योग्य घृत को ( परिगृह्य ) लेकर ( अयजन्त ) आहुति देते हैं और ( यज्ञम् ) उस पूजनीय परमेश्वर को लक्ष्य करके ( ऊर्जा ) अन्न द्वारा ( समिद्धे अग्नौ ) प्रदीप्त अग्नि में ( अयजन्त ) आहुति देते और यज्ञ करते हैं तब ( अधि मामहान: ) अति अधिक पूजनीय ( उक्थपत्रः ) वेद वचनों द्वारा ज्ञान करने योग्य. ( ईड्यः ) सर्व स्तुति योग्य परमेश्वर ही ( गृभीतः ) ग्रहण किया जाता है अर्थात् यज्ञ में उसी की प्रजा की जाती है । उसी प्रकार ( देवाः ) विजिगीषु वीर पुरुष ( यत् ) जब ( तप्तम् ) अति प्रतप्त, अति क्रुद्ध या शत्रुओं को तपाने में समर्थ ( घर्मम् ) तेजस्वी राजा को ( परिगृह्य ) आश्रय करके ( अयजन्त ) उसका सत्कार करते और उसके आश्रय पर परस्पर मिल जाते हैं और ( अग्नौ समिद्धे ) अग्रणी नेता के अति प्रदीप्त, तेजस्वी हो जाने पर ( यत् ) जब ( यज्ञम् ) संगति स्थान, संग्राम को ( अयजन्त ) करते हैं तब भी ( ईड्यः ) सब के स्तुति योग्य ( उक्थपत्रः ) शासन - आज्ञाओं से प्रजाओं को ज्ञापन या घोषणा करने वाला राजा ही ( अधि मामहानः ) सर्वोपरि पूजनीय रूप से ( गृभीत: ) स्वीकार किया जाता है । शत० ९ । २ । ३ । ९ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । भुरिगार्षी पंक्तिः । पञ्चमः स्वरः ॥
विषय
तप्त धर्म
पदार्थ
पिछले मन्त्र की समाप्ति पर यज्ञों के खूब होने की बात कही है। उसी से प्रस्तुत मन्त्र को प्रारम्भ करते हुए कहते हैं कि अप्रतिरथ (समिद्धे अग्नौ) = खूब दीप्त अग्नि में, यज्ञों के द्वारा उस प्रभु की (अधि-मामहानः) = [ उपरिभावेन देवानामत्यर्थं पूजक :- उ० ] अतिशयेन पूजा करता है। यज्ञों के द्वारा श्रेष्ठतम कर्मों के द्वारा ही वस्तुतः प्रभु की उपासना होती है। हम यज्ञों को अपनाकर प्रभु के निर्देश का पालन करते हैं। २. (उक्थपत्रः) = [उक्थानि पत्रं वाहनं यस्य] यह प्रभु के स्तुतिपरक मन्त्रों को ही अपना वाहन बनाता है। उनपर आरूढ़ होकर यह अपनी जीवन-यात्रा को पूरा करता है। यह प्रभु का स्मरण करता है और जीवन-संग्राम को जारी रखता है। ३. (ईड्य:) = [ईड् = स्तुति, तत्र साधु] स्तुति में उत्तम होता है? इसका प्रभु-स्तवन आडम्बरमात्र न होकर वास्तविक होता है। यह स्तुति से अपने सामने एक लक्ष्य-दृष्टि को उपस्थित करता है। ४. (गृभीतः) = [गृभीतं ग्रहणमस्यास्ति इति - द० ] यह ज्ञान के ग्रहणवाला होता है अथवा मनरूप लगाम को सम्यक्तया पकड़े हुए होता है। ५. ये मन को वश में करनेवाले लोग (तप्तं घर्मम्) = [ तप्= दीप्तौ] खूब दीप्त शक्ति को [ घर्म = शक्ति की उष्णता] (परिगृह्य) = ग्रहण करके (अयजन्त) = सर्वथा यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं। इनका ज्ञान [तप्तं] व इनकी शक्ति [घर्म] दोनों यज्ञों का साधन बनते हैं । ६. (यत्) = जब-तब (देवाः) = ये ज्ञानदीप्त लोग ऊर्जा-बल व प्राणशक्ति के हेतु से (यज्ञम्) = उस यजनीय प्रभु को [यज्ञो वै विष्णुः] (अयजन्त) = अपने साथ सङ्गत करते हैं। इस प्रभु सङ्ग से ही ये अपने अन्दर शक्ति को भरनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - १. यज्ञों द्वारा प्रभु-पूजन होता है । २. प्रभु-स्तवन ही जीवन-यात्रा में वाहन बने। ३. हम उत्तम स्तुति करनेवाले बनें। ४. ज्ञान का ग्रहण करें। ५. ज्ञान- दीप्त शक्ति प्राप्त करके यज्ञशील हों। ६. प्रभु के मेल से अपने में शक्ति का सञ्चार करें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जगाच्या उपकारासाठी जसे विद्वान लोक अग्निहोत्र इत्यादी यज्ञ करतात तसे सर्व माणसांनी अनुष्ठान करावे.
विषय
पुढील मंत्रात यज्ञ कशा रीतीने करावा, या विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (परमेश्वराचा आदेश आहे) हे मनुष्यानो, ज्याप्रमाणे (देवा:) समाजातील विद्वान लोक (समिद्धे) चांगल्या प्रकारे प्रदीप्त (अग्नौ) अग्नीमधे (यत्) हा जो (यज्ञम्) अग्निहोम आदी यज्ञ (अयजन्त) करतात, (त्याप्रमाणे तुम्ही सर्व जणदेखील) हा अग्निहोम की जो (मामहान:) प्रशंसनीय व सत्करणीय कर्म आहे, ते करीत जा. (तसेच यज्ञाच्यावेळी) (उस्थषत्र:) कथन, उच्चारणास उपयुक्त विज्ञानयुक्त वेदमंत्र म्हणत (ईड्य:) स्तवनीय आणि वांछनीय यज्ञ करीत जा. कारण या यज्ञाचा (गृभीत:) सज्जनांनी स्वीकार केलेला आहे. तुम्ही या (तप्तम्) तापयुक्त व प्रज्वलित (धर्मम्) यज्ञाग्नीमधे अग्निहोमादी यज्ञाचा (ऊर्जा) अत्यंत निश्चय वा संकल्पपूर्वक (परिगृह्य) स्वीकार करा आणि (अयजन्त) यज्ञ करीत जा. ॥55॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमा अलंकार आहे. सर्व मनुष्यांसाठी हेच कर्तव्यकर्म आहे की ज्याप्रमाणे विद्वज्जन जगदुपकाराकरिता अग्निहोम आदी यज्ञ करतात, त्याप्रमाणे त्या सर्वांनी देखील यज्ञ अवश्य करावा ॥55॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as the learned, in enkindled fire, perform Agnihotra yajna, so should a highly revered person, the singer of vedic hymns, adorable, lovable sacrificer perform the well lighted yajna, accepting it with vigour.
Meaning
That yajna, adorable, praiseworthy, flying high on the wings of Vaidic verses, accepted and honoured of yore, which the ancient sages performed with libations of boiled ghee into the flaming fire, that same yajna, noble people, you also accept and perform with the same devotion and enthusiasm.
Translation
After the fire-divine has been enkindled, the mighty, praiseworthy and the laudable sacrifice is comprehended. When the enlightened ones perform the sacrifice, in fact they worship the great energy, that is obtained from the heated cauldron. (1)
Notes
Ukthapatraḥ, praiseworthy. Also, उक्धानि शस्त्राणि पत्रं वाहनं यस्य सः, अग्निः यज्ञो वा, whose carrier vehicles are the weapons or the praise songs, the fire or the sacrifice. Ma यज्ञो वाह्यते । Gharmam, यज्ञं, the sacrifice. Also, a cauldron. Grbhitaḥ, गृहीत:,धारित:, accepted; held.
बंगाली (1)
विषय
য়জ্ঞঃ কথং কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
যজ্ঞ কেমন করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমরা যেমন (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (সমিদ্ধে) উত্তম প্রজ্বলিত (অগ্নৌ) অগ্নিতে (য়ৎ) যে (য়জ্ঞম্) অগ্নিহোত্র আদি যজ্ঞকে (অয়জন্ত) করেন তদ্রূপ যে (অধি, মামহানঃ) অধিক এবং অত্যন্ত সৎকার করিবার যোগ্য (উক্থ পত্রঃ) যাহার বলিবার যোগ্য বিদ্যাযুক্ত বেদের স্তোত্র (ইড্যঃ) যাহা স্তুতি করিবার তথা চাহিবার যোগ্য (গৃভীতঃ) অথবা যাহাকে সজ্জনগণ গ্রহণ করিয়াছেন সেই (তপ্তম্) তাপযুক্ত (ধর্মম্) অগ্নিহোত্রাদি যজ্ঞকে (ঊর্জা) বল দ্বারা (পরিগৃহ্য) গ্রহণ করিয়া (অয়জন্ত) করিতে থাক ॥ ৫৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, সংসারের উপকার হেতু যেমন বিদ্বান্গণ অগ্নিহোত্র আদি যজ্ঞের আচরণ করেন তদ্রূপ অনুষ্ঠান করিতে থাকে ॥ ৫৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সমি॑দ্ধেऽঅ॒গ্নাবধি॑ মামহা॒নऽউ॒ক্থপ॑ত্র॒ऽঈড্যো॑ গৃভী॒তঃ ।
ত॒প্তং ঘ॒র্ম্মং প॑রি॒গৃহ্যা॑য়জন্তো॒র্জা য়দ্য॒জ্ঞময়॑জন্ত দে॒বাঃ ॥ ৫৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সমিদ্ধ ইত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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