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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    3

    उप॒ ज्मन्नुप॑ वेत॒सेऽव॑तर न॒दीष्वा। अग्ने॑ पि॒त्तम॒पाम॑सि॒ मण्डू॑कि॒ ताभि॒राग॑हि॒ सेमं नो॑ य॒ज्ञं पा॑व॒कव॑र्णꣳ शि॒वं कृ॑धि॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑। ज्मन्। उप॑। वे॒त॒से। अव॑। त॒र॒। न॒दीषु॑। आ। अग्ने॑। पि॒त्तम्। अ॒पाम्। अ॒सि॒। मण्डू॑कि। ताभिः॑। आ। ग॒हि॒। सा। इ॒मम्। नः॒। य॒ज्ञम्। पा॒व॒कव॑र्ण॒मिति॑ पाव॒कऽव॑र्णम्। शि॒वम्। कृ॒धि॒ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप ज्मन्नुप वेतसेवतर नदीष्वा । अग्ने पित्तमपामसि मण्डूकि ताभिरागहि सेमन्नो यज्ञम्पावकवर्णँ शिवङ्कृधि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप। ज्मन्। उप। वेतसे। अव। तर। नदीषु। आ। अग्ने। पित्तम्। अपाम्। असि। मण्डूकि। ताभिः। आ। गहि। सा। इमम्। नः। यज्ञम्। पावकवर्णमिति पावकऽवर्णम्। शिवम्। कृधि॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ दम्पती कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे अग्ने वह्निरिव विदुषि मण्डूकि स्त्रि! त्वं ज्मन् नदीषु वेतसेऽवतर, यथाऽग्निरपां पित्तमसि, तथा त्वं ताभिरुपागहि, सा त्वं न इमं पावकवर्णं यज्ञं शिवमुपाकृधि॥६॥

    पदार्थः

    (उप) (ज्मन्) ज्मनि भूमौ। अत्र सुपां सुलुग्॰ [अष्टा॰७.१.३९] इति सप्तम्येकवचनस्य लुक्। ज्मेति पृथिवीनामसु पठितम्॥ (निघं॰१।१) (उप) (वेतसे) पदार्थविस्तारे (अव) (तर) (नदीषु) (आ) (अग्ने) वह्निरिव तेजस्विनि विदुषि! (पित्तम्) तेजः (अपाम्) प्राणानां जलानां वा (असि) अस्ति (मण्डूकि) सुभूषिते (ताभिः) अद्भिः प्राणैर्वा (आ) (गहि) आगच्छ (सा) (इमम्) (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) गृहाश्रमाख्यम् (पावकवर्णम्) अग्निवत् प्रकाशमानम् (शिवम्) कल्याणकारकम् (कृधि) कुरु॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। स्त्रीपुरुषौ गृहाश्रमे प्रयत्नेन सर्वाणि कार्याणि संसाध्य शुद्धाचरणेन कल्याणं प्राप्नुयाताम्॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब स्त्री-पुरुष आपस में कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विनी विदुषि (मण्डूकि) अच्छे प्रकार अलङ्कारों से शोभित विदुषि स्त्रि! तू (ज्मन्) पृथिवी पर (नदीषु) नदियों तथा (वेतसे) पदार्थों के विस्तार में (अव, तर) पार हो, जैसे अग्नि (अपाम्) प्राण वा जलों के (पित्तम्) तेज का रूप (असि) है, वैसे तू (ताभिः) उन जल वा प्राणों के साथ (उप, आ, गहि) हमको समीप प्राप्त हो (सा) सो तू (नः) हमारे (इमम्) इस (पावकवर्णम्) अग्नि के तुल्य प्रकाशमान (यज्ञम्) गृहाश्रमरूप यज्ञ को (शिवम्) कल्याणकारी (उप, आ, कृधि) अच्छे प्रकार कर॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री और पुरुष गृहाश्रम में प्रयत्न के साथ सब कार्य्यों को सिद्ध कर शुद्ध आचरण के सहित कल्याण को प्राप्त हों॥६॥

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    विषय

    मंडूकी के दृष्टान्त से प्रजा का वर्णन । उसमें राजा का अवतरण और उसका कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( हिमस्य जरायुणा ) हिम, शीतल जल की जरायु, शैवाल जिस प्रकार तालाब को घेर लेती है और मंडूक आदि उसमें सुख से रहते उसी प्रकार हे ( अग्ने ) अग्ने ! संतापकारिन् ( त्वा ) तुझको ( हिमस्य ) हिम, पाला जिस प्रकार वनस्पतियों का नाश करता, जन्तुओं को कष्ट देता है, उसी प्रकार प्रजाओं के नाशकारी शत्रु के ( जरायुणा ) अन्त करने वाले बल से ( परि व्ययामसि ) हम तुझे चारों ओर से घेर लेते हैं । हे ( पावकः ) अग्नि के समान राज्य-कण्टकों को शोधन करनेहारे ! तू ( अस्मभ्यं शिवः भव ) हमारे लिये कल्याणकारी हो । शत० ९ । १ । २ । २६ ॥ (६)मंडूकी के दृष्टान्त से प्रजा का वर्णन । उसमें राजा का अवतरण और उसका कर्तव्य । भा०-हे ( मण्डूकि ) आनन्द करने, तृप्त करने और भूमि को सुभूषित करने वाली विशेष कलाकौशल समृद्धे ! तू ( ज्मन् उप ) पृथ्वी पर ( अवतर ) उतर आ । और ( वेतसे ) विस्तृत या अपने नाना सूत्रों के फैलने वाले राज्य में ( अवतर ) प्राप्त हो और ( नदीषु ) नदियों के समान प्रभूत , समृद्ध प्रजाओं में ( आ अवतर ) प्राप्त हो । हे ( अग्ने ) राजन् ! अग्रणी नेतः ! ( अपाम् ) समस्त कर्मों, प्रज्ञानों और प्राप्त प्रजाओं का ( पित्तम् ) तेजस्वरूप बल या पालक ( असि ) है | हे ( मण्डूकि ) आनन्द आमोदकारिणि, विद्वत्सभे ! सेने ! तू ( ताभि: ) उन प्रजाओं के साथ, ( आगहि ) प्राप्त हो । ( इमं ) इस ( नः यज्ञं ) हमारे सुव्यवस्थित यज्ञ, संगति करने वाले, व्यवस्थित ( पावकवर्णम् ) पावक पवित्रकारक अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष को अपने नेता रूप से वरण करने वाले राष्ट्र को ( शिवं ) मङ्गलकारी, सुखदायी ( कृधि ) बना। शत० ९ । १ । २ । २७ ॥ गृहस्थ पक्ष में - हे ( मण्डूकि ) सुभूषिते, आनन्दकारिणि, पुत्रेषणा की तृप्तिकारिणि ! स्त्रि ! तू ( ज्मन् ) पृथिवी पर ( वेतसे) प्रजा तन्तु सन्तान को फैलाने वाले पुरुष के आश्रय पर और ( नदीषु ) समृद्धि कारिणी लक्ष्मियों में आकर रह । हे ( अग्ने ) पुरुष ! तू ( अपां ) कर्मों का या इच्छाओं का पालक है । हे स्त्रि ! तू उक्त सब पदार्थों सहित और इस अग्नि के समक्ष स्वीकार किये गये या गार्हपत्याग्नि से प्रकाशमान गृहस्थ यज्ञ को मंगलमय बना । 'वेतसे' -- वयति तन्तून् संतनोति इति वेतसः । द० उ० भा० । वेतसः पुंप्रजननाङ्गम् | वेतस एव वैतसः । वेतसस्यायमिति वा वैतसो वितस्तो भवति । नि० । मण्डूकि-- मंडूका मज्जूका, मज्जनात् मन्दतेर्वा मोदतिकर्मणो मन्दतेर्वा तृप्तिकर्मणः मण्डयतेरिति वैयाकरणः मण्ड एषामोकमिति वा मण्डो मदेर्वा मुदेर्वा । इति निरु० ९ । १ । ५ ॥

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    विषय

    अपां पित्तम्

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र की भावना, अर्थात् प्रभु-प्राप्ति के प्रकरण को ही आगे इस रूप में कहते हैं कि उप-उस परमेश्वर के समीप रहता हुआ तू (ज्मन्) = पृथिवी में (अवतर) = अवतीर्ण हो। 'ज्मा' पृथिवी को कहते हैं 'जमतेर्गतिकर्मणः'=गत्यर्थक 'जम' धातु से यह शब्द बना है, अतः अभिप्राय यह है कि जब तू इस पृथिवी पर शरीर धारण करे तो 'गतिशील' बनना । गतिशीलता तो तेरा अध्यात्म स्वभाव ही हो। २. (उप) = उपासना करता हुआ तू (वेतसे) = बेंत में (अवतर) = अवतीर्ण हो । वेतस की भाँति तुझमें नम्रता हो, अकड़ न हो। अथवा 'वयति तन्तून् सन्तनोति' यज्ञतन्तु का तू विस्तार करनेवाला हो। क्रियाशील बन तेरे कर्म यज्ञात्मक हों। इन उत्तम कर्मों से ही तो तू अपनी शक्तियों का भी विस्तार करेगा। ३. (नदीषु) = [नदते: स्तुतिकर्मणः] विविध नामों के उच्चारण द्वारा प्रभु की स्तवन क्रियाओं में तू (आ) = सर्वथा अवतर, अवतीर्ण हो । कर्मों को करते हुए तुझे प्रभु का विस्मरण न हो जाए। ४. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (अपां पित्तम् असि) = कर्मों का तेज है। क्रियाशीलता ने तुझे तेजस्वी बनाया है। सदा कर्म करने से तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़ी है । ५. अतः हे (मण्डूकि) = उत्तम गुणों से अपने को मण्डित करनेवाले व्यक्ति! (ताभिः) = उन कर्मों से (आगहि) = तू हमें प्राप्त हो । ('स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः') = अपने कर्मों से ही प्रभु की अर्चना करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है । ६. (सः) = वह तू (इमम्) = इस (नः) = हमारे लिए (यज्ञम्) = वेद में प्रतिपादित यज्ञ को, जोकि (पावकवर्णम्) = अग्नि के समान तेजस्वी व (शिवम्) = कल्याणकर है, (कृधि) = कर। यह यज्ञ तुझे तेजस्वी व सुखी करेगा। यज्ञों में निरन्तर प्रवृत्त हुआ तू बुरे कामों से बचा रहेगा, विषय-वासनाओं में न फँसने से तू जहाँ तेजस्वी बनेगा वहाँ औरों का कल्याण सिद्ध करता हुआ अपना भी कल्याण सिद्ध करेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ - १. तू गतिशील, नम्र, यज्ञशील व स्तोता बन। २. कर्मों में लगा रहकर तेजस्वी बन। ३. अपने को सद्गुणों से सुभूषित करके कर्मों द्वारा प्रभु को प्राप्त हो । ४. ये यज्ञ तुझे पावकवर्ण व शिव बनाएँगे।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. स्त्री-पुरुषांनी गृहस्थाश्रमातील सर्व कामे प्रयत्नपूर्वक पूर्ण करावीत व शुद्ध आचरणाने वागावे आणि आपले कल्याण करून घ्यावे.

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    विषय

    स्त्री-पुरुषांनी एकमेकाशी कसे वागावे, याविषयी-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पती वा घरातील वृद्ध पुरुष गृहस्वामिनीला म्हणत आहेत) (अग्ने) अग्नीप्रमाणे तेजस्विनी आणि (मण्डूकि) सुंदर अलंकारांनी सुभूषित हे विदुषी स्त्री, तू (ज्मन्‌) भूमीवर तसेच (नदीषु) नद्यांच्या जलप्रवाहातून तसेच (वेतसे) पसरलेल्या विशाल पदार्थांमधून (वृक्ष, झाडी, झुडपांचे वन यातून (अव, तर) कौशल्याने पार हो ( संकटातून मुक्त हो व आम्हांस मुक्त कर) अग्नी जसा (अपाम्‌) प्राण्यांच्या वा पाण्याच्या (पित्तम्‌) तेजाचे प्रत्यक्ष रुप (असि) आहे (शरीरातील अदृश्‍य प्राणात व जलात अग्नी विद्यमान असतो, तोच आग या रुपाने डोळ्यांना दिसतो) त्या अग्नीप्रमाणे तू (ताभि:) त्या प्राण व जलासह (उत्साहाने व सौम्यपणे) आम्हास (उप आ गहि) प्राप्त हो (आमच्याशी उल्हासित व शांत मनाने वागत जा) (सा) अशी ती म्हणजे तू (न:) आम्हा घरातील पुरुष मंडळीसाठी (पावकवर्णम्‌) अग्नीवत दीप्तीमान (इमम्‌) या (यज्ञम्‌) गृहाश्रमरूप यज्ञात (शिवम्‌) मंगलमय (ठप, आ, कृधि) हो, (गृहाश्रम यशस्वी कर) ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा आहे. पति-पत्नी या दोघांनी प्रयत्नपूर्वक सर्वेकार्ये पूर्ण करीत आपल्या गृहाश्रम शुद्ध आचारणाद्वारे पवित्र व कल्याणकारी करावा ॥6॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O noble and well-decorated woman, live on this earth in the midst of riches, enhancing thy resources. Just as fire is the emblem of the essence of life, so shouldst thou approach us with sweetness and vigour. Make our resplendent domestic life successful.

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    Meaning

    Agni, clad in the brilliant flames of light, come upon the earth, descend in the midst of the earth’s abundance. Descend into the streams of life. Since you are the life and lustre of the waters, come with that life and lustre. Come and bless this yajna of our home with peace and prosperity.

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    Translation

    O fire, descend on the earth, in the reeds and on the rivers. You are the gall of waters. With them, O bright shining damsel, come here. May you make this sacrifice of ours bright-hued and auspicious. (1)

    Notes

    Manduki, सुमंडिते , मंडनप्रिये वा, 0 well-adorned dam sel; or O damsel fond of adorning yourself. The commentators have interpreted it as a female frog. Upa jman, ज्मा इति पृथिवी नाम, पृथिव्यां on the earth. F Upa vetase, in the reeds. It is for the readers to decide whether a sacrifice will be made glorious and beautiful by a damsel or by a she-frog.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ দম্পতী কথং বর্ত্তেয়াতামিত্যুপদিশ্যতে ॥
    এখন স্ত্রী পুরুষ কীভাবে পরস্পর আচরণ করিবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) অগ্নিতুল্য তেজস্বিনী বিদুুষি (মন্ডূকি) উত্তম প্রকার অলঙ্কার সমূহ দ্বারা শোভিত বিদুষি স্ত্রী! তুমি (জ্মন্) পৃথিবীর উপরে (নদীষু) নদী তথা (বেতসে) পদার্থসকলের বিস্তারে (অব, তর) পার হও যেমন অগ্নি (অপাম্) প্রাণ বা জলের (পিত্তম্) তেজের রূপ (অসি) হয় সেই রূপ তুমি (গাভিঃ) সেই জল বা প্রাণ সহ (উপ, আ, গহি) আমাদের সমীপ প্রাপ্ত হও (সা) সুতরাং তুমি (নঃ) আমাদের (ইমম্) এই (পাবকবর্ণম্) অগ্নিতুল্য প্রকাশমান (য়জ্ঞম্) গৃহাশ্রমরূপ যজ্ঞকে (শিবম্) কল্যাণকারী (উপ, আ, কৃধি) উত্তম প্রকার কর ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । স্ত্রী ও পুরুষ গৃহাশ্রমে প্রযত্ন সহ সকল কার্য্যকে সিদ্ধ করিয়া শুদ্ধ আচরণ সহিত কল্যাণ প্রাপ্ত হও ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উপ॒ জ্মন্নুপ॑ বেত॒সেऽব॑ তর ন॒দীষ্বা । অগ্নে॑ পি॒ত্তম॒পাম॑সি॒ মণ্ডূ॑কি॒ তাভি॒রাগ॑হি॒
    সেমং নো॑ য়॒জ্ঞং পা॑ব॒কব॑র্ণꣳ শি॒বং কৃ॑ধি ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উপ জ্মন্নিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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