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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 69
    ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    2

    अग्ने॒ प्रेहि॑ प्रथ॒मो दे॑वय॒तां चक्षु॑र्दे॒वाना॑मु॒त मर्त्या॑नाम्। इय॑क्षमाणा॒ भृगु॑भिः स॒जोषाः॒ स्वर्य्यन्तु॒ यज॑मानाः स्व॒स्ति॥६९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। प्र। इ॒हि॒। प्र॒थ॒मः। दे॒व॒य॒तामिति॑ देवऽय॒ताम्। चक्षुः॑। दे॒वाना॑म्। उ॒त। मर्त्या॑नाम्। इय॑क्षमाणाः। भृगु॑भि॒रिति॒ भृगु॒॑ऽभिः। स॒जोषा॒ इति॑ स॒ऽजोषाः॑। स्वः॑। य॒न्तु॒। यज॑मानाः स्व॒स्ति ॥६९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने प्रेहि प्रथमो देवयताञ्चक्षुर्देवानामुत मर्त्यानाम् । इयक्षमाणा भृगुभिः सजोषाः स्वर्यन्तु यजमानाः स्वस्ति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। प्र। इहि। प्रथमः। देवयतामिति देवऽयताम्। चक्षुः। देवानाम्। उत। मर्त्यानाम्। इयक्षमाणाः। भृगुभिरिति भृगुऽभिः। सजोषा इति सऽजोषाः। स्वः। यन्तु। यजमानाः स्वस्ति॥६९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 69
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्व्यवहार उपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! देवयतां मध्ये प्रथमः पूर्वं प्रेहि, यतो देवानामुत मर्त्यानां त्वं चक्षुरसि, यथेयक्षमाणाः सजोषा यजमाना भृगुभिः सह स्वस्ति स्वर्यन्तु, तथा त्वमपि भव॥६९॥

    पदार्थः

    (अग्ने) विद्वन् (प्र) (इहि) प्राप्नुहि (प्रथमः) आदिमः (देवयताम्) कामयमानानाम् (चक्षुः) दर्शकम् (देवानाम्) विदुषाम् (उत) अपि (मर्त्यानाम्) अविदुषाम् (इयक्षमाणाः) यज्ञं चिकीर्षमाणाः (भृगुभिः) परिपक्वविज्ञानैर्विपश्चिद्भिः (सजोषाः) समानप्रीतिसेवनाः (स्वः) सुखम् (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (यजमानाः) सर्वेभ्यः सुखदातारः (स्वस्ति) कल्याणम्॥६९॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! विद्वद्भिरविद्वद्भिश्च सह प्रीत्योपदेशेन यूयं सुखं प्राप्नुत॥६९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् के व्यवहार का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन्! (देवयताम्) कामना करते हुए जनों के बीच तू (प्रथमः) पहिले (प्रेहि) प्राप्त हो जिससे (देवानाम्) विद्वान् (उत) और (मर्त्यानाम्) अविद्वानों का तू (चक्षुः) व्यवहार देखने वाला है, जिससे (इयक्षमाणाः) यज्ञ की इच्छा करने (सजोषाः) एक-सी प्रीतियुक्त (यजमानाः) सबको सुख देनेहारे जन (भृगुभिः) परिपूर्ण विज्ञान वाले विद्वानों के साथ (स्वस्ति) सामान्य सुख और (स्वः) अत्यन्त सुख को (यन्तु) प्राप्त हों, वैसा तू भी हो॥६९॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! विद्वान् और अविद्वानों के साथ प्रीति से बातचीत करके सुख को तुम लोग प्राप्त होओ॥६९॥

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    विषय

    राजा और पक्षान्तर में उत्तम अध्यात्म ज्ञानी का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! राजन् ! विद्वन् ! ( देवानाम् ) ज्ञान प्रदान करने वाली इन्द्रियों के बीच में ( चक्षुः ) चक्षु के समान समस्त पदार्थों के दिखलाने हारा होकर तू ( देवयताम् ) कामना करने वाले, काम्य-सुखों को चाहने वाले ( मर्त्यानाम् ) मनुष्यों के बीच में तू ( प्रथमः ) सब से मुख्य होकर ( प्र इहि ) आगे २ बढ़ । ( यजमानाः ) यज्ञ करने वाले, दानशील अथवा राष्ट्रों का संगठन करने वाले राजगण भी ( भृगुभि: ) परिपक्व विज्ञान वाले विद्वानों के साथ ( इयक्षमाणाः ) अपना यज्ञ, प्रजा पालन का कार्य करते हुए ( सजोषाः ) परस्पर प्रेम सहित ( स्वस्ति ) कल्याण पूर्वक । ( स्वः यन्तु ) सुख धाम को प्राप्त हों । इसी प्रकार ( यजमानाः ) दानशील गृहस्थ लोग ( भृगुभिः ) पापों को भून डालने वाले, परिपक्क ज्ञानी, तपस्वी विद्वानों के साथ ( इयक्षमाणाः ) अपने अध्यात्म यज्ञ को सम्पादन करते हुए ( स्वस्ति ) सुखपूर्वक ( स्वः यन्तु ) मोक्ष सुख को प्राप्त करें । शत० ९ । २ । ३ । २८ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । भुरिगार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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    विषय

    देवयतां प्रथमः 'भृगुभिः सजोषाः '

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं- (अग्ने) = हे अग्रगति को सिद्ध करनेवाले जीव ! तू (प्रेहि) = आगे बढ़। २. (प्रथमः देवयताम्) = दिव्य गुणों की कामना करनेवालों में तू प्रथम बन। ३. इस संसार में तू (देवानाम्) = सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथिवी, जल, तेज, वायु आदि सब देवों का (चक्षुः) [चष्टे] = देखनेवाला बन। इनका तत्त्वज्ञान प्राप्त कर । इनका तत्त्वज्ञान ही तुझे इनके ठीक उपयोग से स्वस्थ बनाएगा। ४. (उत) = और (मर्त्यानाम्) = मनुष्यों के भी चक्षुः = व्यवहार को तू सम्यक् देखनेवाला बन। उनकी मनोवृत्ति को समझने पर ही तू सबके साथ उत्तमता से वर्त्तता हुआ व्यर्थ के वैर-विरोध से बचा रहेगा । ५. (इयक्षमाणाः) = [यष्टुम् इच्छन्तः] = यज्ञों के करने की इच्छावाले होते हुए तथा (भृगुभिः सजोषा:) = [भ्रस्ज पाके] उत्तम परिपक्व विद्वानों के साथ प्रीतिपूर्वक ज्ञान चर्चाओं का सेवन करते हुए (यजमाना:) = पूजा-सङ्गतीकरण व दान वृत्तिवाले लोग स्वस्ति = रोग व शोकादि से आहत न होते हुए स्वः यन्तु उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति को प्राप्त करें।

    भावार्थ

    भावार्थ - १. हम अग्नि बनें, आगे बढ़ें, दिव्य गुणों का वर्धन करनेवालों में प्रथम हों । २. प्राकृतिक देवों का ज्ञान प्राप्त करें, जिससे उनके ठीक उपयोग से स्वस्थ हों। मनुष्यों का ज्ञान प्राप्त करें, जिससे उनके स्वभाव को समझकर वर्त्तते हुए झगड़ों में न उलझ जाएँ। ३. यज्ञशील बनकर ज्ञानियों के साथ ज्ञानचर्चाओं का सेवन करते हुए स्वस्थ बनकर प्रभु को प्राप्त होनेवाले हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! विद्वान व अविद्वानांबरोबर प्रेमाने वार्तालाप करून तुम्ही सुख प्राप्त करा.

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    विषय

    पुढील मंत्रात विद्वानांच्या आचरणाविषयी-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) निद्वान, (देवयताम्‌) आपल्या (उपदेशाची) कामना करणाऱ्या लोकांना आपण (प्रथम:) सर्वप्रथम (प्रेहि) प्राप्त व्हा. (इच्छुक जिज्ञासूजनांकडे जा) कारण की आपणच (देवानाम्‌) विद्वानांचे (उत्त) आणि मर्त्यानाम्‌) अविद्वानजनांचे आचरण पाहणारे (त्यांवर नियंत्रण ठेवणारे) आहात (इयक्षमाणा:) यज्ञ करण्यास इच्छुक असलेल्या (सजीवा:) सर्वांशी समान प्रीती असणाऱ्या आणि (यजमाना:) सर्वांना सुखी करणाऱ्या (भृगुभि:) पूर्ण ज्ञानी विद्वानांशी (चर्चा करून) (स्वस्ति) सामान्य सुख आणि (स्व:) अत्याधिक सुख (यन्तु) प्राप्त व्हाल (म्हणून आपणही (अतिविद्वानांशी शास्त्रचर्चा करून) अति ज्ञानी व अतिसुखी व्हा) ॥69॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्ही विद्वान तसेच अविद्वान लोकांशी प्रीतीपूर्ण संभाषण करा व त्याद्वारे सदैव व सुख प्राप्त करीत रहा ॥69॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Foremost of those who exert, O learned person, come forward, thou art the eye of the literate and the illiterate. The sacrificers, fain to worship, friendly to all, accordant with the highly learned persons, attain to ordinary and extreme happiness.

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    Meaning

    Agni, man of knowledge and yajna, you are the first among men on way to godliness. You are the eye for the average humans as you have the vision of the men of divinity. May the people of faith and love full of devotion dedicated to yajna and performing yajna with men of knowledge and vision of divinity enjoy peace and happiness and ascend to the heaven of bliss and life divine.

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    Translation

    O adorable Lord, the vision of immortals as well as mortals, may you come before the people desirous of sacrifice. May the sacrificers, willing to perform sacrifices in accord with the fire-producers (bhrgus), reach the auspoicious world of bliss. (1)

    Notes

    Devayatām, देवान् यष्टुं इच्छतां,of the people desirous of performing sacrifice. Cakṣurdevānām uta martyānām, vision of the immor tals as well as of the mortals. Bhrgubhih, परिपक्वविज्ञानैः विपश्चिद्भिः, with highly knowl edgeable learned persons. Also, with the fire-producers.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্বিদ্বদ্ব্যবহার উপদিশ্যতে ॥
    পুনঃ বিদ্বানের ব্যবহারের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) বিদ্বন্! (দেবয়তাম্) কামনা করিয়া ব্যক্তিদিগের মধ্যে তুমি (প্রথমঃ) প্রথম (প্রেহি) প্রাপ্ত হও, যাহাতে (দেবানাম্) বিদ্বান্ (উত) এবং (মর্ত্যানাম্) অবিদ্বান্দিগের তুমি (চক্ষুঃ) ব্যবহার দর্শন কারী হও, যাহাতে (ইয়ক্ষমাণাঃ) যজ্ঞের আকাঙ্ক্ষাকারী (সজোষাঃ) একইরকম প্রীতিযুক্ত (য়জমানাঃ) সকলকে সুখ প্রদাতাগণ (ভৃগুভিঃ) পরিপূর্ণ বিজ্ঞানযুক্ত বিদ্বান্দিগের সহ (স্বস্তি) সামান্য সুখ এবং (স্বঃ) অত্যন্ত সুখকে (য়ন্ত) প্রাপ্ত হউক–তদ্রূপ তুমিও হও ॥ ৬ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! বিদ্বান্ ও অবিদ্বান্দিগের সহ প্রীতিপূর্বক কথাবার্ত্তা বলিয়া সুখকে তোমরা প্রাপ্ত কর ॥ ৬ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অগ্নে॒ প্রেহি॑ প্রথ॒মো দে॑বয়॒তাং চক্ষু॑র্দে॒বানা॑মু॒ত মর্ত্যা॑নাম্ ।
    ইয়॑ক্ষমাণা॒ ভৃগু॑ভিঃ স॒জোষাঃ॒ স্ব᳖র্য়্যন্তু॒ য়জ॑মানাঃ স্ব॒স্তি ॥ ৬ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্ন ইত্যস্য বিধৃতির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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