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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 76
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    2

    प्रेद्धो॑ऽअग्ने दीदिहि पु॒रो नोऽज॑स्रया सू॒र्म्या यविष्ठ। त्वा शश्व॑न्त॒ऽउप॑यन्ति॒ वाजाः॑॥७६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रेद्ध॒ इति॒ प्रऽइ॑द्धः। अ॒ग्ने॒। दी॒दि॒हि॒। पु॒रः। नः॒। अज॑स्रया। सू॒र्म्या᳖। य॒वि॒ष्ठ॒। त्वाम्। शश्व॑न्तः। उप॑। य॒न्ति॒। वाजाः॑ ॥७६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेद्धोऽअग्ने दीदिहि पुरो नो जस्रया सूर्म्या यविष्ठ । त्वाँ शश्वन्तऽउप यन्ति वाजाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रेद्ध इति प्रऽइद्धः। अग्ने। दीदिहि। पुरः। नः। अजस्रया। सूर्म्या। यविष्ठ। त्वाम्। शश्वन्तः। उप। यन्ति। वाजाः॥७६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 76
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे यविष्ठाग्ने! त्वं पुरः प्रेद्धः सन्नजस्रया सूर्म्या नोऽस्मान् दीदिहि शश्वन्तो वाजास्त्वामुपयन्ति॥७६॥

    पदार्थः

    (प्रेद्धः) प्रकृष्टतया प्रदीप्तः (अग्ने) अग्निरिव दुःखदाहकः योगिन् (दीदिहि) कामयस्व (पुरः) प्रथमम् (नः) अस्मान् (अजस्रया) अनुपक्षीणया (सूर्म्या) ऐश्वर्येण (यविष्ठ) अतिशयेन युवन् (त्वाम्) (शश्वन्तः) निरन्तरं वर्त्तमानाः (उप, यन्ति) प्राप्नुवन्तु (वाजाः) विज्ञानवन्तो जनाः॥७६॥

    भावार्थः

    यदा मनुष्याः शुद्धात्मानो भूत्वाऽन्यानुपकुर्वन्ति, तदा तेऽपि सर्वत्रोपकृता भवन्ति॥७६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ) अत्यन्त तरुण (अग्ने) आग के समान दुःखों के विनाश करनेहारे योगीजन! आप (पुरः) पहिले (प्रेद्धः) अच्छे तेज से प्रकाशमान हुए (अजस्रया) नाशरहित निरन्तर (सूर्म्या) ऐश्वर्य्य के प्रवाह से (नः) हम लोगों को (दीदिहि) चाहें (शश्वन्तः) निरन्तर वर्त्तमान (वाजाः) विशेष ज्ञान वाले जन (त्वाम्) आपको (उप, यन्ति) प्राप्त होवें॥७६॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य शुद्धात्मा होकर औरों का उपकार करते हैं, तब वे भी सर्वत्र उपकारयुक्त होते हैं॥७६॥

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    विषय

    तेजस्वी सभापति विद्वानों से युक्त विचारसभा ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्ने ! तेजस्विन् ! तू ( नः पुरः ) हमारे आगे ( अजस्त्रया ) अविनाशी, नित्य ( सूर्म्या ) काष्ठ से जिस प्रकार आग जलती है उसी प्रकार उत्तम उत्साह और तेज: साधनों से ( दीदिहि ) प्रकाशित हो । हे ( यविष्ठ ) सदा बलवान् ! ( त्वाम् ) तुझ ( शश्वन्तः ) सदा के लिये स्थिर ( वाजाः ) अन्नादि ऐश्वर्य और ज्ञानवान् पुरुष ( उपयन्ति ) प्राप्त हों । शत० ९ । २ । ३ । ४० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः । अग्निर्देवता । आर्ष्यु॑ष्णिक् । ऋषभः ॥

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    विषय

    शश्वन्तः वाजाः

    पदार्थ

    १. प्रभु-स्तवन करनेवाला [गृत्स] वासनाओं को वश में करके 'वशिष्ठ' बनता है और प्रभु से कहता है कि (प्रेद्धः) = मेरे हृदय में दीप्त हुए हुए अग्ने हे प्रकाशमय प्रभो ! (दीदिहि) = आप मुझे खूब ही दीप्त कर दीजिए । प्रभु का प्रकाश होते ही हृदय जगमगा उठता है। २. हे प्रभो! आप (नः) = हमारे (पुरः) = आगे (अजस्त्रया सूर्म्या) = अनुपक्षीण प्रकाश से [ सूर्मि = Radiance, lustre ] प्रस्तुत होओ। आपका अनुगामी बनकर मैं निरन्तर आगे बढ़ता चलूँ। हे प्रभो! आप (यविष्ठ) - [यु मिश्रण-अमिश्रण] बुराइयों को दूर करनेवाले और अच्छाइयों का मेरे साथ सम्पर्क करानेवाले हैं। इसी प्रकार तो आपके प्रकाश में मैं उन्नत और उन्नत होता चलता हूँ। ३. हे प्रभो! (त्वाम्) = आपको (शश्वन्तः) = द्रुतगतिवाले, अर्थात् निरन्तर अनालस्य से कर्म में लगे हुए लोग (वाजाः) = [वाज = power] जो शक्ति के पुञ्ज हैं तथा [वाज = sacrifice] त्याग की वृत्तिवाले हैं, वे (उपयन्ति) = समीप प्राप्त होते हैं। प्रभु-प्राप्ति का उपाय यही है कि [क] मनुष्य अपने नियत कर्म में लगा रहे। [ख] शक्तिशाली बने। [ग] त्याग की वृत्तिवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखनेवाले बनेंगे तभी हमारी बुराइयाँ समाप्त होंगी और हम अच्छाइयों को प्राप्त होंगे। हम क्रियाशील बनें, शक्तिशाली हों, त्याग की वृत्ति को अपनाएँ । यही प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जेव्हा माणसे पवित्र होऊन इतरांवर उपकार करतात तेव्हा ते परोपकारी म्हणून प्रसिद्ध होतात व सर्वत्र परोपकारच करतात.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय –

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (यविष्ठ) अत्यंत युवा आणि (अग्ने) अग्नीप्रमाणे दु:खांना जाळणारे हे युवा योगी, आपण (पुर:) आधीच (प्रेद्ध:) श्रेष्ठ तेजामुळे प्रकाश मान आहात. (अजसया) अविनाशी आणि निरंतर मिळणाऱ्या (सूर्म्या) ऐश्‍वर्याचा प्रवाह देण्यासाठी (न:) आमची (दीदिहि) कामना करा (आपल्यामध्ये अविनाशी धन म्हणजे योगविद्या देण्याची क्षमता आहे, म्हणून आपण ते ऐश्‍वर्य आम्हास द्या) तसेच (शाश्‍वन्त:) निरंतर राहणाऱ्या त्या योगज्ञानासाठी (त्याच्या प्राप्तीसाठी) आम्ही (सामान्यजन) (त्वाम्‌) आपणास (उप, यन्ति) प्राप्त होऊ (आपल्या जवळ येऊ) ॥76॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जेव्हा माणूस वा माणसे रस: शुद्धात्मा होऊन इतरांचे भले करतात, तेव्हां त्यांच्या विषयी सर्वत्र उपकारच केले जातात (सर्व जण त्यांना सहाय्य करतात) ॥76॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O most youthful yogi, first enkindled with dignity, with continuous supremacy, long for us. Constantly unto thee come the learned.

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    Meaning

    Agni, brilliant and most youthful power, arise in flames and blaze with incessant waves of light right in front of us. And may a perpetual line of worshipful devotees and a continuous flow of fragrant food come to you in homage.

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    Translation

    Well-kindled, ever-youthful, the glory of the adorable Lord shines before us with undecaying and life-bestowing radiance. To it proceeds our abundant ever-flowing homage, like viands to a sacrifical fire. (1)

    Notes

    Sūrmya, ऐश्वर्येण, with riches and splendour. Also, with the fuel wood. सूर्मी शब्दः काष्ठवाचकः । Śaśvantaḥ, निरंतरभाविन:, perpetual; continuous.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (য়বিষ্ঠ) অত্যন্ত তরুণ (অগ্নে) অগ্নির সমান দুঃখকে বিনাশকারী যোগী পুরুষ! আপনি (পুরঃ) প্রথমে (প্রেদ্ধঃ) উত্তম তেজ দ্বারা প্রকাশমান (অজস্রয়া) নাশ রহিত নিরন্তর (সূর্ম্যা) ঐশ্বর্য্যের প্রবাহ দ্বারা (নঃ) আমাদিগকে (দীদিহি) কামনা করেন, (শশ্বন্তঃ) নিরন্তর বর্ত্তমান (বাজাঃ) বিশেষ জ্ঞানী ব্যক্তি (ত্বাম্) আপনাকে (উপ, য়ন্তি) প্রাপ্ত হইবেন ॥ ৭৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যখন মনুষ্যগণ শুদ্ধাত্মা হইয়া অন্যের উপকার করেন তখন তাহারাও সর্বত্র উপকারযুক্ত হইয়া থাকেন ॥ ৭৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প্রেদ্ধো॑ऽঅগ্নে দীদিহি পু॒রো নোऽজ॑স্রয়া সূ॒র্ম্যা᳖ য়বিষ্ঠ ।
    ত্বাᳬं শশ্ব॑ন্ত॒ऽউপ॑য়ন্তি॒ বাজাঃ॑ ॥ ৭৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    প্রেদ্ধ ইত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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