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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 97
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    क॒न्याऽइव वह॒तुमेत॒वा उ॑ऽअ॒ञ्ज्यञ्जा॒नाऽअ॒भि चा॑कशीमि। यत्र॒ सोमः॑ सू॒यते॒ यत्र॑ य॒ज्ञो घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअ॒भि तत्प॑वन्ते॥९७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒न्या᳖ऽइ॒वेति॑ क॒न्याः᳖ऽइव। व॒ह॒तुम्। एत॒वै। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। अ॒ञ्जि। अ॒ञ्जा॒नाः। अ॒भि। चा॒क॒शी॒मि॒। यत्र॑। सोमः॑। सू॒यते॑। यत्र॑। य॒ज्ञः। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। अ॒भि। तत्। प॒व॒न्ते॒ ॥९७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कन्याऽइव वहतुमेतवाऽउऽअञ्ज्यञ्जानाऽअभि चाकशीमि । यत्र सोमः सूयते यत्र यज्ञो घृतस्य धाराऽअभि तत्पवन्ते॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कन्याऽइवेति कन्याःऽइव। वहतुम्। एतवै। ऊँऽइत्यूँ। अञ्जि। अञ्जानाः। अभि। चाकशीमि। यत्र। सोमः। सूयते। यत्र। यज्ञः। घृतस्य। धाराः। अभि। तत्। पवन्ते॥९७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 97
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    अञ्ज्यञ्जाना वहतुमेतवै कन्या इव यत्र सोमः सूयते, उ यत्र च यज्ञस्तद्या घृतस्य धारा अभिपवन्ते ता अहमभि चाकशीमि॥९७॥

    पदार्थः

    (कन्याऽइव) कुमार्य्य इव (वहतुम्) वहति प्राप्नोति स्त्रियमिति वहतुर्भर्त्ता तम् (एतवै) प्राप्तुम् (उ) वितर्के (अञ्जि) कमनीयरूपम् (अञ्जानाः) ज्ञापयन्तः (अभि) (चाकशीमि) पुनः पुनः प्राप्नोमि (यत्र) (सोमः) ऐश्वर्यसमूहः (सूयते) उत्पद्यते (यत्र) (यज्ञः) (घृतस्य) विज्ञानस्य (धाराः) (अभि) सर्वतः (तत्) (पवन्ते) पवित्रीभवन्ति॥९७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा कन्याः स्वयंवरविधानेन स्वाभीष्टान् पतीन् स्वीकृत्य शोभन्ते, तथा ऐश्वर्य्योत्पत्त्यवसरे यज्ञसमृद्धौ च विदुषां वाचः पवित्रास्सत्यः शोभन्ते॥९७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (अञ्जि) चाहने योग्य रूप को (अञ्जानाः) प्रकट करती हुई (वहतुम्) प्राप्त होने वाले पति को (एतवै) प्राप्त होने के लिये (कन्या इव) जैसे कन्या शोभित होती हैं, वैसे (यत्र) जहां (सोमः) बहुत ऐश्वर्य्य (सूयते) उत्पन्न होता (उ) और (यत्र) जहां (यज्ञः) यज्ञ होता है, (तत्) वहां जो (घृतस्य) ज्ञान की (धाराः) वाणी (अभि, पवन्ते) सब ओर से पवित्र होती हैं, उनको मैं (अभि चाकशीमि) अच्छे प्रकार बार-बार प्राप्त होता हूं॥९७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कन्या स्वयंवर के विधान से अपनी इच्छा के अनुकूल पतियों को स्वीकार करके शोभित होती हैं, वैसे ऐश्वर्य्य उत्पन्न होने के अवसर और यज्ञसिद्धि में विद्वानों की वाणी पवित्र हुई शोभायमान होती हैं॥९७॥

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    विषय

    उनकी कन्याओं से तुलना ।

    भावार्थ

    ( यत्र ) जहाँ ( सोमः सूयते ) सोम का सवन होता है और ( यत्र ) जहां ( यज्ञः ) यज्ञ होता है ( तत् ) वहां ( घृतस्य धारा ) घृत का धाराएं ( पवन्ते ) बहती हैं। इसी प्रकार (यत्र ) जहां ( सोमः ) राष्ट्र प्रेरक राजा का सवन अर्थात् अभिषेक होता है और ( यत्र ) जहां ( यज्ञः ) परस्पर संगति, व्यवस्था से युक्त राजा प्रजा का पालन रूप यज्ञ या करादान और ऐश्वर्यदान रूप यज्ञ होता है। वहां ( घृतस्य ) वीर्य या बल को धारण करने वाली सेनाएं या अधिकार वाली राज्य व्यवस्थाएं, नियम धाराएं ( पवन्ते ) प्रकट होती हैं। मैं घृत की धारा और बल धारक सेनाओं को, ( वहतुम् ) विवाह योग्य पति के प्रति ( एतवै ) आने के लिये उत्सुक ( अञ्जि ) अपने कमनीय स्वरूप सौभाग्य या पूर्ण यौवन के प्रकट करने वाले सुरूप को ( अज्जाना: ) प्रकट करती हुई ( कन्याः इव ) कन्याओं के समान अति उत्सुक ( अभिचाकशीमि ) देखता हूं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋष्यादि पूर्ववत ॥

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    विषय

    सोमाभिषव व यज्ञ [ज्ञानोत्पादन व रक्षण]

    पदार्थ

    १. जैसे (कन्या:) = कुमारियाँ (अञ्जि) = अपने कमनीय रूप को (अञ्जाना:) = प्रकट करती हुई (वहतुम्) = पति को उ एतवै निश्चय से प्राप्त होने के लिए होती हैं, इसी प्रकार ये ज्ञान की वाणियाँ भी अपने प्रकाशमय रूप को प्रकट करती हुई मेरी ओर आती हैं और (अभिचाकशीमि) = मैं इन्हें अपने चारों ओर देखता हूँ। मैं सदा इन ज्ञान की वाणियों से ही घिरा होता हूँ। २. ये (घृतस्य धारा:) = ज्ञान की वाणियाँ (तत् अभि) = उस व्यक्ति की ओर (पवन्ते) = गतिवाली होती हैं (यत्र) = जिस व्यक्ति के जीवन में (सोमः सूयते) = सोम का वीर्य शक्ति का अभिषव किया जाता है, अर्थात् जो सात्त्विक आहार के सेवन से अपने में सोम का उत्पादन करता है और (यत्र यज्ञः) = जिसके जीवन में यज्ञात्मक कर्मों का प्रचलन होता है । एवं ज्ञान की वाणियों की प्राप्ति के लिए सोम का उत्पादन व यज्ञमय जीवन का होना आवश्यक है। सोम की सुरक्षा न होने पर बुद्धिमान्द्य से ज्ञान प्राप्ति सम्भव ही नहीं है और यज्ञों के अभाव में लोभ की वृद्धि होकर उत्पन्न ज्ञान भी नष्ट हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - १. मैं अपने चारों ओर उस ज्ञान को देखूँ जो मुझमें विद्यमान सब शत्रुओं का विनाश करनेवाला बनता है। २. इस ज्ञान के उत्पादन के लिए मैं सोम की रक्षा करूँ, और ३. उत्पन्न ज्ञान की रक्षा के लिए यज्ञात्मक जीवनवाला होऊँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे कन्या स्वयंवर पद्धतीने आपल्या इच्छेनुसार पती प्राप्त करून सुशोभित होतात तशी विद्वानांची वाणी ऐश्वर्य निर्माण करते व यज्ञसिद्धी करताना शोभून दिसते.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय –

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - ज्याप्रमाणे (अज्जि) कमनीय रुप म्हणजे भावी पती (एतवै) प्राप्त करण्यासाठी (कल्या इन) सुंदर कन्या श्रृंगार करून सजतात, त्याप्रमाणे (यत्र) जेथे (सोम:) भरपूर ऐश्‍वर्य शूयते) उत्पन्न होते (उ) आणि (यंत्र) जेथे (यज्ञ:) होतो (तत्‌) त्याठिकाणी ज्या (घृतस्य) (धारा:) ज्ञानाच्या धारा वा वाणी (अभिपरन्ते) सर्वत: पवित्र्य निर्माण करीत असते. मी yadynik वा विद्वान त्या वाणीला (अभिचाकशी मि) वारंवार प्राप्त करतो) (जिथे शब्दाचो समृद्धी आहे आणि वाणी व ज्ञानाची चर्चा होत असते, मी तिथे जात असतो आणि अधिक ज्ञान ग्रहण करीत असतो.) ॥97॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे कुमारी कन्या स्वयंवराच्या आयोजनात आपल्या इच्छानुरूप पुरुषाची पती म्हणून निवड करून सुशोभित होतात, त्याप्रमाणे ऐश्‍वर्य (धन-संपत्ती) प्राप्त होण्याच्या प्रसंगी आणी यज्ञाच्या आयोजनात. विद्वानांची वाणी सुशोभित होते. (विद्वान लोक सामान्यजनांना धनप्राप्तीचे उपाय सांगतात आणि त्यांना उपदेशही देतात) ॥97॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    As maidens deck themselves with gay adornments and exhibit their beauty to join their husbands, so, where prosperity reigns, where yajna is performed, there the intellectual speeches are sanctified on all sides, which I enjoy again and again.

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    Meaning

    Just as a lovely maiden dressed in luxurious finery at her wedding goes to meet her groom, so do the streams of ghrita flow from all sides to meet Agni where yajna is performed and soma is generated for the light and energy of life. I perceive the flow of light and energy and I feel blest.

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    Translation

    I contemplate these streams of mystic butter, as they flow from where the exhilarating experiences come forth, and where the noble works are solemnised. They flow, as a bride decorates herself with ornaments whilst going to the bridegroom. (1)

    Notes

    Kanyāḥ iva vahatum etavāḥ, like maidens going to a bridal feast. Or, maidens going to their husbands. Anji añjānā,कमनीयं रूपं ज्ञापयंत्य: showing offtheir beau tiful appearance or decorations.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(অঞ্জি) কমনীয় রূপকে (অঞ্জানাঃ) প্রকাশ করিয়া (বহতুম্) প্রাপ্ত হওয়ার পতিকে (এতবৈ) প্রাপ্ত হওয়ার জন্য (কন্যা ইব) যেমন কন্যা শোভিত হয় তদ্রূপ (য়ত্র) যেখানে (সোমঃ) বহু ঐশ্বর্য্য (সূয়তে) উৎপন্ন হয় (উ) এবং (য়ত্র) যেখানে (য়জ্ঞঃ) যজ্ঞ হয় (তৎ) সেখানে যে (ঘৃতস্য) জ্ঞানের (ধারাঃ) বাণী (অভি, পবন্তে) সব দিক দিয়া পবিত্র হয় তাহাকে আমি (অভি চাকশীমি) সম্যক্ প্রকার বার বার প্রাপ্ত হই । ঌ৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যেমন কন্যা স্বয়ম্বর বিধান দ্বারা স্বীয় ইচ্ছার অনুকূল পতিদের স্বীকার করিয়া শোভিত হয়, সেইরূপ ঐশ্বর্য্য উৎপন্ন হওয়ার অবসর এবং যজ্ঞসিদ্ধিতে বিদ্বান্দের বাণী পবিত্র হইয়া শোভায়মান হয় ॥ ঌ৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ক॒ন্যা᳖ऽইব বহ॒তুমেত॒বা উ॑ऽঅ॒ঞ্জ্য᳖ঞ্জা॒নাऽঅ॒ভি চা॑কশীমি ।
    য়ত্র॒ সোমঃ॑ সূ॒য়তে॒ য়ত্র॑ য়॒জ্ঞো ঘৃ॒তস্য॒ ধারা॑ऽঅ॒ভি তৎপ॑বন্তে ॥ ঌ৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    কন্যাऽইবেত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । য়জ্ঞপুরুষো দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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