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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 79
    ऋषिः - सप्तऋषय ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः
    2

    स॒प्त ते॑ऽअग्ने स॒मिधः॑ स॒प्त जि॒ह्वाः स॒प्तऽऋष॑यः स॒प्त धाम॑ प्रि॒याणि॑। स॒प्त होत्राः॑ सप्त॒धा त्वा॑ यजन्ति स॒प्त योनी॒रापृ॑णस्व घृ॒तेन॒ स्वाहा॑॥७९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त। ते॒। अ॒ग्ने॒। स॒मिध॒ इति॑ स॒म्ऽइधः॑। स॒प्त। जि॒ह्वाः। स॒प्त। ऋष॑यः। स॒प्त। धाम॑। प्रि॒याणि॑। स॒प्त। होत्राः॑। स॒प्त॒ऽधा। त्वा॒। य॒ज॒न्ति॒। स॒प्त। योनीः॑। आ। पृ॒ण॒स्व॒। घृ॒तेन॑। स्वाहा॑ ॥७९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त तेऽअग्ने समिधः सप्त जिह्वाः सप्त ऋषयः सप्त धाम प्रियाणि । सप्त होत्राः सप्तधा त्वा यजन्ति सप्त योनीरापृणस्व घृतेन स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त। ते। अग्ने। समिध इति सम्ऽइधः। सप्त। जिह्वाः। सप्त। ऋषयः। सप्त। धाम। प्रियाणि। सप्त। होत्राः। सप्तऽधा। त्वा। यजन्ति। सप्त। योनीः। आ। पृणस्व। घृतेन। स्वाहा॥७९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 79
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन्! यथाग्नेः सप्त समिधः सप्त जिह्वाः सप्तर्षयः सप्त प्रियाणि धाम सप्त होत्राश्च सन्ति, तथा ते तव सन्तु। यथा विद्वांसस्तमग्निं सप्तधा यजन्ति, तथा त्वा यजन्तु। यथाऽयमग्निर्घृतेन स्वाहा सप्त योनीरापृणते तथा त्वमापृणस्व॥७९॥

    पदार्थः

    (सप्त) सप्त संख्याकानि गायत्र्यादीनि छन्दांसि (ते) तव (अग्ने) तेजस्विन् विद्वन् (समिधः) प्रदीपकाः (सप्त, जिह्वाः) काल्यादयः सप्त संख्याका ज्वालाः (सप्त, ऋषयः) प्राणादयः पञ्च देवदत्तधनञ्जयौ च (सप्त, धाम) जन्मनामस्थानधर्मार्थकाममोक्षाख्यानि धामानि (प्रियाणि) (सप्त, होत्राः) सप्त ऋत्विजः (सप्तधा) सप्तभिः प्रकारैः (त्वा) त्वाम् (यजन्ति) संगच्छन्ते (सप्त, योनीः) चितीः (आ) (पृणस्व) सुखी भव (घृतेन) आज्येन (स्वाहा)॥७९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेन्धनैरग्निर्वर्धते तथा विद्यादिशुभगुणैः सर्वे मनुष्या वर्धन्ताम्। यथा विद्वांसोऽग्नौ घृतादिकं हुत्वा जगदुपकुर्वन्ति, तथा वयमपि कुर्याम॥७९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वन्! जैसे आग के (सप्त, समिधः) सात जलाने वाले (सप्त, जिह्वाः) वा सात काली कराली आदि लपटरूप जीभ वा (सप्त, ऋषयः) सात प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, देवदत्त, धनञ्जय वा (सप्त, प्रियाणि, धाम) सात पियारे धाम अर्थात् जन्म, स्थान, नाम, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष वा (सप्त, होत्राः) सात प्रकार के ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने वाले हैं, वैसे (ते) तेरे हों, जैसे विद्वान् उस अग्नि को (सप्तधा) सात प्रकार से (यजन्ति) प्राप्त होते हैं, वैसे (त्वा) तुझको प्राप्त होवें, जैसे यह अग्नि (घृतेन) घी से और (स्वाहा) उत्तम वाणी से (सप्त, योनीः) सात संचयों को सुख से प्राप्त होता है, वैसे तू (आ, पृणस्व) सुख से प्राप्त हो॥७९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे र्इंधन से अग्नि बढ़ता है, वैसे विद्या आदि शुभगुणों से समस्त मनुष्य वृद्धि को प्राप्त होवें, जैसे विद्वान् जन अग्नि में घी आदि को होम के जगत् का उपकार करते हैं, वैसे हम लोग भी करें॥७९॥

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    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्नि के समान उज्ज्वल तेजस्विन् ! ( ते ) तेरे ( सप्त समिधः ) अग्नि के समान सात समिधाएं हैं अर्थात् अमात्यादि सात प्रकृतियां तेरी तेजोवृद्धि का कारण हैं । ( सप्त ऋषयः ) राष्ट्र के कार्यों का निरीक्षण करने वाले वे सात ही 'ऋषि' हैं, वे मन्त्रद्रष्टा, गुप्त मन्त्रणार्थ अमात्य हैं । ( सप्त प्रियाणि धाम ) सात ही प्रिय तेज या धारणा सामर्थ्य हैं। वही तेरे ( सप्त होत्राः ) सात होत्र, यज्ञ के ७ होताओं के समान राष्ट्र के सात अंग हैं । वे सातों ( त्वा ) तुझ को ( सप्तधा ) सात तरह से ( यजन्ति ) प्राप्त होते हैं तू उन ( सप्त योनी: ) सातों स्थानों या पदाधिकारों को ( घृतेन ) अपने तेज से ( स्वाहा ) उत्तम रीति से ( आपृणस्व ) पूर्ण कर । शत० ९ । २ । ३ । ४४ ॥ होत्राः -- ऋतवो वा होताः । रश्मयो वाव होत्राः । अङ्गानि वा होत्राः ॥ गो० उ० ६ । ६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । आर्षी जगती । निषादः । सप्त ऋषयो ऋषयः ॥

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    विषय

    सप्त

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में 'चित्तिं जुहोमि' शब्दों से अपने में ज्ञान की आहुति देने का उल्लेख है। इस ज्ञानयज्ञ के लिए प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि हे (अग्ने) = अपने को ज्ञान से प्रकाशित करनेवाले जीव! अपने अन्दर ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाले जीव ! (ते) = तेरी (सप्त समिध:) = सात प्राण ही समिधाएँ हैं। अग्नि को समिधाएँ समिद्ध करती हैं, तेरे ज्ञानाग्नि को सात प्राण [प्राणा वाव इन्द्रियाणि, कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ] समिद्ध करते हैं, अतः ये प्राण ही उस अग्नि की समिधाएँ हैं [प्राणा वै समिधः प्राणा ह्येते समिन्धते श० ९ |२| ३ | ४४ ] । २. (सप्त जिह्वा:) = सात ही इस ज्ञानाग्नि की ज्वालाएँ हैं । 'महत्तत्व' का ज्ञान एक ज्वाला है। तो ' अहंकार' का ज्ञान दूसरी ज्वाला है और 'पंचतन्मात्राओं' का ज्ञान अगली पाँच ज्वालाएँ हैं। ये सात ही प्रकृति - विकृतियाँ हैं, इनका ज्ञान ज्ञानाग्नि की सप्त ज्वाला के रूप से यहाँ कहा गया है। ३. (सप्त ऋषय:) = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मन तथा बुद्धि ये सात ऋषि इस ज्ञानयज्ञ को चलानेवाले हैं। ४. (सप्त धाम प्रियाणि) = सात तेरे प्रियधाम हैं। यह ज्ञान वेद के सात गायत्र्यादि छन्दों में रक्खा गया है, अतः ये सात छन्द उस ज्ञान के प्रिय निवास स्थान हैं। [छन्दांसि वा अस्य सप्त धाम प्रियाणि श० ९ |२| ३ | ४४ । ] ५. (सप्त होत्रा:) = ये वेद की गायत्र्यादि सात छन्दों में विभक्त सात वाणियाँ (सप्तधा) = सात प्रकार से (त्वा यजन्ति) = तेरे साथ सङ्गत होती हैं। ६. तू इन (सप्त योनी:) = ज्ञान की उत्पत्ति की कारणभूत सात वाणियों को (घृतेन) = मलों के क्षरण व दीप्ति के द्वारा (आपृणस्व) = [ आपूरयस्व - उ० ] अपने में पूरित कर। ७. (स्वाहा) = इस अपने में आपूरणरूप क्रिया के लिए तू [स्व] अपना [हा] त्याग करनेवाला बन। जितनी जितनी त्यागवृत्ति बढ़ेगी उतना उतना ही तू ज्ञान को अपने में आपूरित करने में समर्थ होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राण ज्ञानाग्नि को समिद्ध करते हैं, क्योंकि इन प्राणों के द्वारा इन्द्रियों के मल दग्ध होकर इन्द्रियाँ ज्ञानयज्ञ को करने में अधिक समर्थ हो जाती हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे इंधनाने अग्नी प्रदीप्त होतो त्याप्रमाणे विद्या इत्यादी शुभ गुणांनी सर्व माणसांची उन्नती व्हावी. जसे विद्वान लोक अग्नीत तुपाची आहुती टाकून जगावर उपकार करतात तसे आपण सर्व लोकांनीही करावे.

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    विषय

    पुन्हा पुढील मंत्रात तोच विषय प्रतिपादित आहे –

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्वान महोदय, अग्नीला (सप्त समिधा) जाळणाऱ्या सात (सप्त जिव्हा:) काली, कराली आदी सात ज्वाळा रुप जिव्हा आहेत (सप्तऋषय:) प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, देवदत्त धनंजय हे सात प्राण वायू आहेत (जो प्रत्येक जीवामधे चैतन्य आणतो असा सात प्रकारचा वायू अथवा अग्नी (शक्ती प्रत्येक शरीरात असतो) या अग्नीचे प्रिय असे सात स्थान आहेत, अर्थात्‌ जन्म, स्थान, नाम, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष (अग्नीमुळेच हे सर्व प्राप्त करण्यासाठी जीव धडपडतो) (सप्त होत्रा:) विविध ऋतूमधे यज्ञ करणारे सात याज्ञिक आहेत, हे सर्व, हे विद्वान, तुझे व्हावेत (तुझ्यासाठी लाभकारी व्हावेत) ज्याप्रमाणे विद्वान लोक अग्नीत (सप्तधा) सात प्रकारे (यजन्ति) यज्ञ करतात (वा सात प्रकारे त्यापासून उपयोग घेतात) त्याप्रमाणे हे विद्वान, करतात (वा सात प्रकारे त्यापासून उपयोग घेतात) उत्तम वाणीद्वारा (मंत्र (त्वा) तुलाही ते लाभ प्राप्त व्हावेत. हा अग्नी (स्वाहा) उत्तम वाणीद्वारा (मंत्र उच्चारणाद्वारा) (सप्त योनी:) सप्त संचयांद्वारा प्राप्त होतो, त्याप्रमाणे तू देखील (आ पृणस्व) सुखाने त्यास प्राप्त कर. ॥79॥

    भावार्थ

    भावार्थ : या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे लाकडू-सरपणामुळे अग्नी वाढतो, तद्वत विद्या आदी शुभ गुणांमुळे सर्व माणसे उन्नती प्राप्त करू शकतात. ज्याप्रमाणे विद्वज्जन अग्नीमधे तूप आदी पदार्थ टाकून जगावर उपकार करतात, तद्वत आम्ही (सामान्यजनांनीदेखील) केले पाहिजे ॥79॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O sage, seven breaths are thy fuel, seven flames are thy flames of knowledge, seven organs of perception are thy sources of wisdom. Thou hast seven beloved mansions. Seven priests in sevenfold manner pay thee worship. With knowledge and fine speech fill full these seven sources of learning.

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    Meaning

    Agni, seven are the samidhas (sticks of sacred fuel) whereby you rise and shine. Seven are your tongues of flame whereby you devour the food. Seven are the Rishis, visionaries of knowledge and piety who invoke you for homage. Seven are your darling places, contexts, wherein you love to shine and play. Seven are the priests who seven-ways do homage and seven-fold extend your blessings. Seven are the places, vedis, where from you manifest and grow. Fill all these places with ghee and your blessings, grow and prosper and let us too grow and prosper. This is the divine voice.

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    Translation

    O fire-divine, seven are your kindling woods; seven are your tongues; seven are your seers; Seven are your pleasing abodes; seven are your priests; they worship you in seven different manners. May you fill the seven wombs with fertilizing water. Svaha. (1)

    Notes

    Samidhaḥ, समिंधना: प्रदीपका:, that which fuels. 'प्राणा: वै समिधः प्राणाः ह्येत समिन्धते', vital breaths are verily the fuel sticks, as they enkindle it (Satapatha, IX. 2. 3. 44). According to Dayananda, the seven metres, gāyātrī etc. are seven fuel sticks. Sapta jihväḥ, seven tongues. काली कराली च मनोजवा च विलोहिता चापि सधूम्रवर्णा । स्फुलिंगिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वा:'(Mundak Upa. I. 2). Sapta ṛṣayah, seven seers. Marici etc. seven ṛṣis. Accord ing to Dayananda, Prana, Apāna, Vyäna, Samāna, Udāna, Devadatta and Dhananjaya, are seven rsis. Sapta dhama, abodes. Seven metres, gayatrietc. छंदाᳩसि वा अस्य सप्त धाम प्रियाणि', the metres are its seven pleasing abodes. (Satapatha, IX. 2. 3. 44). According to Dayananda,, नाम, स्थान, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, are seven pleasing abodes. Sapta hotrāḥ, सप्त होतार:, seven priests. Hotā, Praśāstā, Brāhmaṇācchainsi, Potā, Neṣṭā, Agnidhra and Acchāvāk, are seven priests. Saptadha yajanti, worship you with seven types of sacri fices. Agniștoma, Atyagnistoma, Ukthya, Sodaṣī, Atirātra, Aptoryāma, and Vājapeya are the seven types of sacrifices. Sapta yoniḥ, seven wombs. Seven layers of bricks (चिति) in the altar are seven wombs.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) তেজস্বী বিদ্বন্! যেমন অগ্নির (সপ্ত, সমিধঃ) সাত দহনশীল (সপ্ত, জিহ্বাঃ) বা সাত কালী, করালী আদি শিখারূপ জিহ্বা বা (সপ্ত ঋষয়ঃ) সাত প্রাণ, অপান, উদান, সমান, ব্যান, দেবদত্ত, ধনঞ্জয় অথবা (সপ্ত, প্রিয়াণি, ধাম) সাত প্রিয় ধাম অর্থাৎ জন্ম, স্থান, নাম, ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষ অথবা (সপ্ত, হোত্রাঃ) সাত প্রকারের ঋতু ঋতুতে যজ্ঞকারী হয় সেইরূপ (তে) তোমার হউক, যেমন বিদ্বান্ সেই অগ্নিকে (সপ্তধা) সাত প্রকারে (য়জন্তি) প্রাপ্ত হয় তদ্রূপ (ত্বা) তোমাকে প্রাপ্ত হই, যেমন এই অগ্নি (ঘৃতেন) ঘৃত দ্বারা এবং (স্বাহা) উত্তম বাণী দ্বারা (সপ্ত, য়োণীঃ) সাত সঞ্চয়কে সুখ দ্বারা প্রাপ্ত হয় সেইরূপ তুমি (আ, পৃনস্ব) সুখ দ্বারা প্রাপ্ত হও ॥ ৭ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন ইন্ধন দ্বারা অগ্নি বৃদ্ধি পায়, যেমন বিদ্যাদি শুভগুণের দ্বারা সমস্ত মনুষ্য বৃদ্ধি লাভ করে, যেমন বিদ্বান্গণ অগ্নিতে ঘৃত আদিকে হোম দ্বারা জগতের উপকার করে, সেইরূপ আমরাও করি ॥ ৭ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স॒প্ত তে॑ऽঅগ্নে স॒মিধঃ॑ স॒প্ত জি॒হ্বাঃ স॒প্তऽঋষ॑য়ঃ স॒প্ত ধাম॑ প্রি॒য়াণি॑ ।
    স॒প্ত হোত্রাঃ॑ সপ্ত॒ধা ত্বা॑ য়জন্তি স॒প্ত য়োনী॒রা পৃ॑ণস্ব ঘৃ॒তেন॒ স্বাহা॑ ॥ ৭ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সপ্ত ত ইত্যস্য সপ্তঋষয় ঋষয়ঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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