यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 17
य प॑रि॒धिं प॒र्य्यध॑त्था॒ऽअग्ने॑ देवप॒णिभि॑र्गु॒ह्यमा॑नः। तं त॑ऽए॒तमनु॒ जोषं॑ भराम्ये॒ष मेत्त्वद॑पचे॒तया॑ताऽअ॒ग्नेः प्रि॒यं पाथो॑ऽपी॑तम्॥१७॥
स्वर सहित पद पाठयम्। प॑रि॒धिम्। परि॒। अध॑त्थाः। अग्ने॑। दे॒व॒। प॒णिभि॒रिति॑ प॒णिऽभिः॑। गु॒ह्यमा॑नः। तम्। ते॒। ए॒तम्। अनु॑। जोष॑म्। भ॒रा॒मि॒। ए॒षः। मा। इत्। त्वत्। अ॒प॒। चे॒तया॑तै। अ॒ग्नेः। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपी॑तम् ॥१७॥
स्वर रहित मन्त्र
यं परिधिम्पर्यधत्थाऽअग्ने देव पाणिभिर्गुह्यमानः । तन्तऽएतमनु जोषम्भराम्येषनेत्त्वदपचेतयाताऽअग्नेः प्रियम्पाथो पीतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
यम्। परिधिम्। परि। अधत्थाः। अग्ने। देव। पणिभिरिति पणिऽभिः। गुह्यमानः। तम्। ते। एतम्। अनु। जोषम्। भरामि। एषः। मा। इत्। त्वत्। अप। चेतयातै। अग्नेः। प्रियम्। पाथः। अपीतम्॥१७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे अग्ने जगदीश्वर! एष देवपणिभिर्गुह्यमानस्त्वं यमेतं जोषं परिधिं पर्य्यधत्थाः सर्वतो दधासि तमित् त्वामहमनुभरामि। अहं त्वा मापचेतयातै कदाचिद्विरुद्धो मा भवेयम्। मया तवाग्नेः सृष्टौ यत् प्रियं पाथोऽपीतं तस्मादहं मा कदाचितपचेतयातै। इत्येकः॥ हे जगदीश्वर! ते तव सृष्टौ योऽयं देवपणिभिर्गुह्यमान एषोऽग्निर्यं परिधिं जोषं पर्य्यधत्थाः सर्वतो दधाति, तमित्तमहमनुभरामि, तस्मात् कदाचिन्माऽपचेतयातै मया यदस्याग्नेः प्रियं पाथोऽपीतं तदहं जोषं नित्यमनुभरामीति द्वितीयः॥१७॥
पदार्थः
(यम्) एतद्गुणविशिष्टम् (परिधिम्) परितः सर्वतो धीयते यस्मिँस्तम् (पर्य्यधत्थाः) सर्वतो दधामि दधाति वा। अत्र लडर्थे लङ्, पक्षे व्यत्ययश्च (अग्ने) सर्वत्र व्यापकेश्वर! भौतिको वा (देवपणिभिः) देवानां दिव्यगुणवतामग्निपृथिव्यादीनां विदुषां वा पणयो व्यवहाराः स्तुतयश्च ताभिः (गुह्यमानः) सम्यक् व्रियमाणः (तम्) परिधिम् (ते) तव (एतम्) यथोक्तम् (अनु) पश्चादर्थे। अन्विति सादृश्यापरभावं प्राह (निरु॰१.३) (जोषम्) जुष्यते प्रीत्या सेव्यते तम् (भरामि) धारयामि (एषः) परिधिरहं वा (मा) प्रतिषेधे (इत्) एव (त्वत्) अन्तर्यामिनो जगदीश्वरात् तस्मादग्नेर्वा (अप) दूरार्थे (चेतयातै) चेतयेत्। चिती संज्ञाने इति ण्यन्तस्य लेटः प्रथमपुरुषस्यैकवचने प्रयोगोऽयम् (अग्नेः) जगदीश्वरस्य भौतिकस्य वा (प्रियम्) प्रीतिजनकम् (पाथः) पाति शरीरमात्मानं च येन तत्तदन्नम्। अन्ने च (उणा॰४.२०४) अनेन पातेरन्नेऽसुन् प्रत्ययः, थुडागमश्च (अपीतम्) अपि संयोगे। अपीति संसर्गं प्राह (निरु॰१.३) इतं प्राप्तम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.८.३.२२) व्याख्यातः॥१७॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैर्यः प्रतिवस्तुषु व्यापकत्वेन धारको विद्वद्भिः स्तोतव्यः संप्रीत्या नित्यमनुसेवनीयः। यतस्तदाज्ञापालनेन प्रियं सुखं प्राप्नुयुः। सोऽयमीश्वरेण प्रकाशदाहवेगगुणादिसहितो मूर्त्तद्रव्यानुगतोऽग्नी रचितस्तस्मान्मनुष्यैः कलाकौशलादिषु प्रयोजितादग्नेर्व्यवहाराः संसाधनीयाः, यतः सुखानि सिध्येयुः। यत्पूर्वेण मन्त्रेण वृष्ट्यादिसाधकत्वमुक्तं तस्यानेन व्यापकत्वं प्रकाशितमिति संगतिः॥१७॥
विषयः
सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे अग्ने!=जगदीश्वर सर्वत्र व्यापकेश्वर ! एषः परिधिः देवपणिभिः देवानां दिव्यगुणवतां विदुषां पणयो व्यवहारा: स्तुतयश्च ताभि गुह्यमानः सम्यग् व्रियमाणः त्वं यम् एतद् गुणविशिष्टम् एवं यथोक्तं जोषं जुष्यते प्रीत्या सेव्यते तं परिधिं परितः सर्वतो धीयते यस्मिँस्तं पर्य्यधत्थाः=सर्वतो दधासि । तं परिधिम् इद् एव त्वामहमनुभरामि पश्चाद् धारयामि।
अहं [त्वत्] अन्तर्यामिनो जगदीश्वरात् माऽप- चेतयात कदाचिद्विरुद्धो मा भवेयम्,
मया [ते]=तव अग्ने:=जगदीश्वरस्य सृष्टौ यत् प्रियं प्रीतिजनकं पाथः पाति शरीरमात्मानञ्च येन तत्ततदन्नम् अपीतं संयोगेन प्राप्तं, तस्मादहं मा कदाचिदपचेतयातै। इत्येकः ॥
हे [अग्ने!] =जगदीश्वर ते=तव सृष्टौ यः [एषः]=अयमहं देवपणिभिः दिव्यगुणवतामग्निपृथिव्यादीनां पणयो व्यवहाराश्च ताभिः गुह्यमानः सम्यग् ब्रियमाण एषः अहम्, अग्निः यं एतद्रुजविशिष्टं परिधिं परितः सर्वतो धीयते यस्मिँस्तं जोषं जुष्यते प्रीत्या सेव्यते तं पर्य्यधत्थाः=सर्वतो दधाति, तं परिधिम् इद् एव तमेषाऽहमनुभरामि पश्चाद् धारयामि, तस्मात् कदाचिन्माऽपचेतयातै चेतयेत् ।
मया यदस्याऽग्नेः भौतिकस्य प्रियं प्रीतिजनकं पाथः पाति शरीरमात्मानञ्च येन उत्ततदन्नम् अपीतं संयोगेन प्राप्तं, तदहं जोषं जुष्यते प्रीत्या सेव्यते तं नित्यमनुभरामि पश्चाद् धारयामि ॥ इति द्वितीयः ॥ २। १७ ॥
पदार्थः
(यम्) एतद् सुणविशिष्टम् (परिधिम्) परितः सर्वतो धीयते यस्मिँस्तम् (पर्यधत्थाः) सर्वतो दधासि दधाति वा । अत्र लडर्थे लङ् पक्षे व्यत्ययश्च (अग्ने) सर्वत्र व्यापकेश्वर ! भौतिको वा (देवपणिभिः) देवानां दिव्यगुणवतामग्निपृथिव्यादीनां विदुषां वा पणयो व्यवहाराः स्तुतयश्च ताभिः (गुह्यमानः) सम्यक् ब्रियमाणः (तम्) परिधिम् (ते) तव (एतम्) यथोक्तम् (अनु) पश्चादर्थे । अन्विति सादृश्यापर भावं प्राह ॥ निरु० १ ॥ ३ ॥ (जोषम्) जुष्यते प्रीत्या सेव्यते तम् (भरामि) धारयामि (एषः) परिधिरहं वा (मा) प्रतिषेधे (इत्) एव (त्वत्) अन्तर्यामिनो जगदीश्वरात्तस्मादग्ने (अप) दूरार्थे (चेतयातै) चेतयेत् । चिती संज्ञाने इति ण्यन्तस्य लेटः प्रथमपुरुषस्यैक रचने प्रयोगाऽयम् (अग्नेः) जगदीश्वरस्य भौतिकस्य वा (प्रियम्) प्रीतिजनकम् (पाथः) पाति शरीरमात्मानं च येन तत्तदन्नम् । अन्ने च ॥ उ० ४ । २०५ ॥ अनेन पातेरन्नेऽसुन्प्रस्ययः थुडागमश्च (अपीतम्) अपि संयोगे । अपीति संसर्ग प्राह ॥
निरु० १॥ ३ ॥ इतं प्राप्तम् ॥ अयं मंत्रः श० १।८ । ३ । २२ व्याख्यातः ॥ १७ ॥
भावार्थः
[ हे अग्ने=जगदीश्वर ! "देवपाणिभिर्गुह्यमानस्त्त्वं.....परिधिं पर्यधत्थाः=सर्वतो दधासि]
अत्र श्लेषालङ्कारः॥ सर्वैर्मनुष्यैर्यः प्रतिवस्तुषु व्यापकत्वेन धारको, विद्वद्भिः स्तोतव्यः स प्रीत्या नित्यमनुसेवनीयः ।
[अहं [त्वत् ] माऽपचेतयातै=कदाचिद् विरुद्धो मा भवेयम्, प्रिय पाथोऽपीतं...]
यतस्तदाज्ञापालनेन प्रियं सुखं प्राप्नुयुः ।
[हे [अग्ने]=जगदीश्वर ! तव सृष्टौ यः...अग्निर्यं परिधिं जोषं पर्यधत्थाः=सर्वतो दधाति तं...अनुभरामि]
सोऽयमीश्वरेण प्रकाशदाहवेगगुणादिसहितो मूर्त्तद्रव्यानुगतोऽग्नी रचितस्तस्मान्मनुष्यैः कलाकौशलादिषु प्रयोजितादग्नेर्व्यवहाराः संसाधनीयाः ।
[मया' 'प्रियं पाथोऽपीतं--]
यतः सुखानि सिध्येयुः ।
[मन्त्रसंगतिमाह--]
यत्पूर्वेण मन्त्रेण वृष्ट्यादिसाधकत्वमुक्तं तस्यानेन व्यापकत्वं प्रकाशितमिति संगतिः ॥ २ । १७ ॥
विशेषः
देवलः । अग्निः=ईश्वरो भौतिकश्च ॥ निचृद् जगती । निषादः ॥
हिन्दी (4)
विषय
उक्त अग्नि कैसा है, जो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) सर्वत्र व्यापक ईश्वर! आप (देवपणिभिः) दिव्य गुण वाले विद्वानों की स्तुतियों से (गुह्यमानः) अच्छी प्रकार अपने गुणों के वर्णन को प्राप्त होते हुए (यम्) उन गुणों के अनुकूल (जोषम्) प्रीति से सेवन के योग्य (परिधिम्) प्रभुता को (पर्य्यधत्थाः) निरन्तर धारण करते हैं, (तम्) उस आपको (इत्) ही (एषः) मैं (अनुभरामि) अपने हृदय में धारण करता हूं तथा मैं (त्वत्) आप से (मा) (अपचेतयातै) कभी प्रतिकूल न होऊँ और (अग्नेः) हे जगदीश्वर! आप की सृष्टि में जो मैंने (प्रियम्) प्रीति बढ़ाने और (पाथः) शरीर की रक्षा करने वाला अन्न (अपीतम्) पाया है, उससे भी कभी (मा) (अपचेतयातै) प्रतिकूल न होऊँ॥१॥ हे जगदीश्वर! (ते) आपकी सृष्टि में (एषः) यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (देवपणिभिः) दिव्य गुण वाले पृथिव्यादि पदार्थों के व्यवहारों से (गुह्यमानः) अच्छी प्रकार स्वीकार किया हुआ (यम्) जिस (परिधिम्) विद्यादि गुणों से धारण (जोषम्) और प्रीति करने योग्य कर्म को (पर्य्यधत्थाः) सब प्रकार से धारण करता है (तमित्) उसी को मैं (अनुभरामि) उसके पीछे स्वीकार करता हूं और उस से कभी (मा) (अपचेतयातै) प्रतिकूल नहीं होता हूं तथा मैंने जो (अग्नेः) इस अग्नि के सम्बन्ध से (प्रियम्) प्रीति देने और (पाथः) शरीर की रक्षा करने वाला अन्न (अपीतम्) ग्रहण किया है, उसको मैं (जोषम्) अत्यन्त प्रीति के साथ नित्य (अनुभरामि) क्रम से पाता हूं॥२॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। पहिले अन्वय में अग्नि शब्द से जगदीश्वर का ग्रहण और दूसरे में भौतिक अग्नि का है। जो प्रति वस्तु में व्यापक होने से सब पदार्थों का धारण करने वाला और विद्वानों के स्तुति करने योग्य ईश्वर है, उसकी सब मनुष्यों को प्रीति के साथ नित्य सेवा करनी चाहिये। जो मनुष्य उसकी आज्ञा नित्य पालते हैं, वे प्रिय सुख को प्राप्त होते हैं तथा जो यह ईश्वर ने प्रकाश, दाह और वेग आदि गुण वाला मूर्तिमान् पदार्थों को प्राप्त होने वाला अग्नि रचा है, उस से भी मनुष्यों को क्रिया की कुशलता के द्वारा उत्तम-उत्तम व्यवहार सिद्ध करने चाहियें, जिससे कि उत्तम-उत्तम सुख सिद्ध होवें। जो पूर्व मन्त्र से वृष्टि आदि पदार्थों का साधक कहा है, उसका इस मन्त्र से व्यापकत्व प्रकाश किया है॥१७॥
विषय
उक्त अग्नि कैसा है, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ
हे (अग्ने!) सर्वत्र व्यापक जगदीश्वर! (एषः) यह परिधि (देवपणिभिः) दिव्य गुणों वाले विद्वानों के व्यवहार और स्तुतियों से (गुह्यमानः) अच्छी प्रकार वर्णन किए गए आप (यम्) इन गुणों से विशिष्ट जिस (एतम्) इस यथोक्त (जोषम्) प्रीतिपूर्वक सेवनीय (परिधम्) सब ओर से जिसमें धारण-पोषण निहित है उस प्रभुता को (परिअधत्थाः) सब ओर से धारण करते हो, (तम्) उस परिधि को (इत्) ही यह मैं (अनुभरामि) हृदय में पश्चात् धारण करता हूँ।
मैं (त्वत्) तुझ अन्तर्यामी जगदीश्वर से (मा, अप-चेतयातै) कभी भी विरुद्ध न होऊँ,
मैंने [ते] आप (अग्नेः) जगदीश्वर की सुष्टि में जो (प्रियम्) प्रीतिकारक (पाथः) जिससे शरीर और आत्मा की रक्षा होती है, वह वह अन्न (अपि-इतम्) संयोग से प्राप्त किया है, इसलिए मैं आप के प्रतिकूल कभी आचरण न करूँ॥ यह मन्त्र का पहला अर्थ है॥
हे [अग्ने!] जगदीश्वर ! (ते) तेरी सृष्टि में जो (एषः) यह मैं (देवपणिभिः) दिव्य-गुणों वाले अग्नि और पृथिवी आदि के व्यवहारों से (गुह्यमानः) भले प्रकार प्रकट हुआ (एषः) यह मैं अग्नि (यम्) जिस गुण से विशिष्ट (परिधिम्) प्रभुता को (जोषम्) प्रीतिपूर्वक (परि-अधत्याः) सब ओर से धारण करता है, (तम्) उसी परिधि को (इत्) ही मैं (अनु-भरामि) पश्चात् धारण करता हूँ। उससे मैं कभी भी (मा, अप-चेतयातै) दूर न होऊँ।
मैंने जो इस (अग्नेः) भौतिक-अग्नि का (प्रियम्) प्रीतिकारक (पाथः) शरीर और आत्मा का रक्षक अन्न (अपि-इतम्) संयोग से प्राप्त किया है, इसलिए मैं (जोषम्) प्रीति से सेवनीय उस अग्नि को नित्य (अनु-भरामि) पश्चात् धारण करता हूँ॥ यह मन्त्र का दूसरा अर्थ है॥२। १७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष अलंकार है॥ सब मनुष्य जो प्रत्येक वस्तु में व्यापक होकर उन्हें धारण करने वाला, विद्वानों के द्वारा स्तुति करने योग्य ईश्वर है उसकी प्रीतिपूर्वक नित्य उपासना करें।
क्योंकि--उसकी आज्ञा पालन करने से ही प्रिय सुख प्राप्त होते हैं।
ईश्वर ने प्रकाश, दाह, वेग आदि गुणों से युक्त, मूर्त्त द्रव्यों में व्याप्त अग्नि रचा है, मनुष्य उसका कला-कौशल आदि में प्रयोग करके अग्नि से सब व्यवहारों को सिद्ध करें।
जिससे--सब सुख सिद्ध हों।
जिस अग्नि को पूर्व मन्त्र में वृष्टि आदि का साधक कहा है उसको इस मन्त्र के द्वारा व्यापक बतलाया गया है, यह संगति है॥२।१७॥
भाष्यसार
१. अग्नि (ईश्वर)--यहां श्लेष अलंकार से अग्नि शब्द के ईश्वर और भौतिक अग्नि दो अर्थ हैं। ईश्वर सर्वत्र व्यापक है, विद्वान् लोग इसकी स्तुति करते हैं और उनकी स्तुतियों से ही इसका संवरण होता है। प्रत्येक वस्तु में व्यापक होकर उन्हें धारण करने वाला ईश्वर ही है। मनुष्य इस अन्तर्यामी ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध कभी आचरण न करें क्योंकि इसकी कृपा से ही प्रीतिकारक भोग प्राप्त होते हैं।
२. अग्नि (भौतिक)--यह भौतिक अग्नि पृथिवी आदि से संवृत =छुपा रहता है, प्रकट रूप में दिखाई नहीं देता। यह प्रत्येक वस्तु में व्यापक होकर उन्हें सब ओर से धारण कर रहा है। विद्वान् लोग इस अग्नि विद्या को धारण करें तथा इससे प्रीतिकारक भोगों को सिद्ध करें॥२।१७॥
विशेष
देंवलः। अग्निः=ईश्वरो भौतिकश्च॥ निचृद् जगती। निषादः॥
विषय
अ-विस्मरण
पदार्थ
१. गत मन्त्र के अन्तिम शब्दों के अनुसार जब मनुष्य का संसार में रहने का दृष्टिकोण ठीक होता है तब वह ‘बृहस्पति व ब्रह्मा’ बनने के मार्ग पर चलता है, नकि मौज के मार्ग पर। यह प्रार्थना करता है— ( अग्ने ) = हे प्रकाशमय प्रभो! ( देवपणिभिः ) = दिव्य गुणोंवाले स्तोताओं से [ पण् = स्तुति ] ( गुह्यमानः ) = [ गुह = Hug, to emberace ] आलिङ्गन किये जाते हुए आप ( यं परिधिम् ) = जिस मर्यादा को ( पर्यधत्थाः ) = धारण करते हो, ( ते ) = आपकी ( तं एतम् ) = उस प्रसिद्ध मर्यादा को ( जोषम् ) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ ( अनुभरामि ) = मैं अपने अन्दर भरता हूँ, अर्थात् आपने जिन मर्यादाओं को उपदिष्ट किया है मैं उन्हें स्वीकार करता हूँ, उन मर्यादाओं का बड़े प्रेम से पालन करता हूँ।
२. ( एषः ) = यह मैं ( त्वत् ) = आपसे ( न अपचेतयाता ) = विस्मरण के कारण दूर नहीं होता। ( इत् ) = निश्चय से मैं यह संकल्प करता हूँ कि संसार में आने के अपने उद्देश्य को मैं भूलूँगा नहीं। आपका स्मरण करता हुआ मैं सदा मर्यादाओं का पालन करूँगा और अपने इस मानव-जीवन में आगे और आगे बढ़ता हुआ उत्तम सात्त्विक गतिवाला ब्रह्मा व बृहस्पति [ महान् ] बनकर रहूँगा।
‘मैं ऐसा बन सकूँ’ इसके लिए प्रार्थना करता हूँ कि ( अग्नेः ) = संसार के अग्रणी प्रभु का ( प्रियं पाथः ) = प्रीति देनेवाला रक्षण ( अपीतम् ) = [ अपि-इतम् ] मुझे अवश्य प्राप्त हो। प्रभु के रक्षण के बिना मैं इस उच्च स्थिति में क्या पहुँच पाऊँगा ? ‘पाथः’ शब्द का अर्थ अन्न भी है, अतः मुझे ( प्रियम् ) = प्रीतिकर, अर्थात् सात्त्विक ( पाथः ) = अन्न प्राप्त हो। सात्त्विक अन्न के सेवन से मेरी बुद्धि सात्त्विक बनी रहेगी और मैं मार्ग से विचलित न होऊँगा।
भावार्थ
भावार्थ — मैं प्रभु द्वारा स्थापित मर्यादा का पालन करूँ। मुझे प्रभु का कभी विस्मरण न हो और मैं प्रभु का रक्षण प्राप्त करूँ।
विषय
व्यवहार कुशल पुरुषों द्वारा राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा ।
भावार्थ
-हे (अग्ने) अग्ने ! अग्रणी राजन् ! स्वयं ( देवपणिभि: ) विद्वानों और व्यवहार कुशल व्यापारियों द्वारा ( गुह्यमान: ) सुरक्षित रहते हुए (यम् ) जिस ( परिधिभिः ) राष्ट्र को चारों ओर के आक्रमण से बचाने वाले सेनानायक आदि शासक को ( परि अधत्था: ) राष्ट्र की सीमाओं पर नियुक्त करते हो (ते) तेरे द्वारा नियुक्त (तम्) उस ( एतम् ) इस ' परिधि नामक सीमापाल को ( जोषम् ) प्रेमपूर्वक ( अनुभरामि ) तेरे अनुकूल बनाता हूं। जिससे ( एषः ) वह (त्वत्) तुझसे ( मा इत् ) कभी भी न ( अपचेतयातै ) बिगड़े। तेरे विपरीत न हो । हे ( परिधि- नायक ) दो सीमापालो ! तुम दोनों भी ( अग्नेः प्रियम् पाथः ) अग्नि राजा के प्रिय, पान या पालन करने योग्य अन्न आदि भोग्य पदार्थ या राष्ट्र को (अपि इतम्) प्राप्त करो || शत० १ | ८ | ३ | २२ ॥
टिप्पणी
१७ – संवदस्व | श्रावय । श्रौषट् । स्वगा देव्या होतृभ्यः । स्वस्तिर्मानुषेभ्यः | इत्यधिकानि यजूंषि इतः पूर्वं पठ्यन्ते । शत० । ( च० ) 'नेत्वदप' इति पाठभेदः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
देवल ऋषिः । अग्निर्देवता । जगती । निषादः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. अग्नी या शब्दाचा एक अर्थ जगदीश्वर असा आहे. दुसरा अर्थ भौतिक अग्नी आहे. परमेश्वररूपी अग्नी प्रत्येक वस्तूमध्ये भरलेला आहे व त्यांना तो धारण करणारा आहे. विद्वानांनी स्तुती करावी असा तो असून, त्याचीच सर्व माणसांनी भक्ती केली पाहिजे. जी माणसे त्याच्या आज्ञेचे सदैव पालन करतात त्यांच्या सर्व इच्छा पूर्ण होतात व ते सुखी होतात.
टिप्पणी
परमेश्वराने प्रत्यक्ष पदार्थात प्रकाश, दाह व गती असणारा अग्नी निर्माण केलेला आहे. त्याद्वारे माणसांनी कार्यात कौशल्य दाखवून उत्तम व्यवहार सिद्ध केले पाहिजेत. त्यामुळे सुख प्राप्त होईल. पूर्वीच्या मंत्रात अग्नीला वृष्टी इत्यादी पदार्थांचा साधक म्हटले आहे. त्याचेच या मंत्रात अधिक विवेचन केलेले आहे.
विषय
अग्नी कसा आहे, ते पुढील मंत्रात व्यक्त केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (या मंत्राचे दोन अर्थ आहेत - एक ईश्वरपरक आणि दुसरा भौतिक अग्नीपरक) - हे (अग्ने) सर्वव्यापी ईश्वरा, तू (देवपणिभि:) दिव्य गुणांनी युकत अशा विद्वानांनी केलेल्या स्तुतीप्रमाणे (गुह्यमान:) तू गुणवान आहेस मीही तुझी त्याप्रमाणे स्तुती करतो (यम्) तुझ्या त्या वर्णित गुणांचे मी अनुसरण करावे व (जोषम्) प्रीतीपूर्वक तुझ्या गुणांचे सेवन/ध्यान करावे. (परिघिम्) तुझ्या त्या श्रेष्ठतेला/प्रभुतेला (पर्य्याधत्था:) तू निरंतर धारण करतोस (तुझ्या गुणांमधे कधीही हानी, त्रुटी वा प्राप्ती होत नाही) (तम्) अशा त्या सर्वगुण संपन्न तुझ्या स्वरूपाला (इत्) केवळ त्याच स्वरूपाला (एष:) मी (अनुभरामि) आपल्या हृदयात धारण करतो. हे परमेश्वरा, (त्वत्) तु तुझ्यापासून मी (मा) (अपचेतया है) कधीही च्युत किंवा दूर होऊ नये. (अग्ने) हे जगदीश्वर, तुझ्या या सृष्टीत जे (प्रिमम्) प्रीतीकारक व (पाथ:) शरीराचे रक्षण करणारे असे अन्न मला (अपीतम्) प्राप्त झाले आहे, त्या अन्नास देखील मी कधी (मा) (अपचेतयातै) प्रतिकूल होऊं नये (अन्नाचे अवमान करू नये) ॥1॥ दुसरा अर्थ - हे जगदीश्वरा, (ते) तुझ्या सृष्टीमधे (एष:) हा (अग्ने) भौतिक अग्नी (देवपणिभि:) दिव्यगुणांनी युक्त पृथ्वी आदी पदार्थाद्वारे (गुह्यमान:) योग्य प्रकारे उपयोगात आणले असतांना (यम्) जे (परिधिम्) विद्यादीगुण देणारा होतो आणि (जोषम्) प्रिय अशा कर्म करविणारा होतो, त्या गुणांना तो अग्नी (पर्य्यधत्था:) सर्व प्रकारे धारण करतो, (तमित्) त्या अग्नीचा मी (अनुभरामि) स्वीकार करतो. त्या अग्नीपासून (मा) (अपचेतयातै) मी कधीही दूर अथवा प्रतिकूल होऊ नये (यज्ञ करण्यात व अग्नीपासून विविध लाभ घेण्यात आळस करू नये). तसेच या अग्नीपासून मी जे (प्रियम्) प्रिय आणि (पाथ:) स्वास्थ्यकर अन्न (अपीतम्) सेवन करतो, त्या अग्नीस मी (जोषम्) अत्यंत प्रेमाने नित्य (अनुभरामि) क्रमाने म्हणजे प्रतिदिन वाढवावे. (वाढत्या प्रमाणे त्यापासून लाभ घ्यावेत.) ॥17॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. पहिल्या अम्नयाप्रमाणे अग्नी शब्दापासून परमेश्वराचे ग्रहण होत आहे आणि दुसर्या अम्नयाप्रमाणे भौतिक अग्नी हा अर्थ अपेक्षित आहे. जो ईश्वर प्रत्येक पदार्थात व्यापक आहे, तोच सर्व पदार्थांना धारण करतो आणि तोच विद्वज्जनांद्वारे स्तवनीय आहे. सर्व मनुष्यांनी अत्यंत प्रेमाने नित्य त्याचीच स्तुती उपासना केली पाहिजे. जे लोक त्याच्या आज्ञेचे पालन करतात, तेच नेहमी प्रिय सुख प्राप्त करतात. याच प्रमाणे परमेश्वराने सर्वांना प्रकाश उष्णता आणि वेगादी गुण देणारा हा जो भौतिक अग्नी रचला आहे, त्यापासून देखील मनुष्यांनी रीती, क्रिया-कौशल्यादी द्वारे उत्तमोत्तम व्यवहार सिद्ध/संपन्न केले पाहिजेत. त्यामुळे उत्तम सुखांची प्राप्ती होणे संभव आहे. या पूर्वीच्या मंत्रात ज्या अग्नीस वृष्टी आदी पदार्थाचा साधक किंवा दाता म्हटले आहे, या मंत्रात त्या अग्नीच्या व्यापकत्व गुणाविषयी विशेष वर्णन केले आहे. ॥17॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Oh Omnipresent God, extolled by the praises of the learned, Thou attainest to greatness through those lovely panegyrics. I realise that greatness of Thine in my heart. May I never disobey Thee. May I, Oh God, never abuse the pleasant and invigorating food, I have secured in Thy creation.
Meaning
Agni, Lord of light and life, you hold and sustain the law of Dharma observed by the powers of nature and celebrated in the songs of the seers. I accept and act within the bounds of that law and feed upon the foods provided by nature and yajna. May I never neglect or violate that law. May I never be ungrateful to the Lord. May I never lose the vision of Divinity.
Translation
O foremost adorable Lord, to hide yourself from the speculators you have put an enclosure around you; this enclosure I reinforce for your pleasure. May it, however, never keep me away from you. (1) The favourite food of the fire divine is thus obtained. (2)
Notes
Panibhih, by the speculators. Panis, according to legend, were a sort of demons, who stole the cows of devas and concealed them in a cave, Indra found out and demolished that cave and recovered the stolen cows. Some people аге of the view that the Panis were Phoenicians who came as traders and indulged in thefts and robberies when they got a chance. They have been mentioned despicably in the Veda. Anubharami, for anuharami. Josam, प्रियम्; desired; pleasing. Pathah, पापः इति अन्न नामः; food.
बंगाली (1)
विषय
সোऽগ্নিঃ কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
উক্ত অগ্নি কেমন, তাহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) সর্বত্র ব্যাপক ঈশ্বর । আপনি (দেবপণিভিঃ) দিব্যগুণযুক্ত বিদ্বান্দিগের স্তুতি দ্বারা (গুহ্যমানঃ) ভাল প্রকার নিজ গুণ সকলের বর্ণন প্রাপ্ত হইয়া (য়ম্) সেই সব গুণের অনুকূল (জোষম্) প্রীতিপূর্বক সেবনীয় (পরিধিম্) প্রভুতাকে (পর্য়্যধৎথাঃ) নিরন্তর ধারণ করেন । (তম্) আপনার তাহাকে (ইৎ) ই (এষঃ) আমি (অনুভরামি) নিজ হৃদয়ে ধারণ করি তথা আমি (ত্বৎ) আপনার হইতে (মা) (অপচেতয়াতৈ) কখনও প্রতিকূল না হই এবং (অগ্নে) হে জগদীশ্বর । আপনার সৃষ্টিতে যাহা আমি (প্রিয়ম্) প্রীতি বৃদ্ধি করিবার এবং (পাথঃ) শরীরের রক্ষক অন্ন (অপীতম্) পাইয়াছি তাহা হইতেও কখনও (মা) (অপচেতয়াতৈ) প্রতিকূল না হই ॥ ১ ॥ হে জগদীশ্বর! (তে) আপনার সৃষ্টিতে (এষঃ) এই (অগ্নে) ভৌতিক অগ্নি (দেবপণিভিঃ) দিব্য গুণযুক্ত পৃথিব্যাদি পদার্থ সকলের ব্যবহারের ফলে (গুহ্যমানঃ) সম্যক্ প্রকার স্বীকৃত (য়ম্) যে (পরিধিম্) বিদ্যাদি গুণ দ্বারা ধারণ (জোষম্) এবং প্রীতি করিবার যোগ্য কর্মের (পর্য়্যধৎথাঃ) সর্ব প্রকারে ধারণ করে । (তমিৎ) তাহাকেই আমি (অনুভরামি) তৎপশ্চাৎ স্বীকার করি এবং তাহা হইতে কখনও (মা) (অপচেতয়াতৈ) প্রতিকূল হই না তথা আমি যে (অগ্নেঃ) এই অগ্নির সম্পর্কে (প্রিয়ম্) প্রীতিদায়ক এবং (পাথঃ) শরীরের রক্ষক অন্ন (অপীতম্) গ্রহণ করিয়াছি তাহাকে আমি (জোষম্) অত্যন্ত প্রীতি সহ নিত্য ক্রমপূর্বক লাভ করি ॥ ১৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালংকার আছে । প্রথম অন্বয়ে অগ্নি শব্দ দ্বারা জগদীশ্বরের গ্রহণ এবং দ্বিতীয়ে ভৌতিক অগ্নির । যিনি প্রতি বস্তুতে ব্যাপক হওয়ার কারণে সকল পদার্থের ধারণকারী এবং বিদ্বান্দিগের স্তুতি যোগ্য ঈশ্বর তাঁহাকে সকল মনুষ্যদিগকে প্রীতি সহ নিত্য সেবা করা উচিত । যে মনুষ্য তাঁহার আজ্ঞা নিত্য পালন করে সে প্রিয় সুখ প্রাপ্ত করে তথা এই যে ঈশ্বর প্রকাশ, দাহ ও বেগাদি গুণযুক্ত মূর্তিমান পদার্থসকল প্রাপ্ত হইবার অগ্নি রচনা করিয়াছেন তাহা হইতেও মনুষ্যদিগকে ক্রিয়া-কুশলতা দ্বারা উত্তমোত্তম ব্যবহার সিদ্ধ করা উচিত যাহাতে উত্তমোত্তম সুখ সিদ্ধ হয় । যাহাকে পূর্ব মন্ত্র দ্বারা বৃষ্টি ইত্যাদি পদার্থ সকলের সাধক বলা হইয়াছে তাহার এই মন্ত্রের দ্বারা ব্যাপকত্ব প্রকাশ করা হইয়াছে ॥ ১৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ং প॑রি॒ধিং প॒র্য়্যধ॑ত্থা॒ऽঅগ্নে॑ দেব প॒ণিভি॑র্গু॒হ্যমা॑নঃ । তং ত॑ऽএ॒তমনু॒ জোষং॑ ভরাম্যে॒ষ মেত্ত্বদ॑পচে॒তয়া॑তাऽঅ॒গ্নেঃ প্রি॒য়ং পাথো॑ऽপী॑তম্ ॥ ১৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ং পরিধিমিত্যস্য ঋষির্দেবলঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্ জগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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