यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 7
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - बृहती,
स्वरः - मध्यमः
3
अग्ने॑ वाजजि॒द् वाजं॑ त्वा सरि॒ष्यन्तं॑ वाज॒जित॒ꣳ सम्मा॑र्ज्मि। नमो॑ दे॒वेभ्यः॑ स्व॒धा पि॒तृभ्यः॑ सु॒यमे॑ मे भूयास्तम्॥७॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। वा॒ज॒जि॒दिति॑ वाजऽजित्। वाज॑म्। त्वा॒। स॒रि॒ष्यन्त॑म्। वा॒ज॒जित॒मिति॑ वाज॒ऽजित॑म्। सम्। मा॒र्ज्मि॒। नमः॑। दे॒वेभ्यः॑। स्व॒धा। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। सु॒यमे॒ऽइति॑ सु॒ऽयमे॑। मे॒। भू॒या॒स्त॒म् ॥७॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने वाजजिद्वाजन्त्वा सरिष्यन्तँ वाजजितँ सम्मार्ज्मि । नमो देवेभ्यः स्वधा पितृभ्यः सुयमे मे भूयास्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। वाजजिदिति वाजऽजित्। वाजम्। त्वा। सरिष्यन्तम्। वाजजितमिति वाजऽजितम्। सम्। मार्ज्मि। नमः। देवेभ्यः। स्वधा। पितृभ्य इति पितृऽभ्यः। सुयमेऽइति सुऽयमे। मे। भूयास्तम्॥७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः स यज्ञः कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
यतोऽयम् [ग्नेऽ] ग्निर्वाजजिद् भूत्वा सर्वान् पदार्थान् संमार्ष्टि, तस्मात् [त्वा] तमहं वाजं सरिष्यन्तं वाजजितं संमार्ज्मि, येन यज्ञेन प्रयुक्तेनाग्निना देवेभ्यो नमः पितृभ्यः स्वधा सुयमे भवतस्तेनैते मे मम सुयमे भूयास्तं भूयास्ताम्॥७॥
पदार्थः
(अग्ने) अग्निर्भौतिकः (वाजजित्) वाजमन्नं जयति येन सः। वाज इत्यन्ननामसु पठितम् (निघं॰२.७) अत्रोभयत्र कृतो बहुलम् [अष्टा॰३.३.११३ भा॰वा॰] इति करणे क्विप् (वाजम्) वेगवन्तम् (त्वा) तम् (सरिष्यन्तम्) सर्वान् पदार्थानन्तरिक्षं गमयिष्यन्तम् (वाजजितम्) वाजं युद्धं जयति येन तम् (सम्) सम्यगर्थे (मार्ज्मि) मार्ष्टि वा, अत्र पक्षे पुरुषव्यत्ययः (नमः) अमृतात्मकं जलम्। नम इत्युदकनामसु पठितम् (निघं॰१.१२) (देवेभ्यः) दिव्यसुखकारकेभ्यः पूर्वोक्तेभ्यो वस्वादिभ्यः (स्वधा) अमृतात्मकमन्नम्। स्वधेत्यन्ननामसु पठितम् (निघं॰२.७) स्वं स्वकीयं सुखं दधात्यनया सा (पितृभ्यः) पालनहेतुभ्य ऋतुभ्यः। ऋतवो वै पितरः (शत॰२.५.२.३२) (सु) शोभनेऽर्थे (यमे) यच्छन्ति बलपराक्रमौ याभ्यां ते (मे) मम (भूयास्तम्) भूयास्ताम्। अत्र व्यत्ययः॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.३.६.१४.१५) व्याख्यातः॥७॥
भावार्थः
ईश्वर उपदिशति-मनुष्यैर्यः पूर्वमन्त्रोक्तोऽग्निः [सः] यज्ञस्य मुख्यसाधनः कर्त्तव्यः। कुतः? अग्नेरूर्ध्वगमनशीलेन सर्वपदार्थछेदकत्वाच्च। यानास्त्रेषु सम्यक् प्रयुक्तः शीघ्रगमनविजयहेतुः सन्नृतुभिर्दिव्यान् पदार्थान् सम्पाद्य शुद्धे सुखप्रापके अन्नजले करोतीति विज्ञातव्यम्॥७॥
विषयः
पुनः स यज्ञः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
यतोऽयम् [अग्ने]=अग्निः अग्निर्भौतिको वाजजित् वाजमन्नं जयति येन सः, भूत्वा सर्वान् पदार्थान् संमार्ष्टि, तस्मात् [त्वा]=तमहं वाजं वेगवन्तं सरिष्यन्तं सर्वान् पदार्थानन्तरिक्षं गमयिष्यन्तं वाजितं वाजं=युद्धं जयति येन तं सम्+मार्ज्मि सम्यङ् मार्ज्मि ।
येन यज्ञेन प्रयुक्तेनाऽग्निना देवेभ्यो दिव्यसुखकारकेभ्यः पूर्वोक्तेभ्यो वस्वादिभ्यो नमः अमृतात्मकं जलं पितृभ्यः पालनहेतुभ्य ऋतुभ्यः स्वधा अमृतात्मकमन्नं स्वं=स्वकीयं सुखं दधात्यनया सा सुयमे शोभनं यच्छन्ति बलपराक्रमौ याभ्यां ते भवतस्तेनैते मे=मम सुयमे शोभनं यच्छन्ति बलपराक्रमौ याभ्यां ते भूयास्तम्=भूयास्ताम् ॥२।७॥
पदार्थः
(अग्ने) अग्निभौतिकः (वाजजित्) वाजमन्नं जयति येन सः । वाज इत्यन्ननामसु पठितम् ॥ निघं० २॥ ७ ॥ अत्रोभयत्र कृतो बहुलमिति करणे क्विप् (वाजम्) वेगवन्तम् (त्वा) तम् (सरिष्यन्तम्) सर्वान् पदार्थानन्तरिक्षं गमयिष्यन्यतम् (वाजजितम्) वाजं युद्ध जयति येन तम् (सम्) सम्यगर्थे (मार्ज्मि) मार्ष्टि वा अत्र पक्षे पुरुषव्यत्ययः (नमः) अमृतात्मकं जलम् । नम इत्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । १२ ॥ (देवेभ्यः) दिव्यसुखकारकेभ्यः पूर्वोक्तेभ्यो वस्वादिभ्यः (स्वधा) अमृतात्मकमन्नम् । स्वधेत्यन्ननामसु पठितम् ॥ नि० २ । ७ ॥ स्वं=स्वकीयं सुखं दधात्यनया सा (पितृभ्यः) पालनहेतुभ्यः ऋतुभ्यः ।
ऋतवो वै पितरः ॥ श० २। ४ । २ । २४ ॥ (सु) शोभनेऽर्थे (यमे) यच्छन्ति बलपराक्रमौ याभ्यां ते (मे) मम (भूयास्तम्) भूयास्ताम् । अत्र व्यत्ययः ॥ अयं मंत्र: श० १।४। ४ । १५ तथा १ । ४ । ५। १ व्याख्यातः ॥ ७॥
भावार्थः
[ अयम् [अग्ने] अग्निः]
ईश्वर उपदिशति—मनुष्यैर्यः पूर्वमन्त्रोक्तोऽग्निर्यज्ञस्य मुख्यसाधनः कर्त्तव्यः ।
[ सर्वान् पदार्थान् सम्मार्ष्टि]
कुतः? अग्नेरूर्ध्वगमनशीलेन सर्वपदार्थच्छेदकत्वात् ।
[तमहं वाजं सरिष्यन्तं वाजजितं सम्मार्ज्मि]
यानास्त्रेषु सम्यक् प्रयुक्तेन शीघ्रगमन विजयहेतुः सन्,
[यज्ञेन प्रयुक्तेनाऽग्निना देवेभ्यो नमः पितृभ्य स्वधा]
ऋतुभिर्दिव्यान् पदार्थान् सम्पाद्य शुद्धे सुखप्रापके अन्नजले करोतीति विज्ञातव्यम् ॥
'
[अहं देवेभ्यो यदस्कन्नम् अविक्षुब्धमाज्यं..."सम्भ्रियासम्]
ईश्वर उपदेश करता है—जिस पूर्वोक्त यज्ञ से अन्न और जल शुद्ध एवं अधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं उस यज्ञ की सिद्धि के लिए मनुष्यों को बहुत सी यज्ञ सामग्री सदा जोड़नी चाहिए।२।७॥
भावार्थ पदार्थः
[अग्ने] अग्निः=यज्ञस्य मुख्य-साधनम् । वाजम=शीघ्रगमनहेतुम् । वाजजितम्=विजयहेतुम् । देवेभ्यः=दिव्यपदार्थेभ्यः। स्वधा=शुद्ध सुखप्रापकमन्नम् । नमः=शुद्धं सुखप्रापकं जलम् ॥
विशेषः
परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्नि:=भौतिकोऽग्निः। बृहतीः। मध्यमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह यज्ञ कैसा है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है॥
पदार्थ
जिससे यह (अग्ने) अग्नि (वाजजित्) अर्थात् जो उत्कृष्ट अन्न को प्राप्त कराने वाला होके सब पदार्थों को शुद्ध करता है, इससे मैं (त्वा) उस (वाजम्) वेग वाले (सरिष्यन्तम्) सब पदार्थों को अन्तरिक्ष में पहुँचाने और (वाजजितम्) [वाज] अर्थात् युद्ध को जीताने वाले भौतिक अग्नि को (सम्मार्ज्मि) अच्छी प्रकार शुद्ध करता हूं, यज्ञ में युक्त किये हुए जिस अग्नि से (देवेभ्यः) सुखकारक पूर्वोक्त वसु आदि से सुख के लिये (नमः) अत्यन्त मधुर श्रेष्ठ जल तथा (पितृभ्यः) पालन के हेतु जो वसन्त आदि ऋतु हैं, उनसे जो आरोग्य के लिये (स्वधा) अमृतात्मक अन्न किये जाते हैं, वे (सुयमे) बल वा पराक्रम के देने वाले उस यज्ञ से (मे) मेरे लिये (भूयास्तम्) होवें॥७॥
भावार्थ
ईश्वर उपदेश करता है कि प्रथम मन्त्र में कहे हुए यज्ञ का मुख्य साधन अग्नि होता है, क्योंकि जैसे प्रत्यक्ष में भी उसकी लपट देखने में आती है, वैसे अग्नि का ऊपर ही को चलने जलने का स्वभाव है तथा सब पदार्थों के छिन्न-भिन्न करने का भी उसका स्वभाव है और यान वा अस्त्र-शस्त्रों में अच्छी प्रकार युक्त किया हुआ शीघ्र गमन वा विजय का हेतु होकर वसन्त आदि ऋतुओं से उत्तम-उत्तम पदार्थों का सम्पादन करके अन्न और जल को शुद्ध वा सुख देने वाले कर देता है, ऐसा जानना चाहिये॥७॥
विषय
फिर यह यज्ञ कैसा है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है ॥
भाषार्थ
जिससे यह [अग्ने] भौतिक अग्नि (वाजजित्) अन्न को जीतने वाला होकर सब पदार्थों को शुद्ध करता है, इसलिए [त्वा] उस अग्नि को मैं (वाजम्) जो वेग वाला (सरिष्यनम्) सब पदार्थों को अन्तरिक्ष में पहुंचाने वाला और (वाजजितम्) युद्ध को जिताने वाला है, उसे (सम्+मार्ज्मि) अच्छे प्रकार शुद्ध करता हूँ।
यज्ञ में प्रयुक्त जिस अग्नि से (देवेभ्यः) दिव्य सुखदायक पूर्वोक्त वसु आदिकों के लिए (नमः) अमृत रूप जल (पितृभ्यः) पालन करने वाली ऋतुओं के लिए (स्वधा) सुख को धारण करने वाले अमृत रूप अन्न (सु) सुन्दर रीति से (यमे) बल पराक्रम को देने वाले होते हैं, इसलिए ये दोनों अन्न, जल (में) मुझे भी बल-पराक्रम को देने वाले (भूयास्तम्) होवें॥२।७॥
भावार्थ
ईश्वर उपदेश करता है कि--मनुष्यों को पूर्व मन्त्र में कथित अग्नि को यज्ञ का मुख्य साधन बनाना चाहिये।
क्योंकि? अग्नि स्वभाव से ऊपर जाने वाला होन से सर्व पदार्थों को छेदक है।
यान और अस्त्रों में अग्नि का विधिपूर्वक प्रयोग करने से वह शीघ्र गति और विजय का हेतु होकर,
ऋतुओं के द्वारा दिव्य पदार्थों को सिद्ध करके शुद्ध एवं सुखदायक अन्न और जलों का साधक है, इस विज्ञान को समझना चाहिये॥२।७॥
भाष्यसार
यज्ञ--भौतिक अग्नि यज्ञ का मुख्य साधन है। यज्ञ वाज अर्थात् अन्न को प्राप्त कराने वाला, एवं सब पदार्थों का शोधक है। यज्ञ का मुख्य साधक अग्नि वेगवान् अर्थात् शीघ्रगमन का हेतु युद्धों में यान और अस्त्रों मे प्रयोग करने से विजय का हेतु है। यज्ञ की अग्नि से अन्न और जल शुद्ध होते हैं जो बल और पराक्रम के देने वाले हैं।
विशेष
परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्निः= भौतिकोऽग्निः। बृहतीः। मध्यमः॥
विषय
नमः + स्वधा
पदार्थ
गृहपति को प्रभु प्रेरणा देते हैं कि ( अग्ने ) = हे घर की उन्नति के साधक! ( वाजजित् ) = सब शक्तियों व धनों को जीतनेवाले ( वाजं सरिष्यन्तम् ) = शक्ति व धन की ओर निरन्तर बढ़नेवाले [ सृ गतौ ] और इस प्रकार ( वाजजितम् ) = शक्तियों और धनों के विजेता ( त्वा ) = तुझे ( सम्मार्ज्मि ) = मैं अच्छी प्रकार शुद्ध करता हूँ। तेरे कारण घर की सदा उन्नति हो। घर में निर्बलता व निर्धनता का स्थान न हो। तू निरन्तर शक्ति व धन की ओर बढ़नेवाला हो तथा इन्हें प्राप्त करनेवाला हो। इस उद्देश्य से मैं तेरे जीवन को पवित्र करता हूँ। जीवन में वासनाओं के मल का प्रवेश होते ही सब उन्नति समाप्त हो जाती है, निर्बलता व निर्धनता का प्रवेश होने लगाता है। धीरे-धीरे शक्ति का ह्रास होकर जीवन विनष्ट हो जाता है।
यह विलास से बचनेवाला गृहपति प्रभु से प्रार्थना करता है कि २. ( मे ) = मेरे इस ( सु-यमे ) = उत्तम नियम—मर्यादा व आत्म-संयमवाले घर में [ क ] ( देवेभ्यः नमः ) = देवों के लिए नमन और [ ख ] ( पितृभ्यः ) = पितरों के लिए—वृद्ध माता-पिता आदि के लिए ( स्वधा ) = अन्न ( भूयास्तम् ) = सदा बने रहें। जिस घर में लोगों का जीवन विलासमय न होकर शक्ति का सम्पादन करनेवाला होता है, वह घर ‘सु-यम’ = उत्तम आत्मसंयमवाला होता है। इस घर के दो लक्षण हैं। एक तो इस घर में देवपूजा सदा बनी रहती है। सर्वमहान् देव प्रभु का उपासन होता है, वायु आदि देवों की पूजा के लिए ‘देवयज्ञ’ चलता है और घर का नियम यह होता है कि माता, पिता, आचार्य व अतिथियों को देव समझकर उनका उचित आदर सदा बना रहता है। इस घर का दूसरा प्रमुख गुण यह होता है कि इसमें वृद्ध माता-पिता के लिए प्रेमपूर्वक अन्न प्राप्त कराया जाता है। ठीक बात तो यह है कि उन्हें अन्न प्राप्त कराके दूसरे लोग उनके पश्चात् ही खाते हैं। वस्तुतः इस पितृसेवा से छोटी सन्तानों को सुन्दर शिक्षण प्राप्त होता है और इस प्रकार इन बड़ों की सेवा से हम अपना ही धारण करते हैं। ‘स्व-धा’ शब्द की यही भावना है।
भावार्थ
भावार्थ — हमारे घर ‘सु-यम’ हों। उनमें देवों को नमन और पितरों को स्वधा प्राप्त हो।
विषय
राजा का अभिषेक और राष्ट्र चालकों के वेतन रूप स्वध॥
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्रणी ! राजन् ! तू ( वाजजित्) वाज अर्थात् संग्राम का विजय करने हारा है । (वाजम् ) संग्राम के प्रति (सरिष्यन्तम्) गमन करने की इच्छा करते हुए ( वाजजितम् ) युद्ध के विजय करने हारे ( त्वा) तुझको मैं ( सम् मार्ज्मि ) सम्मार्जन करता हूं, तुझे परिशुद्ध करता या भली प्रकार अभिषिक्त करता हूँ । हे विद्वान् पुरुषों ! (देवेभ्यः) युद्ध क्रीडा करने वाले वीरों के लिये ( नमः ) अन्न है । ( पितृभ्यः स्वधा ) पालक, राष्ट्र के अधिकारियों के लिये यह (स्वधा ) उनके शरीर रक्षा की वेतन आदि सामग्री उपस्थित है । राजप्रकृति और शासक अधिकारी प्रकृति दोनों (मे ) मुझ राष्ट्र पुरोहित के अधीन (सुयमे ) उत्तम रूप से राष्ट्र को नियन्त्रण करने में समर्थ, एवं सुखपूर्वक मेरे अधीन, मेरे द्वारा भरण पोषण करने योग्य एवं सुव्यवस्थित, सुसंयत ( भूयास्तम् ) रहें || शत० १ । ४ । ६ । १५ ॥ तथा शत० १। ५। १। १॥
टिप्पणी
७ – अग्निर्देवः पितरौ स्रुचौ च देवताः । सर्वा० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
यज्ञो देवता । भुरिक् पंक्ति । पञ्चमः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
ईश्वराच्या उपदेशानुसार पूर्वोक्त मंत्रात सांगितलेल्या यज्ञाचे मुख्य साधन अग्नी आहे. कारण प्रत्यक्षात अग्नीची ज्वाला वर जाते हे दिसून येते. अग्नीचा स्वभाव वर जाण्याचा आहे. सर्व पदार्थांचे भेदन करण्याचाही त्याचा स्वभाव आहे. शस्त्रास्त्रांमध्ये चांगल्या प्रकारे युक्त करून शीघ्र गमन करण्याचे किंवा विजय मिळविण्याचे कारणही अग्नीच होय. अग्नीमुळेच वसंत इत्यादी ऋतूंमध्ये उत्तम उत्तम पदार्थांची प्राप्ती होते. अन्न व जल शुद्ध होते, असा हा अग्नी सुखकारक आहे हे जाणले पाहिजे.
विषय
पुढील मंत्रात यज्ञाचे स्वरूप कसे ते सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (अग्ने) हा अग्नी (वाजजित्) उत्कृष्ट अन्न धान्य देणारा आहे आणि सर्व पदार्थांना शुद्ध करणारा आहे, म्हणून मी (त्वा) त्या (वाजम्) वेगशाली (अरिष्यन्तम्) सर्व पदार्थांना अंतरिक्षात पाठविणार्या आणि (वाजजितम्) युद्धात विजय देणार्या भौतिक अग्नीला (सम्मार्ज्मि) चांगल्या प्रकारे शुद्ध करतो. (त्याचा योग्य पद्धतीने उपयोग घेतो) यज्ञात प्रयुक्त या अग्नीद्वारे (देरेभ्य:) सुखकारक पूर्वोक्त वसु आदी पदार्थांपासून सुख प्राप्त होते आणि (नम:) अत्यंत मधुर व श्रेष्ठ जल मिळते. तसेच (पितृभ्य:) पालनकरणारे जे वसंत आदी ऋतु आहेत, त्यांपासून आरोग्य प्राप्त करण्याकरिता (स्वधा) अमृतरूप जे अन्न प्राप्त होते, (सुयमे) शक्ती आणि पराक्रम देणार्या अशा या यज्ञामुळे ते अन्न-धान्य (मे) माझ्यासाठी (भूयास्तम्) उबलब्ध व्हावेत. ॥7॥
भावार्थ
भावार्थ- ईश्वराने उपदेश केला आहे की प्रथम मंत्रात सांगितल्याप्रमाणे यज्ञाचे प्रमुख साधन अग्नी आहे. ज्याप्रमाणे प्रत्यक्षात देखील दिसते की अग्नीच्या ज्वाळा वरच्या दिशेला जाता, कारण की अग्नीचा स्वभाव वरच्या दिशेला जाण्याचा आणि सर्व पदार्थांना छिन्न-भिन्न करण्याचा (हलके करून वर पाठविण्याचा) आहे. याच अग्नीचा यान आदी मधे व अस्त्रशस्त्रामध्ये प्रयोग केल्यानंतर अग्नी शीघ्रगमन करणारा आणि विजयदायी होतो. तसेच हा अग्नी वसंत आदी ऋतूमधे उत्तमोत्तम पदार्थ देऊन अग्नीची आणि जलाची शुद्धता करतो आणि सर्वांसाठी सुखकारी होतो. सर्वांनी अग्नीच्या या गुणांना उत्तमप्रकारे जाणावे व त्यापासून लाभ घ्यावेत. ॥7॥
इंग्लिश (3)
Meaning
I kindle the fire, the giver of corn, full of intensity, the carrier of all oblations to the sky, and the bringer of victory in war. The fire properly used in the Yajna brings water through the forces of nature and food through the seasons that protect us. May these (water and food) the givers of strength and power be for my use.
Meaning
Agni is the Lord of light and life, it is fire both physical and vital. It is the giver and purifier of food and the secret of victory and glory. It is fast in motion and action, burning up the libations and sending them up into the sky. I worship Agni and refine Agni through yajna for food and energy, light and victory. Salutations to the Devas, celestial powers of light; food for the Pitris, powers of nourishment. May they both help us with food and energy to win honour and glory for us.
Translation
О adorable Lord, winner of inner battles, I worship you, moving towards battle for winning battle. (1) My obeisance to enlightened ones. (2) My reverence to elders. (3) May both of them be our strength in discipline. (4)
Notes
Vajajit, winner of battles. Vaja means battle; also food, strength, and speed. Svadha, like ‘Svaha’, the word 'Svadha' is a nipata and is used while dedicating something to gods or the pitrs. The food meant for pitrs is also called svadha.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স য়জ্ঞঃ কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সেই যজ্ঞ কেমন তাহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে প্রকাশিত করা হইতেছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- যেহেতু এই (অগ্নে) অগ্নি (বাজজিৎ) অর্থাৎ যাহা উৎকৃষ্ট অন্ন প্রাপ্তকারী হইয়া সকল পদার্থ শুদ্ধ করে ইহার ফলে আমি (ত্বা) সেই (বাজম্) বেগযুক্ত (সরিষ্যন্তম্) সকল পদার্থকে অন্তরিক্ষে পৌঁছাইবার এবং (বাজজিতম্) (বাজ) অর্থাৎ যুদ্ধে বিজয়ী করিবার ভৌতিক অগ্নিকে (সম্মাজির্ম) ভাল প্রকার শুদ্ধ করি । যজ্ঞে যুক্তকৃত যে অগ্নি দ্বারা (দেবেভ্যঃ) সুখকারক পূর্বোক্ত বসু ইত্যাদি দ্বারা সুখের জন্য (নমঃ) অত্যন্ত মধুর শ্রেষ্ঠ জল তথা (পিতৃভ্যঃ) পালন হেতু যে বসন্ত ইত্যাদি ঋতু তাহা হইতে আরোগ্য হেতু (স্বধা) যে অমৃতাত্মক অন্ন করা হয় সেগুলি (সুয়মে) বল বা পরাক্রম দাতা সেই যজ্ঞ দ্বারা (মে) আমার জন্য (ভূয়াস্তম্) হউক ॥ ৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- ঈশ্বর উপদেশ করিতেছেন যে, প্রথম মন্ত্রে কথিত যজ্ঞের মুখ্য সাধন অগ্নি । কেননা যেমন প্রত্যক্ষেও তাহার শিখা দৃশ্যমান হয় সেইরূপ অগ্নির উপর-উপর চলা-জ্বলার স্বভাব তথা সব পদার্থ ছিন্ন-ভিন্ন করিবারও তাহার স্বভাব এবং যান বা অস্ত্রে-শস্ত্রে সজ্জিত শীঘ্র গমন বা বিজয় হেতু হইয়া বসন্ত ইত্যাদি ঋতুতে উত্তম-উত্তম পদার্থ গুলি সম্পাদন করিয়া অন্ন ও জলকে শুদ্ধ বা সুখদায়ক করিয়া দেয় এমন জানা উচিত ॥ ৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অগ্নে॑ বাজজি॒দ্ বাজং॑ ত্বা সরি॒ষ্যন্তং॑ বাজ॒জিত॒ꣳ সম্মা॑র্জি্ম ।
নমো॑ দে॒বেভ্যঃ॑ স্ব॒ধা পি॒তৃভ্যঃ॑ সু॒য়মে॑ মে ভূয়াস্তম্ ॥ ৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নে বাজজিদিত্যস্য ঋষিঃ স এব । অগ্নির্দেবতা । বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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