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यजुर्वेद अध्याय - 2

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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 9
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - जगती, स्वरः - निषादः
    3

    अग्ने॒ वेर्हो॒त्रं वेर्दू॒त्यमव॑तां॒ त्वां द्यावा॑पृथि॒वीऽअव॒ त्वं द्यावा॑पृथि॒वी स्वि॑ष्ट॒कृद्दे॒वेभ्य॒ऽइन्द्र॒ऽआज्ज्ये॑न ह॒विषा॑ भू॒त्स्वाहा॒ सं ज्योति॑षा॒ ज्योतिः॑॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्नेः॑। वेः। हो॒त्रम्। वेः। दू॒त्य᳖म्। अव॑ताम्। त्वाम्। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। अव॑। त्वम्। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। दे॒वेभ्यः॑। इन्द्रः॑। आज्ये॑न। ह॒विषा॑। भू॒त्। स्वाहा॑। सम्। ज्योति॑षा। ज्योतिः॑ ॥९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने वेर्हात्रँवेर्दूत्यम् अवतांन्त्वान्द्यावापृथिवीऽअव त्वन्द्यावापृथिवी स्विष्टकृद्देवेभ्यऽइन्द्रऽआज्येन हविषा भूत्स्वाहा सञ्ज्योतिषा ज्योतिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। वेः। होत्रम्। वेः। दूत्यम्। अवताम्। त्वाम्। द्यावापृथिवीऽइति द्यावाऽपृथिवी। अव। त्वम्। द्यावापृथिवीऽइति द्यावाऽपृथिवी। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। देवेभ्यः। इन्द्रः। आज्येन। हविषा। भूत्। स्वाहा। सम्। ज्योतिषा। ज्योतिः॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्तेन किं भवतीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे परमेश्वर! ये द्यावापृथिवी यज्ञमवतां रक्षतस्ते त्वं वेः रक्ष। यथायमग्निर्होत्रं दूत्यं च कर्म प्राप्तो द्यावापृथिवी रक्षति, तथा हे भगवन्! देवेभ्यः स्विष्टकृत् त्वमस्मान् वेः सदा पालय। यथायमाज्येन हविषा ज्योतिषा सह ज्योतिः स्विष्टकृदिन्द्रो द्यावापृथिव्यो रक्षको भूद्भवति, तथा त्वं विज्ञानज्योतिःप्रदानेनास्मान् समवेति स्वाहा॥९॥

    पदार्थः

    (अग्ने) परमेश्वर भौतिको वा (वेः) विद्धि, वेदयति प्रापयति वा। अत्रोभयत्र लडर्थे लङ्। वी गति॰ इत्यस्य प्रयोगोऽ[भावश्च (होत्रम्) जुह्वति यस्मिन् तद्यज्ञकर्म (वेः) विद्धि वेदयति प्रापयति वा। (दूत्यम्) दूतस्य कर्म तत्। दूतस्य भागकर्मणी (अष्टा॰४.४.१२१) अनेन यत्प्रत्ययः (अवताम्) रक्षतः (त्वाम्) तत् (द्यावापृथिवी) द्यौश्च पृथिवी च ते, दिवो द्यावा [अष्टा॰६.३.२९] अनेन द्वन्द्वे समासे दिवः स्थाने द्यावादेशः। (अव) रक्ष रक्षति वा, अत्र पक्षे व्यत्ययः। (त्वम्) स वा। (द्यावापृथिवी) अस्मत्प्राप्ते न्यायप्रकाशपृथिवीराज्ये। द्यावापृथिवी इति पदनामसु पठितम् (निघं॰५.३) इत्यत्र प्राप्त्यर्थो गृह्यते (स्विष्टकृत्) यः शोभनमिष्टं करोति सः (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यसुखेभ्यो वा (इन्द्रः) भौतिकः सूर्य्यो वायुर्वा। इन्द्रेण वायुना (ऋ॰१.१४.१०) अनेनेन्द्रशब्देन वायुरपि गृह्यते। (आज्येन) यज्ञेऽग्नौ च प्रक्षेपितुं योग्येन घृतादिना (हविषा) हविषा संस्कृतेन होतव्येन पदार्थेन (भूत्) भवति। अत्र लडर्थे लुङ्। अ[भावश्च (स्वाहा) वेदवाणीदं कर्माह (सम्) सम्यगर्थे। (ज्योतिषा) तेजस्विना लोकसमूहेन सह (ज्योतिः) प्रकाशवान् द्युतेरिसन्नादेश्च जः (उणा॰२.१०५) इति द्युत् धातोरिसन् प्रत्यय आदेर्जकारादेशश्च॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.४.१.४-३) व्याख्यातः॥९॥

    भावार्थः

    ईश्वरो मनुष्येभ्यो वेदेषूपदिष्टवानस्ति। मनुष्यैर्यद्यदग्निपृथिवीसूर्य्यवाय्वादिभ्यः पदार्थेभ्यः होत्रं दूत्यं च कर्मनिमित्तं विदित्वाऽनुष्ठीयते तत्तदिष्टकारि भवति। अष्टममन्त्रेण यज्ञसाधनं यदुक्तं तत्फलं नवमेन प्रकाशितमिति॥९॥

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    विषयः

    पुनस्तेन किं भवतीत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे [अग्ने !] परमेश्वर (परमेश्वर) भौतिको वा ! ये द्यावापृथिवी द्यौश्च पृथिवी च ते यज्ञमवताम्=रक्षतस्ते त्वं स वा वे:=रक्ष विद्धि (वेदयति प्रापयति वा)।

    यथाऽयमग्निर्होत्र जुह्वति यस्मिन् तद्यज्ञकर्म दूत्यं च कर्म दूतस्य कर्म तत् प्राप्तो द्यावापृथिवी अस्मत्प्राप्ते न्यायप्रकाशपृथिवीराज्ये [अव]=रक्षति तथा हे भगवन् ! देवेभ्यो विद्वद्भ्यो दिव्यसुखेभ्यो वा स्विष्टकृत् य: शोभनमिष्टं करोति स त्वमस्मान् वेः=सदा पालय (विद्धि)

    यथाऽयमाज्येन यज्ञेऽग्नौ च प्रक्षेपितुं योग्येन घृतादिना हविषा संस्कृतेन होतव्येन पदार्थेन ज्योतिषा तेजस्विना लोकसमूहेन सह ज्योतिः प्रकाशवान् स्विष्टकृद् यः शोभनमिष्टं करोति इन्द्र: भौतिकः सूर्यो वायुर्वा द्यावापृथिव्यो रक्षको भूत्-भवति, तथा त्वं विज्ञानज्योतिःप्रदानेनाऽस्मान् सम्+अव सम्यग्रक्ष (रक्षति वा) इति स्वाहा वेदवाणीदं कर्माऽऽह ॥ २।६॥

     

    पदार्थः

    (अग्ने) परमेश्वर भौतिको वा (वेः) विद्धि वेदयति प्रापयति वा । अत्रोभयत्र लडर्थे लङ् । वी गति० इत्यस्य प्रयोगोऽडभावश्च (होत्रम्) जुह्वित यस्मिन् तद्यज्ञकर्म (वेः) विद्धि-वेदयति प्रापयति वा । (दूत्यम्) दूतस्य कर्म तत् । दूतस्य भागकर्मणी ॥ अ०।४।४। १२१ ॥ अनेन यत्प्रत्ययः (अवताम्) रक्षतः (त्वाम्) तत् (द्यावापृथिवी) द्यौश्च पृथिवी च ते। दिवो द्यावा ॥ अ० ६ । ३ । २९ ॥ अनेन द्वन्द्वे समासे दिवः स्थाने द्यावादेशः (अव) रक्ष रक्षति वा । अत्र पक्षे व्यत्ययः (त्वम्) स वा (द्यावापृथिवी) अस्मत्प्राप्ते न्यायप्रकाशपृथिवीराज्ये । द्यावापृथिवी इति पदनामसु पठितम् ॥ निघं० ५। ३ ॥ इत्यत्र प्राप्त्यर्थो गृह्यते (स्विष्टकृत्) यः शोभनमिष्टं करोति सः (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यसुखेभ्यो वा (इन्द्रः) भौतिक: सूर्यो वायुर्वा । इन्द्रेण वायुना ॥ ऋ० १ । १४ । १० ॥ अनेनेन्द्रशब्देन वायुरपि गृह्यते (प्राज्येन) यज्ञेऽग्नौ च प्रक्षेपितुं योग्येन घृतादिना (हविषा) संस्कृतेन होतव्येन पदार्थेन (भूत् ) भवति । अत्र लडर्थे लुङ् । अडभावश्च (स्वाहा) वेदवाणीदं कर्माह (सम्) सम्यगर्थे (ज्योतिषा) तेजस्विना लोकसमूहेन सह (ज्योतिः) प्रकाशवान् द्युतेरिसन्नादेश्चजः ॥ उ० २ । १०५ ॥ इति द्युतधातोरिसन्प्रत्यय आदेर्जकारादेशश्च ॥ अयं मंत्रः श०१।४।५।४--९ व्याख्यातः ॥९॥

    भावार्थः

    [अयमग्निर्होत्रं 'दूत्यं च कर्म प्राप्तो द्यावापृथिवी [अव] रक्षति.....हे भगवन् !..... "स्विष्टकृत् त्वमस्मान् वेः= सदा पालय]

    ईश्वरो मनुष्येभ्यो वेदेषूपदिष्टवानस्ति--मनुष्यैर्यद्यदग्निपृथिवीसूर्यवाय्वादिभ्यः पदार्थेभ्यो होत्रं दूत्यं च कर्मनिमित्तं विदित्वाऽनुष्ठीयते तत्तदिष्टकारि भवति ।

    [मन्त्रसंगतिमाह--]

    अष्टममन्त्रेण यज्ञसाधनं यदुक्तं तत्फलं नवमेन प्रकाशितमिति ॥ २।९॥

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः । अग्निः=ईश्वरः, भौतिकोऽग्निश्च ॥ जगती। निषादः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उस यज्ञ से क्या लाभ होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) परमेश्वर! जो (द्यावापृथिवी) प्रकाशमय सूर्यलोक और पृथिवी यज्ञ की (अवताम्) रक्षा करते हैं, उनकी (त्वम्) आप (वेः) रक्षा करो तथा जैसे यह भौतिक अग्नि (होत्रम्) यज्ञ और (दूत्यम्) दूत कर्म को प्राप्त होकर (द्यावापृथिवी) प्रकाशमय सूर्य्यलोक और पृथिवी की रक्षा करता है, वैसे हे भगवान्! (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (स्विष्टकृत्) उनकी इच्छानुकूल अच्छे-अच्छे कार्य्यों के करने वाले आप हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये। जो यह (आज्येन) यज्ञ के निमित्त अग्नि में छोड़ने योग्य घृत आदि उत्तम-उत्तम पदार्थ (हविषा) संस्कृत अर्थात् अच्छी प्रकार शुद्ध किये हुए होम के योग्य कस्तूरी केसर आदि पदार्थ वा (ज्योतिषा) प्रकाशयुक्त लोकों के साथ (ज्योतिः) प्रकाशमय किरणों से (स्विष्टकृत्) अच्छे-अच्छे वांछित कार्य्य सिद्ध कराने वाला (इन्द्रः) सूर्य्यलोक भी (द्यावापृथिवी) हमारे न्याय वा पृथिवी के राज्य की रक्षा करने वाला (अभूत्) होता है, वैसे आप (ज्योतिः) विज्ञानरूप ज्योति के दान से हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये, इस कर्म को (स्वाहा) वेदवाणी कहती है॥९॥

    भावार्थ

    ईश्वर ने मनुष्यों के लिये वेदों में उपदेश किया है कि जो-जो अग्नि, पृथिवी, सूर्य्य और वायु आदि पदार्थों के निमित्तों को जान के होम और दूतसम्बन्धी कर्म का अनुष्ठान करना योग्य है, सो-सो उनके लिये वांछित सुख के देने वाले होते हैं। अष्टम मन्त्र से कहे हुए यह साधन का फल नवमें मन्त्र से प्रकाशित किया है॥९॥

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    विषय

    फिर उस यज्ञ से क्या लाभ होता है, यह उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    हे [अग्ने!] परमेश्वर अथवा भौतिक अग्ने! जो (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी लोक यज्ञ की (अवताम्) रक्षा करते हैं, उनकी (त्वम्) आप या यह भौतिक अग्नि (वेः) रक्षा करें।

    जैसे यह अग्नि (होत्रम्) यज्ञ-कर्म और (दूत्यम्) दूत-कर्म को प्राप्त होकर (द्यावापृथिवी) हमारे के लिए प्राप्त न्याय-प्रकाश और पृथिवी के राज्य की [अव] रक्षा करता है, वैसे हे भगवन्! (देवेभ्यः) विद्वानों वा दिव्यसुखों के लिए (स्विष्टकृत्) अच्छे-अच्छे इष्ट कार्यों को सिद्ध करने वाला तू भौतिक-अग्नि हमारी भी (वेः) सदा पालना कर।

    जैसे यह=अग्नि (आज्येन) यज्ञ और अग्नि में डालने योग्य घृतादि से (हविषा) शुद्ध हव्य पदार्थ से (ज्योतिषा) तेजस्वी लोकसमूह के साथ (ज्योतिः) प्रकाशमान (स्विष्टकत्) बहुत इष्टकारी (इन्द्रः) सूर्य्य अथवा वायु (द्यावापृथिवी) हमारे लिए प्राप्त न्याय-प्रकाश और पृथिवी के राज्य का रक्षक (भूत्) है, वैसे तू=जगदीश्वर विज्ञान रूप ज्योति के दान से हमारी (सम्+अव) भली-भाँति सदा रक्षा कर, ऐसा (स्वाहा) वेदवाणी ने इस कर्त्तव्य-कर्म का उपदेश किया है॥२।९॥

    भावार्थ

    ईश्वर ने मनुष्यों को वेदों में उपदेश किया है--मनुष्य जो-जो अग्नि, सूर्य, वायु, आदि पदार्थों से अग्निहोत्र और दूतकर्म को कर्म का निमित्त जानकर करते हैं, वह कर्म इष्टकारक होता है।

    आठवें मन्त्र में जो यज्ञ के साधनों का उपदेश किया है यहाँ नवम मन्त्र में उस यज्ञ के फल को प्रकाशित किया है॥२।९॥

    भाष्यसार

    यज्ञ--द्यौ और पृथिवी यज्ञ की रक्षा करती हैं और उनकी ईश्वर रक्षा करता है। यज्ञ में होम करने योग्य शुद्ध घृत आदि पदार्थों से सूर्य और वायु, द्यौ और पृथिवी की रक्षा करते हैं। सूर्य ज्योतिर्मय लोकों का प्रकाशक और स्वयं भी प्रकाशवान् है, जो अत्यन्त इष्टकारी (लाभकारी) है।

    ईश्वर प्रार्थना--हे अग्ने=परमेश्वर! आप द्यौ और पृथिवी की रक्षा कीजिए। हे भगवन्! आप विद्वानों वा दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिए अत्यन्त इष्टकारी हो। अतः आप हमारी सदा पालना करो। आप सूर्य के समान विज्ञान ज्योति प्रदान करके हमारी रक्षा कीजिये॥

    अग्नि--भौतिक अग्नि, अग्निहोत्र और दूतकर्म का साधक है। न्यायप्रकाश और पृथिवीराज्य रक्षक है ॥

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्निः=ईश्वरः, भौतिकोऽग्निश्च।  जगती। निषादः॥

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    विषय

    होत्रं, दूत्यम् [ देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ ]

    पदार्थ

    प्रभु अपने उपासक से कहते हैं कि  १. ( अग्ने ) = हे उन्नति-पथ पर चलनेवाले जीव! ( होत्रम् ) = अग्निहोत्र को—देवयज्ञ को—देवताओं को देकर यज्ञशेष के खाने की वृत्ति को तू ( वेः ) = अपने अन्दर प्रेरित कर [ वी = गति, वीर् गतौ ]। तू सदा यज्ञ करनेवाला बन। 

    २. ( दूत्यम् ) = दूत कर्म को तू ( वेः ) = अपने में प्रेरित कर। जैसे दूत सन्देश-वहन का काम करता है, उसी प्रकार तू प्रभु के सन्देश-वहन के कार्य को करनेवाला बन। प्रभु की दी हुई इस वेदवाणी को पढ़ता हुआ तू इसका सन्देश औरों को सुनानेवाला बन। वस्तुतः ब्रह्मयज्ञ तो यही है। 

    ३. इन यज्ञों को ठीक से चलाने के लिए ( द्यावापृथिवी ) = [ मूर्ध्नो द्यौः, पृथिवी शरीरम् ] मस्तिष्क व शरीर ( त्वा ) = तेरा ( अवताम् ) = रक्षण करें। ( त्वम् ) = तू भी ( द्यावापृथिवी ) = इन मस्तिष्क व शरीर का ( अव ) = रक्षण कर। तू इनका ध्यान कर, ये तेरा ध्यान करें। स्वस्थ मस्तिष्क व शरीर मनुष्य की सब क्रियाओं के साधक होते हैं, अतः मनुष्य को भी इनका पूरा ध्यान रखना है।

    ४. मस्तिष्क व शरीर को स्वस्थ रखनेवाला ( इन्द्रः ) = यह जितेन्द्रिय पुरुष ( देवेभ्यः ) = अग्नि, वायु आदि देवों के लिए ( आज्येन ) = घृत से तथा ( हविषा ) = हविर्द्रव्यों से, सामग्री आदि से ( स्विष्टकृत् ) = [ सु+इष्ट+कृत् ] उत्तम यज्ञों को करनेवाला ( भूत् ) = हो। मस्तिष्क व शरीर के स्वास्थ्य का रहस्य ‘इन्द्र’ शब्द से व्यक्त हो रहा है। ‘इन्द्रः’ का अर्थ है जितेन्द्रिय। जितेन्द्रियता ही स्वास्थ्य का मूल मन्त्र है। यह जितेन्द्रिय पुरुष कभी स्वादवश न खाएगा और न रोगी होगा। रसमूला हि व्याधयः— स्वाद ही बीमारियों का मूल है। ( स्वाहा ) = यह ‘स्व’ स्वार्थ का ‘हा’ = त्याग तो उसमें सदा बना ही रहे। 

    ५. हे इन्द्र! तू  ( ज्योतिषा ) = ज्योति के द्वारा ( ज्योतिः सम् ) [ गच्छस्व ] = ज्योति को प्राप्त करनेवाला बन। सदा ज्ञानियों के सम्पर्क में आकर तू अपने ज्ञान को बढ़ा और ज्ञानवृद्ध होकर इस ज्ञान के सन्देश को दूसरों तक पहुँचानेवाला बन। इस प्रकार तेरा जीवन ‘होत्र व दूत्य’ से परिपूर्ण हो।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम स्वस्थ शरीरवाले बनकर यज्ञ आदि कर्मों में निरत रहें और स्वस्थ मस्तिष्कवाले बनकर प्रभु की ज्ञान-ज्योति को प्राप्त करने व करानेवाले बनें।

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    विषय

    दूतस्थापन, सत्पुरुष रक्षा, ऐश्वर्य प्राप्ति ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्नि के समान दूरगामी, प्रकाशक, सर्व पदार्थों को अपने भीतर लेनेहारे व्यापक राजन् ! तू ( होत्रम् ) अग्नि जिस प्रकार यज्ञ का सम्पादन और रक्षण करता है उस प्रकार तू (होत्रम् वेः ) सबको अपने भीतर लेने व राष्ट्र की सुव्यवस्था करके, संग्रह करने के कर्म की और ( दूत्यम् ) दूत के सन्धिविग्रह आदि कर्म की ( वेः ) रक्षा कर । ( द्यावापृथिवी ) द्यौ और पृथिवी जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के महान् यज्ञ की रक्षा करते हैं उसी प्रकार द्यौ और पृथिवी 'द्यौः ' प्रकाशरूप, ज्ञानी न्यायविभाग और पृथिवी बड़ी राज्यसत्ता दोनों अथवा स्त्री, पुरुष, राजा प्रजाएं दोनों (त्वाम् ) तेरी ( अवतान् ) रक्षा करें। और ( त्वम् ) तू ( द्यावा पृथिवी ) पूर्व कहे द्यौ और पृथिवी दोनों की (अव) रक्षा कर तू ( देवेभ्यः ) देव विद्वानों के लिये ( सु-इष्टकृत् ) शोभन और उनके इच्छानुकूल कार्य करने हारा हो । (आज्येन ) जिस प्रकार 'आज्य ' घृत आदि पुष्टिकारक तेजोमय पदार्थ ( हविषा ) अन्न आदि चरु से ( इन्द्रः ) वायु, अधिक गुणकारक (भूत) हो जाता है उसी प्रकार ( आज्येन हविषा ) बलकारी, संग्रामोपयोगी ( हविषा ) अन्न और शस्त्रादि सामग्री से ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( भूत् ) समर्थ होता है । (सु आह ) वेदवाणी इसका उपदेश करती है । ( ज्योतिः ) जितने ज्योतिर्मय, सुवर्ण आदि कान्तिमान् बल पराक्रम के पदार्थ हों वे ( ज्योतिषा ) ज्योतिर्मय तेजस्वी राजा के साथ ( सम् ) संगत हों । रत्न आदि पदार्थ यशस्वी राजा को प्राप्त हों अथवा ( ज्योतिषा ) तेजस्वी विद्वान् लोक समूह के साथ (ज्योतिः) प्रकाशवान् राजा सदा (समू) संगत रहे । शत० १।५।१।४--७ ॥ 
     

    टिप्पणी

    ९ अग्निर्देवता । द० 1 अवृताम् त्वा द्यावा ०' इति काण्व० । 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
    इन्द्र आज्यमग्निर्वा देवता । जगती । निषादः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ईश्वराने वेदाद्वारे माणसांना उपदेश केलेला आहे की, जो अग्नी, पृथ्वी, सूर्य व वायू इत्यादी पदार्थांचे निमित्त आहे त्या अग्नीद्वारे होम केला पाहिजे. तो दूताचे कर्मही करण्यायोग्य आहे व सर्व माणसांना मनोवांछित सुख देणारा आहे. आठव्या मंत्रात सांगितलेल्या साधनेचे फळ नवव्या मंत्रात स्पष्ट केलेले आहे.

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    विषय

    यज्ञामुळे कोणते लाभ प्राप्त होतात, हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) परमेश्‍वरा, जे जन (द्यावापृथिवी) प्रकाशमय सूर्य आणि पृथ्वी यज्ञाचे रक्षण करतात (जे यज्ञ करणारे याज्ञिकजन आहेत) त्यांचे (त्वम्) तू (वे:) रक्षण कर, ज्याप्रमाणे हा भौतिक अग्नी (होत्रम्) यज्ञास आणि (दूत्यम्) दूतकर्मास प्राप्त होऊन (द्यावापृथिवी) प्रकाशमय सूर्यलोकाचे आणि पृथ्वीचे रक्षण करतो, त्याप्रमाणे हे भगवान, (देवेभ्य:) विद्वज्नजनांसाठी (स्विष्टकृत्) त्यांच्या इच्छेप्रमाणे उत्तम फळ देणारा तू आम्हां याज्ञिकांचे (अव) रक्षण कर. (आज्येन) यज्ञा ग्रीव आहुती देण्यास योग्य असे जे घृत आदी उत्तम पदार्थ आहेत, जे (दृविषा) संस्कृत म्हणजे चांगल्या प्रकारे शुद्ध केलेले हो करण्यास योग्य असे कस्तूरी, केशर आदी पदार्थ आहेत, त्याद्वारे केलेला यज्ञ ज्याप्रमाणे पृथ्वीच्या राज्याचे रक्षण करणारा होतो, तसेच (ज्योतिषा) प्रकाशयुक्त लोकांना (ज्योति:) प्रकाशमय किरणांनी प्रकाशित करणारा व (स्वष्टकृत्) चांगल्या वांछित कार्यांना पूर्णत्व देणारा (इन्दु:) सूर्यलोक देखील (द्यावापृथिवी) आमच्या न्यायाने प्रशासित अशा पृथ्वीच्या राज्याचे रक्षण करणारा (अभूत्) होतो, त्याप्रमाणे हे परमेश्‍वरा, तू देखील (ज्योति:) विज्ञानरूप ज्योतीचे दान देऊन आम्हा याज्ञिकजनांचे (अव) रक्षण कर. अशा प्रकारे यज्ञकर्म करण्यासाठी (स्वाहा) वेदवाणी आम्हांस सांगत आहे. ॥9॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ईश्‍वराने वेदामध्ये मुनष्यांसाठी असा उपदेश केला आहे की अग्नी, पृथ्वी, सूर्य आणि वायू आदी पदार्थांच्या (गुणांचे व) यथोचित उपयोगांचे ज्ञान संपादित करून होम करावे. दूतकर्म विषयक कर्माचे म्हणजे यज्ञाचे अनुष्ठान करणे उचित आहे. असे केल्याने ते यज्ञादी अनुष्ठान वांछित फळाची, सुखाची प्राप्ती करून देणारे होतात. ॥9॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Oh God protect the sun and earth, which protect the yajna. Just as fire acquiring the yajna and acting as an envoy, protects the sun and earth, so protect us, Oh Lord the doer of the noble deeds for the learned. Just as the sun combining light with light through the oblations put into fire, protects the heaven and earth so God guard us with the light of spiritual knowledge. This is thus ordained in the Veda.

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    Meaning

    Agni, Lord of light and life, protect the act of yajna into the fire, protect the fiery rise of fragrance into the sky, protect the heaven and the earth, and may the heaven and the earth carry on your blessed purpose of yajna. May the sun, light of the world, with its radiance convert the libation of holy materials into the richest food for nature and for holy men. This is the voice of Divinity.

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    Translation

    O fire, undertake duties of the priest and those of the messenger. May heaven and earth protect you. Protect heaven and earth. May the resplendent Lord be gracious to learned people by this oblation of melted butter. Svaha. May the light mingle with light. (1)

    Notes

    Veh, undertake. Uvata derives this word from विद् ज्ञाने and translates it as ‘may you know’. Hotram, duties of the priest. Dutyam, duties of the messenger. Svistkrt, one who does as desired, i. e. gracious. Havisa, with the offering. Sam jyotisa jyotih, gacchatam is to be added to complete the meaning. May the light mingle with light.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তেন কিং ভবতীত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সেই যজ্ঞ থেকে কী লাভ হয় তাহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে প্রকাশিত করা হইতেছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) পরমেশ্বর ! যে (দ্যাবাপৃথিবী) প্রকাশময় সূর্য্যলোক এবং পৃথিবী যজ্ঞের (অবতাম্) রক্ষা করে তাহাদের (ত্বম্) আপনি (বেঃ) রক্ষা করুন তথা যেমন এই ভৌতিক অগ্নি (হোত্রম্) যজ্ঞ এবং (দূত্যম্) দূত কর্ম প্রাপ্ত হইয়া (দ্যাবাপৃথিবী) প্রকাশময় সূর্য্যলোক এবং পৃথিবীর রক্ষা করে, সেইরূপ হে ভগবান । (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের জন্য (স্বিষ্টকৃৎ) তাঁহাদের ইচ্ছানুকূল ভাল ভাল কার্য্য করেন বলিয়া আপনি আমাদিগের (অব) রক্ষা করুন । এই যে (আজ্যেন) যজ্ঞের নিমিত্ত অগ্নিতে আহুতি দিবার যোগ্য ঘৃতাদি উত্তমোত্তম পদার্থ (হবিষা) সংস্কৃত অর্থাৎ উত্তম প্রকার শুদ্ধ কৃত হোমের যোগ্য কস্তুরী, কেশর ইত্যাদি পদার্থ অথবা (জ্যোতিষা) প্রকাশযুক্ত লোক-লোকান্তর সহ (জ্যোতিঃ) প্রকাশময় কিরণ দ্বারা (স্বিষ্টকৃৎ) ভাল ভাল বাঞ্ছিত কার্য্য সিদ্ধকারী (ইন্দ্রঃ) সূর্য্যলোকও (দ্যাবাপৃথিবী) আমাদিগের ন্যায় বা পৃথিবীর রাজ্যের রক্ষক (অভূৎ) হয় সেইরূপ আপনি (জ্যোতিঃ) বিজ্ঞানরূপ জ্যোতির দানে আমাদিগেরও (অব) রক্ষা করুন । এই সব কর্মকে (স্বাহা) বেদবাণী বলা হয় ॥ ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- ঈশ্বর মনুষ্যদিগের জন্য বেদে উপদেশ দিতেছেন যে, যে-যে অগ্নি, পৃথিবী, সূর্য্য এবং বায়ু ইত্যাদি পদার্থ সকলের নিমিত্তকে জানিয়া হোম এবং দূত সম্পর্কীয় কর্মের অনুষ্ঠান করা উচিত তাহা তাহাদিগের জন্য বাঞ্ছিত সুখ প্রদান করিয়া থাকে । অষ্টম মন্ত্রে কথিত এই সাধনের ফল নবম মন্ত্র দ্বারা প্রকাশিত হইয়াছে ।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অগ্নে॒ বের্হো॒ত্রং বের্দূ॒ত্য᳕মব॑তাং॒ ত্বাং দ্যাবা॑পৃথি॒বীऽঅব॒ ত্বং দ্যাবা॑পৃথি॒বী স্বি॑ষ্ট॒কৃদ্দে॒বেভ্য॒ऽইন্দ্র॒ऽআজ্জ্যে॑ন হ॒বিষা॑ ভূ॒ৎস্বাহা॒ সং জ্যোতি॑ষা॒ জ্যোতিঃ॑ ॥ ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নে বেরিত্যস্য ঋষিঃ স এব । অগ্নির্দেবতা । জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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