यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 18
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
3
स॒ꣳस्र॒वभा॑गा स्थे॒षा बृ॒हन्तः॑ प्रस्तरे॒ष्ठाः प॑रि॒धेया॑श्च दे॒वाः। इ॒मां वाच॑म॒भि विश्वे॑ गृ॒णन्त॑ऽआ॒सद्या॒स्मिन् ब॒र्हिषि॑ मादयध्व॒ꣳ स्वाहा॒ वाट्॥१८॥
स्वर सहित पद पाठस॒ꣳस्र॒वभा॑गाः। स्थ॒। इ॒षा। बृ॒हन्तः॑। प्र॒स्तरे॒ष्ठाः। प॒रि॒धेयाः॑। च॒। दे॒वाः। इ॒माम्। वाच॑म्। अ॒भि। विश्वे॑। गृ॒णन्तः॑। आ॒सद्य॑। अ॒स्मिन्। ब॒र्हिषि॑। मा॒द॒य॒ध्व॒म्। स्वाहा॑। वाट् ॥१८॥
स्वर रहित मन्त्र
सँस्रवभागा स्थेषा बृहन्तः प्रस्तरेष्ठाः परिधेयाश्च देवाः । इमाँवाचमभि विश्वे गृणन्तऽआसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयध्वँ स्वाहा वाट् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सꣳस्रवभागाः। स्थ। इषा। बृहन्तः। प्रस्तरेष्ठाः। परिधेयाः। च। देवाः। इमाम्। वाचम्। अभि। विश्वे। गृणन्तः। आसद्य। अस्मिन्। बर्हिषि। मादयध्वम्। स्वाहा। वाट्॥१८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
स यज्ञः कथं किमर्थञ्च कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे बृहन्तः प्रस्तरेष्ठाः परिधेयाः देवा विद्वांसो यूयमिमां वाचमभिगृणन्त इषा संस्रवभागा स्थ भवत स्वाहावाडासाद्यास्मिन् बर्हिषि मादयध्वमन्यानेतल्लक्षणान् मनुष्यान् कृत्वा हर्षयत चैवमस्मिन् बर्हिषि इमां वाचमभिगृणद्भिर्युष्माभिरिषा स्वाहा वाडासाद्य प्रस्तरेष्ठा विश्वेदेवाः सर्वे विद्वांसः सदा परिधेयाः। तान् प्राप्य चास्मिन् बर्हिषि मादयध्वम्॥१८॥
पदार्थः
(संस्रवभागाः) सम्यक् स्रूयन्ते ये ते संस्रवाः। भज्यन्ते ये ते भागाः। संस्रवा भागा येषां ते (स्थ) भवत (इषा) इष्यते ज्ञायते येन तदिट् ज्ञानम्। इष गतावित्यस्य क्विबन्तस्य रूपम्। कृतो बहुलम् [अष्टा॰३.३.११३ भा॰वा॰] इति करणे क्विप् (बृहन्तः) वर्धमाना वर्धयन्तश्च (प्रस्तरेष्ठाः) शुभे न्यायविद्यासने तिष्ठन्ति ते। तत्पुरुषे कृति बहुलम् (अष्टा॰६.३.१४) इति सप्तस्या अलुक् (परिधेयाः) परितः सर्वतो धातुं धापयितुमर्हाः (च) समुच्चयार्थे (देवाः) विद्वांसो दिव्याः पदार्था वा (इमाम्) प्रत्यक्षाम् (वाचम्) वचन्ति वाचयन्ति सर्वा विद्या यया ताम्। सत्यलक्षणां वेदचतुष्टयीम्। वागिति पदनामसु पठितम् (निघं॰५.५) (अभि) अभीत्याभिमुख्यं प्राह (निरु॰१.३) (विश्वे) सर्वे (गृणन्तः) स्तुवन्त उपदिशन्तो वा (आसद्य) समन्ताद् विज्ञाय स्थित्वा वा। (अस्मिन्) प्रत्यक्षप्राप्ते (बर्हिषि) बृंहन्ते वर्धयन्ते येन तद्बर्हिर्ज्ञानं प्राप्तं कर्मकाण्डं वा तस्मिन् (मादयध्वम्) हर्षयध्वम् (स्वाहा) सु आहेत्यस्मिन्नर्थे (वाट्) वहन्ति सुखानि यया क्रियया सा वाट् निपातोऽयम्। अयं मन्त्रः (शत॰१.८.३.२३-२६) व्याख्यातः॥१८॥
भावार्थः
ईश्वर आज्ञापयति ये मनुष्या धार्मिकाः पुरुषार्थिनो वेदविद्याप्रचारे उत्तमे व्यवहारे च नित्यं वर्त्तन्ते तेषामेव बृहन्ति सुखानि भवन्ति। यौ पूर्वस्मिन् मन्त्रेऽग्निशब्देनेश्वरभौतिकार्थावुक्तावनेन तयोः सकाशादीदृशा उपकारा ग्राह्या इत्युच्यते॥१८॥
विषयः
स यज्ञः कथं किमर्थञ्च कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे बृहन्तः! वर्धमाना वर्धयन्तश्च ! प्रस्तरेष्ठाः ! शुभे न्यायविद्याऽऽसने तिष्ठन्ति ते ! परिधेयाः ! परितः सर्वतो धातुं धापयितु-मही: ! देवाः!=विद्वांसो (विद्वांसाः) दिव्याः पदार्था वा ! यूयमिमां प्रत्यक्षां वाचं वचन्ति वाचयन्ति सर्वा विद्या यया ताम्, सत्यलक्षणां वेदचतुष्टयीम् अभिगृणन्तः अभिमुखं स्तुवन्त उपदिशन्तो वा इषा इष्यते ज्ञायते येन तदिट् ज्ञानं [तेन] संस्रवभागाः सम्यक् स्रूयन्ते ये ते संस्रवाः, भजन्ते ये ते भागाः, संस्रवा भागा येषां ते स्थ=भवत।
स्वाहा सु आहेत्यस्मिन्नर्थे वाट् वहन्ति सुखानि यया क्रियया सा वाट् आसद्य समन्ताद् विज्ञाय स्थित्वा वा अस्मिन् प्रत्यक्षप्राप्ते बर्हिषि बृहन्ते वर्धयन्ते येन तद्बहिर्ज्ञानं प्राप्तं कर्मकाण्डं वा तस्मिन् मादयध्वम्=अन्यानेतल्लक्षणान् मनुष्यान् कृत्वा हर्षयत हर्षयध्य च।
एवमस्मिन् बर्हिषि इमां वाचम् अभिगृणद्भिर्युष्माभिरिषा स्वाहा वाट् आसद्य प्रस्तरेष्ठा विश्वेदेवाः=सर्वे विद्वांसः सदा परिधेयाः, तान् प्राप्य चाऽस्मिन् बर्हिषि मादयध्वम् ॥ २ । १८ ॥
पदार्थः
(संस्रवभागाः) सम्यक् स्रूयन्ते ये ते संस्रवाः, भज्यन्ते ये ते भागाः, संस्रवा भागा येषां ते (स्थ) भवत (इषा) इष्यते ज्ञायते येन तदिट् ज्ञानम्, [तेन] इषगतावित्यस्य क्विवन्तस्य रूपम् । कृतो बहुलमिति करणे क्विप् (बृहन्तः) वर्धमाना वर्धयन्तश्च (प्रस्तरेष्ठाः) शुभे न्यायविद्यासने तिष्ठन्ति ते। तत्पुरुषे कृति बहुलम् ॥ अ० ६ । ३ । १४ ॥ इति सप्तम्या अलुक् (परिधेयाः) परितः सर्वतो धातुं धापयितुमर्हाः (च) समुच्चयार्थे (देवाः) विद्वांसो दिव्याः पदार्था वा (इमाम्) प्रत्यक्षाम् (वाचम्) वचन्ति वाचयन्ति सर्वा विद्या यया ताम्, सत्यलक्षणां वेदचतुष्टयीम् । वागिति पदनामसु पठितम् ॥ निघं० ५॥ ५ ॥ (अभि) अभीत्याभिमुख्यं प्राह ॥ निरु० १ ॥ ३ ॥ (विश्वे) सर्वे (गृणन्तः) स्तुवन्त उपदिशन्तो वा (आसद्य) समंताद्विज्ञाय स्थित्वा वा । (अस्मिन्) प्रत्यक्षप्राप्ते (बहिषि) बृहन्ते वर्धयन्ते येन तद्बर्हिर्ज्ञानं प्राप्तं कर्मकाण्डं वा तस्मिन् (मादयध्वम्) हर्षयध्वम् (स्वाहा) सु आहेत्यस्मिन्नर्थे (वाट्) वहन्ति, सुखानि यया क्रियया सा वाट् निपातोऽयम् । अयं मंत्रः । श० १। ८ । ३ । २५ व्याख्यातः॥ १८ ॥
भावार्थः
[हे बृहन्तः प्रस्तरेष्ठाः परिधेया देवाः=विद्वांसः ! यूयमियमां वाचमभिगृणन्तः]
ईश्वर आज्ञापयति—ये मनुष्या धार्मिकाः पुरुषार्थिनो वेदविद्याप्रचारे, उत्तमे व्यवहारे च नित्यं वर्त्तन्ते तेषामेव बृहन्ति सुखानि भवन्ति ।
[मन्त्रसंगतिमाह--]
यो पूर्वस्मिन् मन्त्रेऽग्निशब्दे नेश्वर भौतिकार्थावुक्तावनेन तयोः सकाशादीदृशा उपकारा ग्राह्या इत्युच्यते ॥ २।१८॥
विशेषः
परमेष्ठी प्रजापतिः । विश्वेदेवाः=विद्वांसः ॥ स्वराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
हिन्दी (4)
विषय
वह यज्ञ कैसे और किस प्रयोजन के लिये करना चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है॥
पदार्थ
हे (बृहन्तः) वृद्धि को प्राप्त होने (प्रस्तरेष्ठाः) उत्तम न्याय विद्यारूपी आसन में स्थित होने वाले (परिधेयाः) सब प्रकार से धारणावती बुद्धियुक्त (च) और (इमाम्) इस प्रत्यक्ष (वाचम्) चार वेदों की वाणी का उपदेश करने वाले (देवाः) विद्वानो! तुम (इषा) अपने ज्ञान से (संस्रवभागाः) घृतादि पदार्थों के होम में छोड़ने वाले (स्थ) होओ तथा (स्वाहा) अच्छे-अच्छे वचनों से (वाट्) प्राप्त होने और सुख बढ़ाने वाली क्रिया को प्राप्त होकर (अस्मिन्) प्रत्यक्ष (बर्हिषि) ज्ञान और कर्मकाण्ड में (मादयध्वम्) आनन्दित होओ, वैसे ही औरों को भी आनन्दित करो। इस प्रकार उक्त ज्ञान को कर्मकाण्ड में उक्त वेदवाणी की प्रशंसा करते हुए तुम लोग अपने विचार से उत्तम ज्ञान को प्राप्त होने वाली क्रिया को प्राप्त होकर (बृहन्तः) बढ़ने और (प्रस्तरेष्ठाः) उत्तम कामों में स्थित होने वाले (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम-उत्तम पदार्थ (परिधेयाः) धारण करो वा औरों को धारण कराओ और उनकी सहायता से उक्त ज्ञान वा कर्मकाण्ड में सदा (मादयध्वम्) हर्षित होओ॥१८॥
भावार्थ
ईश्वर आज्ञा देता है कि जो धार्मिक पुरुषार्थी वेदविद्या के प्रचार वा उत्तम व्यवहार में वर्त्तमान हैं, उन्हीं को बड़े-बड़े सुख होते हैं। जो पूर्व मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अर्थ कहे हैं, उनसे ऐसे-ऐसे उपकार लेना चाहिए सो इस मन्त्र में कहा है॥१८॥
विषय
वह यज्ञ कैसे और किस प्रयोजन के लिए करना चाहिए, यह उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे (बृहन्तः !) स्वयं बढ़ते वाले तथा अन्यों को बढ़ाने वाले ! (प्रस्तरेष्ठाः !) शुभ न्याय-विद्या के आसन पर विराजमान और (परिधेयाः !) सब ओर से धारण करने योग्य ! (देवाः !) विद्वानो ! वा दिव्य पदार्थो ! तुम सब (इमाम्) इस प्रत्यक्ष (वाचम्) सब विद्याओं का उपदेश करने वाली वेदवाणी की (अभिगृणन्तः) स्तुति वा उपदेश करते हुए (इषा) ज्ञान के द्वारा (संस्रवभागाः) घृत आदि पदार्थों से होम करने वाले (स्थ) हो। तथा-- (स्वाहा) मधुर-वाणी से (वाट्) सुख प्राप्त कराने वाले कर्म्मों को (आसद्य) प्राप्त होकर (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) वृद्धि को प्राप्त कराने वाले ज्ञान वा कर्म्म-काण्ड में (मादयध्वम्) हर्षित होओ, अन्य पुरुषों को भी इन लक्षणों से युक्त करके हर्षित करो।
इस प्रकार--इस यज्ञ में इस वेदवाणी का उपदेश करते हुए आप लोग ज्ञान से उत्तम सुख-कारक क्रियाओं को प्राप्त करके न्याय और विद्या के आसन पर विराजमान सब विद्वानों का सदा पालन करें, और उन्हें प्राप्त करके इस यज्ञ में सदा प्रसन्न रहें॥२।१८॥
भावार्थ
ईश्वर आज्ञा देता है--जो धार्मिक और पुरुषार्थी मनुष्य वेद विद्या के प्रचार और उत्तम व्यवहार में सदा वर्तमान रहते हैं उन्हें ही बड़े-बड़े सुख प्राप्त होते हैं।
पहले मंत्र में अग्नि शब्द से जो ईश्वर और भौतिक अग्नि अर्थ का ग्रहण किया है, इस मन्त्र के द्वारा उनसे इस प्रकार के उपकार ग्रहण करने चाहियें, यह उपदेश किया है॥२।१८॥
भाष्यसार
भाष्यसार--१. यज्ञ का प्रकार--वेद विद्या के ज्ञाता होने से सब से महान्, न्याय और विद्या के आसन पर विराजमान, विद्वान् लोग सत्य वेद विद्या का उपदेश करें। वेद विद्या का दान करना यज्ञ है। इस विद्या यज्ञ की बहती हुई धारा का विद्वान् लोग सेवन करते हैं, इस धारा में स्नान करते हैं।
२. यज्ञ का प्रयोजन--यज्ञ को वेदादि शास्त्रों ने श्रेष्ठ कर्म कहा है। यज्ञ-क्रिया से सब सुखों की प्राप्ति होती है। ज्ञान और कर्म के वर्धक इस यज्ञ से सब को हर्ष की प्राप्ति होती है। वेद विद्या वा उपदेश करने वाले विद्वानों का सम्मान, धारण और पोषण होता है। सर्वत्र हर्ष का संचार होता है॥२।१८॥
विशेष
परमेष्ठी प्रजापतिः। विश्वेदेवाः=विद्वांसः॥ स्वराट् त्रिष्टुप्। धैवतः॥
विषय
वेद का सन्देश
पदार्थ
१. गत मन्त्र में उपासक ने प्रार्थना की थी कि ‘मैं प्रभु को न भूलूँ’। इस भक्त से प्रभु कहते हैं कि ( सं-स्रव-भागाः स्थ ) = [ स्रु गतौ, भज् सेवायाम् ] उत्तम गतिवाले तथा उत्तम सेवन-पूजनवाले बनो। तुम्हारे कर्म उत्तम हों—तुम्हारा प्रभु-भजन उत्तम हो। कई बार प्रभु-भजन विकृत हो जाता है और हमें परस्पर द्वेष करनेवाला बनाता है। तुम्हारा प्रभु-पूजन तुम्हें ‘सर्वभूतहिते-रतः’ बनाये।
२. ( इषा ) = [ इष प्रेरणे ] प्रेरणा के द्वारा ( बृहन्तः ) = तुम अपना वर्धन करनेवाले बनो। मेरी प्रेरणा को सुनो और आगे बढ़ो।
३. ( प्रस्तरेष्ठाः ) = [ प्र स्तढ+स्थ ] प्रकृष्ट आच्छादन में तुम स्थित होओ, औरों के दोषों का उद्घोषण करते हुए तुम निन्दक न बन जाओ। इससे तुम्हारा अपना ही जीवन निकृष्ट बनेगा। ‘प्रस्तर’ का अर्थ पत्थर भी है। तब अर्थ इस प्रकार होगा कि तुम पत्थर पर स्थित होओ, अर्थात् पत्थर के समान अविचल होने की भावना को धारण करो। तुम्हें नीति-मार्ग से किसी प्रकार की स्तुति-निन्दा, सम्पत्ति का लोभ व मृत्यु का भय विचलित करनेवाला न हो।
४. ( परिधेयाः ) = तुम परिधि में चलनेवालों में उत्तम बनो। तुम्हारा जीवन उत्तम एवं मर्यादित हो।
५. ( च ) = और ( देवाः ) = [ दिव् क्रीडायाम् ] क्रीड़ा की भावनावाले बनो। संसार में जय-पराजय, हानि-लाभ व जीवन-मरण को क्रीड़ा के रूप में देखो। तुममें sportsman like spirit हो। यह खिलाड़ी पुरुष की भावना तुम्हें हर्ष-शोक के द्वन्द्व से ऊपर उठा दे।
६. बस, ( इमां वाचम् ) = इस वाणी को—इस उल्लिखित वेद-सन्देश को ( विश्वे ) = तुम सब ( अभिगृणन्तः ) = सोते-जागते उच्चारण करते हुए, अर्थात् सदा स्मरण करते हुए ( अस्मिन् ) = इस ( बर्हिषि ) = वासना-शून्य पवित्र हृदय में ( आसद्य ) = आसीन होकर ( मादयध्वम् ) = आनन्द का अनुभव करो। हम उल्लिखित वेद-सन्देश का जप तो करें ही, उस वाणी में स्थित भी हों, अर्थात् उसके अनुसार आचरण भी करें तभी हमारे हृदय वासनाशून्य बनेंगे।
७. जब हम इस वाणी का उच्चारण करते हुए इसके अनुकूल आचरण करेंगे तब ( स्वाहा ) = [ स्व-हा ] हम अपने स्वार्थ का त्याग और ( वाट् ) = [ वहन्ति क्रियया सुखम् ] औरों के लिए सुखों का वहन करनेवाले बनेंगे। धर्म का सार यही है कि ‘परोपकारः पुण्याय’ हम परोपकारी बनें। हमारे जीवन में ‘स्वाहा’ और वाट्—स्वार्थत्याग और पर-सुख-प्रापण की वृत्ति हो।
भावार्थ
भावार्थ — उत्तम कर्म, उत्तम उपासना, वेद की प्रेरणा के अनुसार शक्तिवर्धन, धर्म में स्थिरता, निन्दा-त्याग, मर्यादा का पालन और क्रीड़ा की भावना—यह वेद-सन्देश है। इस वाणी का जप और आचरण करके हम शुद्ध हृदय में आनन्द का अनुभव करें। हममें स्वार्थत्याग और परोपकार की भावना हो।
विषय
व्यवहार कुशल पुरुषों द्वारा राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा ।
भावार्थ
हे विद्वन् बलशाली राजा के नियुक्त अधिकारी पुरुषो ! आप लोग ( इषा ) ज्ञान, प्रेरक आज्ञा और शासन बल से (बृहन्तः ) बड़े शक्तिशाली और ( प्रस्तरेष्ठा: ) उत्तम आसन और आस्तरणों या पदों पर अधिष्ठित होने वाले (देवाः ) युद्ध में चतुर, व्यवहारज्ञ, विद्वान्, तेजस्वी और रखने योग्य ( परिधेयाः च ) रक्षा करने के लिये चारों ओर हो। आप लोग (संस्रवभागाः स्थ) उत्तम ऐश्वर्य के भागी बनो । आप ( विश्वे ) सब लोग ( इमाम् ) इस प्रत्यक्ष ( वाचम् ) वेदमय न्यायवाणी को ( अस्मिन् बर्हिषि ) इस न्यायासन या ज्ञानयज्ञ में ( आसद्य ) बैठकर ( मादयध्वम् ) हम सबको प्रसन्न करो और ( वट् ) समस्त सुखों को प्राप्त करने वाली वाणी और क्रिया से ( सु आहा ) उत्तम उपदेश करो और यश प्राप्त करो || शत० १ । २ । ३ । २५ ॥
टिप्पणी
१८ परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः द० 1८० परिधयश्च देवाः इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
सोमसृक्ष्मः सोमशुश्मो वा ऋषिः । विश्वेदेवाः देवताः । स्वराट् त्रिष्टुप् 1 धैवतः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
ईश्वर अशी आज्ञा देतो की जे लोक धार्मिक पुरुषार्थी, वेदविद्येचे प्रसारक व उत्तम व्यवहार करणारे असतात त्यांनाच अनेक प्रकारचे सुख प्राप्त होते. पूर्वीच्या मंत्रात अग्नीचा अर्थ ईश्वर व भौतिक अग्नी असा केलेला आहे. त्यांचा लाभ घेतला पाहिजे, असे या मंत्रात म्हटले आहे.
विषय
यज्ञ कोणत्या प्रकारे व कोणत्या प्रयोजनाने करावा, हे पुढील मंत्रात प्रकाशित केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (बृहन्ते:) वृद्धी व उत्कर्ष प्राप्त करणार्या (प्रस्तरेष्ठा:) न्याय्य विद्यारूप असनावर अधिष्ठान करणार्या, (परिङेया:) धारण आणि बुद्धीने युक त (इमाम्) या (वाचम्) चार वेदांचा उपदेश करणार्या (देवा:) विद्वजनहो, तुम्ही (इषा) आपला ज्ञानाने (संस्रवभागा:) होमामधे घृतादी पदार्थांची आहुती देणारे (स्थ) व्हा. (स्वाहा) मधुर प्रिय वचनांद्वारे (वाट्) प्राप्त होणारी व सुख वाढविणारी जी क्रिया व जे आचरण आहे, त्याचा (अस्मिन् या प्रत्यक्ष (बर्हिषि) ज्ञनामधे आणि कर्मकांडामधे (मादयध्वम्) आचरण करून स्वत: आनंदित रहा आणि इतरांनाही आनंदित करा. अशा प्रकारे ज्ञान आणि कर्मकांड यामधे वेदवाणीचा प्रयोग करीत तुम्ही सर्व जण विचार व ज्ञान प्राप्त करून देणारी क्रिया करीत (बृहनत:) स्वत:ची वृद्धी आणि उन्नती करा (प्रस्तरेष्ठा:) उत्तमकार्य करीत राहा (विश्वे) सर्व (देवा:) उत्तम पदार्थांना (परिघेया:) धारण करा, त्यांना प्राप्त करा आणि इतरांनाही ते प्राप्त होऊ द्या. सर्वांचे सहकार्य घेत ज्ञान-प्राप्ती आणि कर्माचरण यांमधे सद्य (मादयध्वम्) आनंदित राहा. ॥18॥
भावार्थ
भावार्थ - ईश्वराने आदेश दिला आहे की मनुष्यांनी धर्म, पुरूषार्थ, वेदविद्येचा प्रसार आणि उत्तम आचरण इ. सर्व करावे. जे लोक असे धार्मिक, पुरूषार्थी आहेत, वेदविद्येचा प्रचार करतात आणि श्रेष्ठ कर्म करतात, त्यांनाच सुख मिळते. तेच सुखी होतात. या आधीच्या मंत्रात अग्नी शब्दाचे ईश्वर आणि भौतिक अग्नी असे दोन अर्थ सांगितले आहेत, मनुष्यांनी त्यांपासून या मंत्रात सांगितलेले लाभ व उपकार घ्यावेत हे या मंत्रात सांगितले आहे. ॥18॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May ye thriving, justice loving, wise, learned persons, preachers of the knowledge of the Vedas, become supreme through knowledge. Let all seekers after truth, devotees of learning and action, attain to happiness. Preach My noble word, that brings all kinds of joys.
Meaning
Stay firm, dedicated children of the earth, on the rock-bed foundations of knowledge and justice, and, great and expansive within the bounds of Divine law, sit around this yajna fire on seats of grass, chanting the holy songs of praise, offering the honey-sweets of your produce to the fire and receiving from Agni, in return, the nectar of life. Thus you celebrate the Lord’s gift of life. Thus you enjoy in unison. Surrender and play your part, this is the voice of Divinity.
Translation
O learned persons, you are partakers of the progressive knowledge. You are strong with good nourishment. You participate in sacrifice and guard its enclosure. May all of you, applauding this speech of mine, come and sit upon the grassmat and enjoy. I dedicate; you carry. (1)
Notes
Samsravabhagah, partakers of progressive knowledge. Samsrava, progressive knowledge. Isa, with nourishment. Brhantah, strong; growing. Prastaresthah, literally, those who sit on grass-mats spread at the place of sacrifice; participants in the sacrifice. Paridheyah, those who guard the enclosure of the sacrifice. Abhigrnantah, applauding. Vat, like ‘svaha’, 'svadha' and ‘Vasat' the word ‘vat’ also is used for offering an oblation to gods. Here two words, ‘svaha’ and ‘vat’, are used together to denote complete dedication. ‘Vat' may mean ‘carry to gods. ’
बंगाली (1)
विषय
স য়জ্ঞঃ কথং কিমর্থঞ্চ কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
এই যজ্ঞ কেমন করিয়া এবং কী প্রয়োজন হেতু করা উচিত তাহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে প্রকাশিত করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (বৃহন্তঃ) বৃদ্ধি প্রাপ্ত হইবার (প্রস্তরেষ্ঠাঃ) উত্তম ন্যায় বিদ্যারূপী আসনে স্থিত হইবার (পরিধেয়াঃ) সর্বপ্রকারে ধারণাবতী বুদ্ধিযুক্ত (চ) এবং (ইমাম্) এই প্রত্যক্ষ (বাচম্) চারি বেদের বাণীর উপদেশ করিবার (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ তোমরা (ঈষা) স্বীয় জ্ঞান দ্বারা (সংস্রবভাগাঃ) ঘৃতাদি পদার্থের হোমে ত্যাগকারী (স্থ) হও তথা (স্বাহা) ভাল ভাল বচন দ্বারা (বাট্) প্রাপ্ত হইবার এবং সুখ বৃদ্ধি করিবার ক্রিয়া প্রাপ্ত হইয়া (অস্মিন্) প্রত্যক্ষ (বর্হিষি) জ্ঞান ও কর্মকান্ডে (মাদয়ধ্বম্) আনন্দিত হও । সেইরূপ অন্যকেও আনন্দিত কর । এই প্রকার উক্ত জ্ঞানকে কর্মকান্ডে উক্ত বেদবাণীর প্রশংসা করিয়া তোমরা স্বীয় বিচার দ্বারা উত্তম জ্ঞান প্রাপ্ত হইবার ক্রিয়া প্রাপ্ত হইয়া (বৃহন্তঃ) বৃদ্ধি এবং (প্রস্তরেষ্ঠাঃ) উত্তম কর্মে স্থিত হইয়া (বিশ্বে) সব (দেবাঃ) উত্তম-উত্তম পদার্থ (পরিধেয়াঃ) ধারণ কর বা অপরকে ধারণ করাও এবং তাহাদের সাহায্যে উক্ত জ্ঞান বা কর্মকান্ডে সর্বদা (মাদয়ধ্বম্) হর্ষিত হও ॥ ১৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- ঈশ্বর আজ্ঞা প্রদান করিতেছেন যে, যে ধার্মিক, পুরুষার্থী বেদবিদ্যা প্রচার বা উত্তম ব্যবহারে বর্ত্তমান তিনিই বৃহৎ সুখ প্রাপ্ত হয়েন । পূর্ব মন্ত্রে যাহা ঈশ্বর ও ভৌতিক অর্থ বলা হইয়াছে তাহা হইতে এমন উপকার গ্রহণ করা উচিত যাহা এই মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥ ১৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒ꣳস্র॒বভা॑গা স্থে॒ষা বৃ॒হন্তঃ॑ প্রস্তরে॒ষ্ঠাঃ প॑রি॒ধেয়া॑শ্চ দে॒বাঃ । ই॒মাং বাচ॑ম॒ভি বিশ্বে॑ গৃ॒ণন্ত॑ऽআ॒সদ্যা॒স্মিন্ ব॒র্হিষি॑ মাদয়ধ্ব॒ꣳ স্বাহা॒ বাট্ ॥ ১৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সংস্রবেত্যস্য পরমেষ্ঠী প্রজাপতির্ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । স্বরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal