यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 20
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - प्रजापत्यादयो देवताः
छन्दः - आद्यस्य भुरिग्धृतिः
स्वरः - ऋषभः
3
काय॒ स्वाहा॒ कस्मै॒ स्वाहा॑ कत॒मस्मै॒ स्वाहा॒ स्वाहा॒धिमाधी॑ताय॒ स्वाहा॒ मनः॑ प्र॒जाप॑तये॒ स्वाहा॑ चि॒त्तं विज्ञा॑ता॒यादि॑त्यै॒ स्वाहादि॑त्यै म॒ह्यै स्वाहादि॑त्यै सुमृडी॒कायै॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै पाव॒कायै॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै बृह॒त्यै स्वाहा॑ पू॒ष्णे स्वाहा॑ पू॒ष्णे प्र॑प॒थ्याय॒ स्वाहा॑ पू॒ष्णे न॒रन्धि॑षाय॒ स्वाहा॒ त्वष्ट्रे॒ स्वाहा॒ त्वष्ट्रे॑ तु॒रीपा॑य॒ स्वाहा॒ त्वष्ट्रे॑ पुरु॒रूपा॑य॒ स्वाहा॒ विष्ण॑वे॒ स्वाहा॒ विष्ण॑वे निभूय॒पाय॒ स्वाहा॒ विष्ण॑वे शिपिवि॒ष्टाय॒ स्वाहा॑॥२०॥
स्वर सहित पद पाठकाय॑। स्वाहा॑। कस्मै॑। स्वाहा॑। क॒त॒मस्मै॑। स्वाहा॑। स्वाहा॑। आ॒धिमित्या॒ऽधिम्। आधी॑ता॒येत्याऽधी॑ताय। स्वाहा॑। मनः॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। स्वाहा॑। चि॒त्तम्। विज्ञा॑ता॒येति॑ विऽज्ञा॑ताय। अदि॑त्यै। स्वाहा॑। अदि॑त्यै। म॒ह्यै। स्वाहा॑। अदि॑त्यै। सु॒मृ॒डी॒काया॒ इति॑ सुऽमृडी॒कायै॑। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। पा॒व॒कायै॑। स्वाहा॑। सर॑स्वत्यै। बृ॒ह॒त्यै। स्वाहा॑। पू॒ष्णे। स्वाहा॑। पू॒ष्णे। प्र॒प॒थ्या᳖येति॑ प्रऽपथ्या᳖य। स्वाहा॑। पू॒ष्णे। न॒रन्धि॑षाय। स्वाहा॑। त्वष्ट्रे॑। स्वाहा॒। त्वष्ट्रे॑। तु॒रीपा॑य। स्वाहा॑। त्वष्ट्रे॑। पु॒रु॒रूपा॒येति॑ पुरु॒ऽरूपा॑य स्वाहा॑। विष्ण॑वे। स्वाहा॑। विष्ण॑वे। नि॒भू॒य॒पायेति॑ निभूय॒ऽपाय॑। स्वाहा॑। विष्ण॑वे। शि॒पि॒वि॒ष्टायेति॑ शिपि॒ऽवि॒ष्टाय॑। स्वाहा॑ ॥२० ॥
स्वर रहित मन्त्र
काय स्वाहा कस्मै स्वाहा कतमस्मै स्वाहा स्वाहाधिमाधीताय स्वाहा मनः प्रजापतये स्वाहाचित्तँविज्ञातायादित्यै स्वाहादित्यै मह्यै स्वाहादित्यै सुमृडीकायै स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहा सरस्वत्यै पावकायै स्वाहा सरस्वत्यै बृहत्यै स्वाहा पूष्णे स्वाहा पूष्णे प्रपथ्याय स्वाहा पूष्णे नरन्धिषाय स्वाहा त्वष्ट्रे स्वाहा त्वष्ट्रे तुरीपाय स्वाहा त्वष्ट्रे पुरुरूपाय स्वाहा विष्णवे स्वाहा विष्णवे निभूयपाय स्वाहा विष्णवे शिपिविष्टाय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
काय। स्वाहा। कस्मै। स्वाहा। कतमस्मै। स्वाहा। स्वाहा। आधिमित्याऽधिम्। आधीतायेत्याऽधीताय। स्वाहा। मनः। प्रजापतय इति प्रजाऽपतये। स्वाहा। चित्तम्। विज्ञातायेति विऽज्ञाताय। अदित्यै। स्वाहा। अदित्यै। मह्यै। स्वाहा। अदित्यै। सुमृडीकाया इति सुऽमृडीकायै। स्वाहा। सरस्वत्यै। स्वाहा। सरस्वत्यै। पावकायै। स्वाहा। सरस्वत्यै। बृहत्यै। स्वाहा। पूष्णे। स्वाहा। पूष्णे। प्रपथ्यायेति प्रऽपथ्याय। स्वाहा। पूष्णे। नरन्धिषाय। स्वाहा। त्वष्ट्रे। स्वाहा। त्वष्ट्रे। तुरीपाय। स्वाहा। त्वष्ट्रे। पुरुरूपायेति पुरुऽरूपाय स्वाहा। विष्णवे। स्वाहा। विष्णवे। निभूयपायेति निभूयऽपाय। स्वाहा। विष्णवे। शिपिविष्टायेति शिपिऽविष्टाय। स्वाहा॥२०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कस्मै प्रयोजनाय होमः कर्त्तव्य इत्याह॥
अन्वयः
यैर्मनुष्यैः काय स्वाहा कस्मै स्वाहा कतस्मै स्वाहाऽऽधिं प्राप्य स्वाहाऽऽधीताय स्वाहा प्रजापतये मनः स्वाहा विज्ञाताय चित्तमदित्यै स्वाहा मह्याऽअदित्यै स्वाहा सुमृडीकाया अदित्यै स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहा पावकायै सरस्वत्यै स्वाहा बृहत्यै सरस्वत्यै स्वाहा पूष्णे स्वाहा प्रपथ्याय पूष्णे स्वाहा नरन्धिषाय पूष्णे स्वाहा त्वष्ट्रे स्वाहा तुरीपाय त्वष्ट्रे स्वाहा पुरुरूपाय त्वष्ट्रे स्वाहा विष्णवे स्वाहा निभूयपाय विष्णवे स्वाहा शिपिविष्टाय विष्णवे स्वाहा कृतास्ते कथं न सुखिनः स्युः॥२०॥
पदार्थः
(काय) सुखसाधकाय विदुषे (स्वाहा) सत्य क्रिया (कस्मै) सुखस्वरूपाय (स्वाहा) (कतस्मै) बहूनां मध्ये वर्त्तमानाय (स्वाहा) (स्वाहा) (आधिम्) यः समन्ताद् दधाति तम् (आधीताय) समन्ताद् विद्यावृद्धये (स्वाहा) (मनः) (प्रजापतये) (स्वाहा) सत्या क्रिया (चित्तम्) स्मृतिसाधकम् (विज्ञाताय) (अदित्यै) पृथिव्यै। अदितिरिति पृथिवीनामसु पठितम्॥ (निघ॰१।१) (स्वाहा) (अदित्यै) नाशरहितायै (मह्यै) महत्यै वाचे (स्वाहा) (अदित्यै) जनन्यै (सुमृडीकायै) सुष्ठु सुखकारिकायै (स्वाहा) (सरस्वत्यै) नद्यै (स्वाहा) (सरस्वत्यै) विद्यायुक्तायै वाचे (पावकायै) पवित्रकर्त्र्यै (स्वाहा) (सरस्वत्यै) विदुषां वाचे (बृहत्यै) महत्यै (स्वाहा) (पूष्णे) पुष्टिकर्त्रे (स्वाहा) (पूष्णे) पुष्टाय (प्रपथ्याय) प्रकर्षेण पथ्यकरणाय (स्वाहा) (पूष्णे) पोषकाय (नरन्धिषाय) यो नरान् दिधेष्ट्युपदिशति तस्मै (स्वाहा) (त्वष्ट्रे) प्रकाशाय। त्विष इतोऽत्त्वम्॥ (उणा॰२।९५) अनेनायं सिद्धः (स्वाहा) (त्वष्ट्रे) विद्याप्रकाशकाय (तुरीपाय) नौकानां पालकाय (स्वाहा) (त्वष्ट्रे) प्रकाशकाय (पुरुरूपाय) बहुरूपाय (स्वाहा) (विष्णवे) व्यापकाय (स्वाहा) (विष्णवे) (निभूयपाय) यो नितरां रक्षितो भूत्वाऽन्यान् पालयति तस्मै (स्वाहा) (विष्णवे) (शिपिविष्टाय) शिपिष्वाक्रोशत्सु प्राणिषु व्याप्त्या प्रविष्टाय (स्वाहा)॥२०॥
भावार्थः
ये विद्वत्सुखाऽध्ययनान्तःकरणविज्ञानवाग्वाय्वादिशुद्धये यज्ञक्रियाः कुर्वन्ति, ते सुखिनो भवन्ति॥२०॥
हिन्दी (3)
विषय
अब किस प्रयोजन के लिये होम करना चाहिये इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
जिन मनुष्यों ने (काय) सुख साधने वाले के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (कस्मै) सुखस्वरूप के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (कतमस्मै) बहुतों में जो वर्त्तमान उस के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (आधिम्) जो अच्छे प्रकार पदार्थों को धारण करता, उसको प्राप्त होकर (स्वाहा) सत्यक्रिया (आधीताय) सब ओर से विद्यावृद्धि के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (प्रजापतये) प्रजाजनों की पालना करनेहारे के लिये (मनः) मन की (स्वाहा) सत्यक्रिया (विज्ञाताय) विशेष जाने हुए के लिये (चित्तम्) स्मृति सिद्ध कराने अर्थात् चेत दिलाने हारा चैतन्य मन (अदित्यै) पृथिवी के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (मह्यै) बड़ी (अदित्यै) विनाशरहित वाणी के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (सुमृडीकायै) अच्छा सुख करनेहारी (अदित्यै) माता के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (सरस्वत्यै) नदी के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (पावकायै) पवित्र करने वाली (सरस्वत्यै) विद्यायुक्त वाणी के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (बृहत्यै) बड़ी (सरस्वत्यै) विद्वानों की वाणी के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (पूष्णे) पुष्टि करने वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (प्रपथ्याय) उत्तमता से आराम के योग्य भोजन करने तथा (पूष्णे) पुष्टि के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (नरन्धिषाय) जो मनुष्यों को उपदेश देता है, उस (पूष्णे) पुष्टि करनेहारे के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (त्वष्ट्रे) और विद्या-प्रकाश करनेहारे के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (तुरीपाय) नौकाओं के पालने (त्वष्ट्रे) और विद्या-प्रकाश करनेहारे के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (पुरुरूपाय) बहुत रूप और (त्वष्ट्रे) प्रकाश करने वाले के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (विष्णवे) व्याप्त होने वाले के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (निभूयपाय) निरन्तर आप रक्षित हो औरों की पालना करनेहारे (विष्णवे) सर्वव्यापक के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया तथा (शिपिविष्टाय) वचन कहते हुए चैतन्य प्राणियों में व्याप्ति से प्रवेश हुए (विष्णवे) व्यापक ईश्वर के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया की, वे कैसे न सुखी हों॥२०॥
भावार्थ
जो विद्वानों के सुख, पढ़ने, अन्तःकरण के विशेष ज्ञान तथा वाणी और पवन आदि पदार्थों की शुद्धि के लिये यज्ञक्रियाओं को करते हैं, वे सुखी होते हैं॥२०॥
विषय
प्रभु के 'क' आदि नाना गुण, कर्म सूचक नाम और उनका आदर ।
भावार्थ
(काय, कस्मै, कतमस्मै) साधनों के करने वाले, सुखस्वरूप प्रजापालक प्रजापति का (स्वाहा ) उत्तम मान करो । ( आधिम् ) आधीन, अग्निस्थापन या पदार्थसंग्रह करने वाले का और ( आधीताय ) समस्त विद्याओं को पढ़ने वाले का (स्वाहा ) सत्कार करो । ( मनः = मनसे) मननशील और (प्रजापतये) प्रजा के पालक का (स्वाहा ) आदर करो । ( चित्तंचित्ताय) चित्तवत् चिन्तन करने वाले का और (विज्ञाताय ) विज्ञान और उसके विशेष ज्ञाता का आदर करो। (आदित्यै स्वाहा ) पृथिवी और माता का आदर करो (अदित्यै मह्यै) अखण्ड पृथ्वी, पूजनीय माता और विशाल अखण्ड शासन की व्यवस्था और पूज्य गोमाता का (स्वाहा) आदर करो । ( सुमृडीकायै आदित्यै स्वाहा ) समस्त सुखों के देने वाली, माता, वेदवाणी, वर्गों का उत्तम उपयोग करो । ( सरस्वत्यै स्वाहा ) सरस्वती, वेदवाणी, स्त्री और विद्वत्सभा का आदर करो । ( पावकायै सरस्वत्यै) पवित्र करने वाली ज्ञानमयी ब्रह्म शक्ति की (स्वाहा ) पूजा करो । ( बृहत्यै सरस्वत्यै) बृहती, बड़ी भारी, विद्वानों की सभा या प्रभुवाणी का ( स्वाहा ) अभ्यास, मनन, श्रवण और अध्यापन, वाचन, दान करो । (पूष्णे स्वाहा ) पोषक पुरुष का आदर करो । ( प्रपथ्यायं ) उत्तम पथ्य, आहारयोग्य पोषक अन्न का (स्वाहा ) सदुपयोग करो । और (नरन्धिपाय पूष्णे ) मनुष्यों के धारक पोषक प्रजापालक राजा का ( स्वाहा ) आदर करो । ( त्वष्ट्रे स्वाहा ) त्वष्टा, शिल्पी का आदर करो, (तुरीपाय त्वष्ट्रे स्वाहा ) तुरी, अर्थात् नौकाओं वा बुनने के यन्त्रों के वा वेगवान् रथों के पालक, निर्माता का आदर करो । और ( पुरुरूपाय त्वष्ट्रे ) नाना रूपों के पदार्थों के बनाने वाले, त्वष्टा, परमात्मा की ( स्वाहा ) उपासना करो । ( विष्णवे स्वाहा ) व्यापक परमेश्वर की उपासना करो । (निभूयपाय विष्णवे स्वाहा ) सबका आश्रय होकर, सबकी रक्षा करे उस व्यापक शक्तिमान्, राजा का आदर करो और (शिपिविष्टाय विष्णवे स्वाहा ) समस्त पशुओं और दुःखी जनों में कृपालु, व्यापक अथवा शक्ति रूप या किरणों में तेज रूप से विद्यमान तेजस्वी, सर्वोत्पादक प्रभु शक्ति का आदर करो । यही सब नाम ईश्वर, परमेश्वर, आत्मा और राजा के समान होने से उनमें उन गुणों का ग्रहण होता है ।
टिप्पणी
१ काय । २ सरस्वत्यै ।औद्ग्राभणानि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कादयो देवताः । ( १ ) निचृद् अतिधृतिः । ( २ ) अतिधृतिः । षड्जः ॥
विषय
समर्पण व स्वार्थत्याग
पदार्थ
१. (काय) = 'को हि प्रजापतिः' [श० ६।२।२।५] प्रजापति के लिए (स्वाहा) = तू अपने को अर्पित करनेवाला बन। (कस्मै स्वाहा) = आनन्दस्वरूप परमात्मा के लिए तू अपने को अर्पित करनेवाला बन। (कतमस्मै स्वाहा) = अत्यन्त आनन्दस्वरूप परमात्मा के लिए तू अपने को अर्पित करनेवाला बन । २. (आधिम्) = [Reflection=धर्मचिन्ता = अध्यात्म-विचार] अपने सारे विचार को (आधीताय) = स्वरूपचिन्तन के लिए अथवा इस संसार के तत्त्वचिन्तन के लिए (स्वाहा) = अर्पित कर, अर्थात् तू सदा पुरुष व प्रकृति का स्वरूपचिन्तन करनेवाला बन। (मनः) = अपने मन को (प्रजापतये स्वाहा) = प्रजापति के लिए अर्पित कर । (चित्तम्) = अपने चित्त को (विज्ञाताय) = विज्ञान की प्राप्ति के लिए (स्वाहा) = अर्पित कर । ३. (अदित्यै) = अखण्डन के लिए तू (स्वाहा) = स्वार्थ को त्यागनेवाला बन । स्वार्थत्याग से ही तुझे पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त होगा । इस (अदित्यै) = अदीना देवमाता [नि० ५।२२] के लिए जोकि मौ- महनीय है, तेरे जीवन को महत्त्वपूर्ण बनाएगी, उसके लिए (स्वाहा) = तू स्वार्थत्याग करनेवाला बन । स्वार्थ मनुष्य को दीन बनाता है, स्वार्थ से ऊपर उठकर हम दिव्य गुणों को प्राप्त करते हैं। इस (अदित्यै) = वेदवाणी के लिए [नि०१।४] तू (स्वाहा) = अपने को अर्पित कर जो (सुमृडीकायै) = तेरे जीवन को बड़ा सुखी बनाएगी । ४. (सरस्वत्यै) = ज्ञानाधिदेवता की आराधना के लिए (स्वाहा) = तू अपने को अर्पित कर । (सरस्वत्यै) = उस ज्ञानाधिदेवता के लिए तू अपने को (स्वाहा) = अर्पित कर जो (पावकायै) = पवित्र करनेवाली है। उस (सरस्वत्यै) = ज्ञानाधिदेवता के लिए तू (स्वाहा) = स्वार्थत्याग कर जो (बृहत्यै) = तेरे वर्धन का कारण होगी। ५. (पूष्णे) = पोषण की देवता के लिए तू (स्वाहा) = स्वार्थ का त्याग कर। स्वार्थत्याग शरीर के उत्तम पोषण का कारण बनता है। (पूष्णे स्वाहा) = उस पोषण के लिए तू निःस्वार्थ हो जो (प्रपथ्याय) = उत्कृष्ट मार्ग पर चलने के लिए सहायक होता है। (पूष्णे स्वाहा) = उस पोषण के लिए तू स्वार्थ से ऊपर उठ जो (नरन्धिषाय) = [ नरान् दधाति धारयति - उ० ] मनुष्यों का धारण करता है। स्वार्थ से ऊपर उठकर ही मनुष्य लोकहित कर सकता है और यह लोकहित ही [नरान् दिधेष्टि शब्दयति उदयेन - म० ] मनुष्य के चतुर्दिक् प्रवाही यश का कारण बनता है । ६. अब ज्ञान व पुष्ट शरीर को प्राप्त करके (त्वष्ट्रे स्वाहा) = निर्माण की देवता के लिए तू अपने को अर्पित कर, अर्थात् निर्माण के कार्यों में लग जा। उस (त्वष्ट्रे स्वाहा) = निर्माण की देवता के लिए तू अपने को अर्पित कर जो (तुरीपाय) = [ तूर्णं धारया पाति - उ० ] शीघ्रता से रक्षा करनेवाला है। (त्वष्ट्रे) = उस निर्माण की देवता के लिए (स्वाहा) = तू अपने को अर्पित कर जो (पुरुरूपाय) = [ पुरुणि रूपाणि यस्य] बड़े उत्तम रूपों को प्राप्त करानेवाली है। यदि राष्ट्र में सब व्यक्ति निर्माण के कार्यों में लग जाएँ तो जहाँ राष्ट्र का शीघ्र ही कल्याण हो जाएगा वहाँ राष्ट्र को बड़ा सुन्दर रूप प्राप्त होगा। देश की आकृति ही बदल जाएगी। सब जगह 'सुख, सौन्दर्य व शान्ति' का राज्य हो सकेगा। ७. (विष्णवे स्वाहा) = [ विष्लृ व्याप्तौ] व्यापक मनोवृत्ति के लिए तू स्वार्थत्याग कर । व्यापकता को तभी प्राप्त होंगे जब स्वार्थ को समाप्त करेंगे। उस (विष्णवे) व्यापक, उदार मनोवृत्ति के लिए (स्वाहा) = तू स्वार्थत्याग कर जो (निभूयपाय) = [नीचैर्भूत्वा यः पाति - उ०] नम्र बनकर सबका रक्षण करती है। उदार वृत्तिवाला पुरुष रक्षणादि कार्यों में प्रवृत्त होता है, परन्तु इन कार्यों को करते हुए सदा नम्र बना रहता है। उस (विष्णवे स्वाहा) = उदार मनोवृत्ति के लिए निःस्वार्थ बन जो (शिपिविष्टाय) = [शिपिषु अक्रोशत्सु प्राणिषु प्रविष्टाय - द० ] उन-उन क्लेशों से पीड़ित व क्रन्दन करते हुए प्राणियों में प्रवेश करता है तथा अज्ञानवश उनसे किये गये आक्रोशों का ध्यान न करते हुए उनके हित में लगा रहता है। ये 'विष्णु' वृत्तिवाले लोग 'तितिक्षन्ते अभिशस्तिं जनानाम्' लोगों से दी गई गालियों को सदा सहते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-हम उस प्रभु के लिए अपना अर्पण करें जो आनन्दस्वरूप है। स्वरूप के स्मरण के लिए हमारा चिन्तन हो, मन प्रजापति में लगा हो, ज्ञान की रुचि हो, अदीना देवमाता, सरस्वती, पूषा, त्वष्टा व विष्णु के हम आराधक बनें।
मराठी (2)
भावार्थ
जे लोक विद्वानांचे सुख, अध्ययन, अंतःकरणाचे विशेष ज्ञान, वाणी आणि वायू इत्यादी पदार्थांच्या शुद्धीसाठी यज्ञक्रिया करतात ते सुखी होतात.
विषय
आता पुढील मंत्रात, होम कोणत्या प्रयोजनांसाठी करावा याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - ज्या लोकांनी (काय) सुखाची इच्छा करणाऱ्या व्यक्तीसाठी (स्वाहा) प्रामाणिकपणे कार्य केले आणि ज्यांनी (कस्मै) सुखस्वरूप होण्यासाठी (स्वाहा) सत्य क्रिया केली (ते सुखी का होणार नाहींत!) (कतमस्मै) अनेकामधील एक (म्हणजे समूहात दुर्लक्षित निराश्रित अशा मनुष्यासाठी (स्वाहा) खरेच कार्य केले. आणि (आधिम्) पदार्थांना चांगल्याप्रकारे आधार वा आकार करतो (तो सुखी का होणार नाहीं!) - (आधीताय) सर्वतः विद्येच्या प्रसारासाठी (स्वाहा) जो सत्य क्रिया करतो आणि जो (प्रजापतये) प्रजाजनांचे पालक राजाप्रत (स्वाहा) प्रमाणिकपणे कार्य करतो (तो सुखी का होणार नाहीं!) - (गनः) जो मनाने (स्वाहा) सत्य क्रिया, सत्व विचार करतो आणि (विज्ञानताय) विशेष रूपेण जाणून घेतलेल्या पदार्थावर (स्वाहा) सत्य क्रिया करतो (तो सुखी का होणार नाहीं!) (चित्तम्) स्मृती करून देणारे वा जागरूक ठेवणारे जे चैतन्यमय मन, त्यासाठी, तसेच (अदित्यै) पृथ्वीसाठी (स्वाहा) जो सत्य क्रिया करतो, तसेच जो (मह्यै) महान महत्त्वपूर्ण (अदित्यै) विनाश रहित वाणीसाठी (स्वाहा) (समृडीकायै) श्रेष्ठ सुख वा आनंद देणाऱ्या (अदित्यै) मातेसाठी (स्वाहा) सत्य क्रिया करतो (तो सुखी का होणार नाहीं!) (सरस्वत्यै) नदीसाठी (स्वाहा) तसेच (पावकायै) पवित्र करणाऱ्या (सरस्वत्यै) विद्यामयी वाणीकरिता जो (स्वाहा) सत्य क्रिया करतो, तसेच जो (बृहत्यै) महान् (सरस्वत्यै) विद्वानांच्या वाणीसाठी (स्वाहा) सत्य क्रिया करतो आणि (पूष्णे) पौष्टिकत्व वा शक्ति देणाऱ्या (वैद्य आदी जनांसाठी) (स्वाहा) जो प्रामाणिकपणे कार्य करतो (तो सुखी का होणार नाहीं!) (नरन्धिषाय) मनुष्यांना उपदेश देणाऱ्या आणि (पूष्णे) शक्ती व पोषण देणाऱ्यासाठी जो (स्वाहा) सत्य क्रिया करतो, तसेच (त्वष्ट्रे) प्रकाश (वा प्रेरणा) देणाऱ्या मनुष्यासठी (स्वाहा) आणि (तुरीषाय) नौका समूह जवळ असणाऱ्या चालवणाऱ्या (नाविकजनांसठी) (त्वष्ट्रे) विद्येचा प्रचार-प्रसार करणाऱ्या लोकांसाठी (स्वाहा) जो सत्य क्रिया करतो, तसेच (पुरूरूपाय) अनेक रूप धारण करणाऱ्या (बहुरूपी आदी कलाकारांसाठी) व (त्वष्ट्रे) प्रकाश देणाऱ्या (तांत्रिकजनांसाठी) (स्वाहा) जो सत्य क्रिया करतो, (तो सुखी का होणार नाहीं!) (विष्णवे) व्याप्त होणाऱ्या वा पालन करणाऱ्या (पवन, अग्नी आदी पदार्थासाठी) (स्वाहा) आणि (निभूयपाय) स्वतःच्या रक्षणात समर्थ असून जो इतरांचेही रक्षण करू शकतो, अशा बलवान व्यक्तीसाठी तसेच (विष्णवे) सर्वव्यापक परमेश्वरासाठी (स्वाहा) जो खरी उपासना करतो (शिपिविष्टाय) चेतन प्राण्यांना आपल्या वचनांद्वारे आश्वासन व निर्भयपणा देणाऱ्या, त्यांच्या हृदयात उत्साह संचारणाऱ्या व्यक्तीकरिता (नेता वा राजाकरिता) आणि शेवटी (विष्णवे) व्यापक ईश्वरासाठी जो (स्वाहा) सत्य क्रिया करतो, तो वा ते लोक सुखी-आनंदी का होऊं नयेत? अर्थात ते अवश्य सुखी होतील. ॥20॥
भावार्थ
भावार्थ - जे लोक विद्वानांच्या सुख-सोयीची व्यवस्था करतात, अंतःकरणात विशेष ज्ञान धारण करतात तसेच वाणी आणि पवन आदी पदार्थाच्या शुद्धतेसाठी यज्ञ क्रिया करतात, ते अवश्य सुखी-आनंदी होतात. ॥20॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Reverence for him who brings happiness, reverence for God the Embodiment of joy, reverence for the king who is foremost amongst the many. Show respect to him who makes a collection of objects, and him who studies different sciences. Have respect for the deep-thinker, and the protector of the subjects. Show respect to him whose mind is contemplative, who is the master of knowledge. Have respect for the mother Earth, for the mighty, immortal word of God, for the mother, the supplier of happiness. Make full use of the streams. Revere the speech full of knowledge which purifies us. Respect the noble saying of the learned. Respect a strong man. Respect him who takes hygienic meals for the maintenance of his vitality. Respect the preacher who sermonises and makes us spiritually strong. Have respect for the diffuser of light, for the builder of boats, for him who spreads education. Worship God. Who creates objects of variegated forms. Pray unto the All-pervading Providence. Meditate on Universal God, Who Self-protected, protects others. Contemplate upon Him Who is present in every sentient being.
Meaning
Homage in honest thought, word and deed: to Prajapati, lord giver of peace and comfort, who Himself is peace and joy in the essence, who is the exceptional Being among the infinite beings in existence; homage to the scholar of wider learning; to the lord present in the mind; to the lord who knows the depths of the unconscious; to the mother earth; to the divine speech; to the kind and loving mother; to the streams and rivers; to the fluent speech that purifies the mind; to the universal speech in the universal mind; to the wind that sustains life; to the energy that freshens and restores life; to the universal teacher of humanity; to the lord creator and giver of light; to the lord giver of life and speed across life; to the lord maker of many forms; to the lord omnipresent, protector of existence, and present in the depths of intelligence and in the unconscious.
Translation
Svaha to the Lord of bliss. (1) Svaha to the bliss per- sonified, (2) Svaha to the highest bliss. (3) Svaha to him, who has been enkindled. (4) Svaha to the Lord of creatures, who knows the mind. (5) Svaha to one, that knows the thought thoroughly. (6) Svaha to the Eternity. (7) Svaha to the mighty Eternity. (8) Svaha to the Eternity, the bestower. (9) Svaha to the divine speech. (10) Svaha to the purifying speech. (11) Svaha to the great speech. (12) Svaha to the nourisher. (13) Svaha to the nourisher, the guide. (14) Svaha to the nourisher, the strengthener of men. (15) Svaha to the universal Architect. (16) Svaha to the speedy universal Architect. (17) Svaha to the multiform universal Architect. (18) Svaha to the sacrifice. (19) Svaha to the sacrifice, the sure protector. (20) Svaha to the sacrifice imbibed within all the creatures. (21)
Notes
Kaḥ, प्रजापति:, creator; the Lord of creatures. Also, सुख, bliss, Adhim, आध्यानं, the mind. Adhitāya, to him (the fire), that has been enkindled. Aditiḥ, Eternity. अदिति: इति पृथिवी नाम, (Nigh. I. 1) the earth. Sumṛḍikāyai, सुखयित्र्यै, to her who bestows happiness. Prapathyāya, to one who leads on the way; guide. Narandhisāya, नरान् दधाति धारयति इति नरन्धिषः, तस्मै, to one who sustains or strengthens men. Turipāya, तूर्णं पाति यः, तस्मै, to one who gives protection quickly; speedy. Nibhūyapāya, नितरां रक्षितो भूत्वा पाति यः, तस्मै, one who protects being protected himself; a sure protector. Sipiviṣṭāya, to one who is imbibed in all the animals; पशुषु प्राणिषु प्रविष्टः, तस्मै ।
बंगाली (1)
विषय
অথ কস্মৈ প্রয়োজনায় হোমঃ কর্ত্তব্য ইত্যাহ ॥
এখন কী প্রয়োজন হেতু হোম করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- যে সব মনুষ্যগণ (কায়) সুখ সাধনের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (কস্মৈ) সুখস্বরূপ হেতু (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (কতমস্মৈ) বহুলোকের মধ্যে বর্ত্তমান তাহাদের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (আধিম্) যে উত্তম প্রকার পদার্থগুলিকে ধারণ করে উহা প্রাপ্ত হইয়া (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (আধীতাম্) সব দিক দিয়া বিদ্যাবৃদ্ধি হেতু (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (প্রজাপতয়ে) প্রজাগণদের পালনকারীদিগের জন্য (মনঃ) মনের (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (বিজ্ঞাতায়) বিশেষ পরিচিতর জন্য (চিত্তম্) স্মৃতি সাধন করাইতে অর্থাৎ সতর্ককারী চৈতন্য মন (অদিত্যৈ) পৃথিবীর জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (মহ্যৈ) মহতী (অদিত্যৈ) বিনাশরহিত বাণীর জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (সুমৃডীকায়ৈ) উত্তম সুখ প্রদান কারিণী (অদিত্যৈ) মাতার জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (সরস্বত্যৈ) নদীর জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (পাবকায়ৈ) পবিত্রকারিণী (সরস্বত্যৈ) বিদ্যাযুক্ত বাণীর জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (বৃহত্যৈ) বৃহৎ (সরস্বত্যৈ) বিদ্বান্দিগের বাণীর জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (পূষ্ণে) পুষ্টি কারীদিগের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (প্রপথ্যায়) উত্তমতাপূর্বক আরামের যোগ্য ভোজন করিবার তথা (পূষ্ণে) পুষ্টির জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (নরন্ধিষায়) যে মনুষ্যদিগকে উপদেশ দান করে, সেই (পূষ্ণে) পুষ্টিকারীদের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (ত্বষ্ট্রে) এবং বিদ্যাপ্রকাশকারীদের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (তুরীপায়) নৌকাগুলি পালন করিবার (ত্বষ্ট্রে) এবং বিদ্যাপ্রকাশ কারীদের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (পুরুরূপায়) বহুরূপ এবং (ত্বষ্ট্রে) প্রকাশকারীদের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (বিষ্ণবে) ব্যাপ্ত হওয়া লোকদিগের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (নিভূয়পায়) নিরন্তর স্বয়ং রক্ষিত হইয়া, অন্যদের পালনকারী (বিষ্ণবে) সর্বব্যাপকের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া তথা (শিপিবিষ্টায়) বচন বলিতে থাকিয়া চৈতন্য প্রাণিদের মধ্যে ব্যপ্তি দ্বারা প্রবিষ্ট (বিষ্ণবে) ব্যাপক ঈশ্বরের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া করিয়াছে তাহারা কেমন করিয়া সুখী হইবে না? ॥ ২০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যাহারা বিদ্বান্দিগের সুখ, পঠন, অন্তঃকরণের বিশেষ জ্ঞান তথা বাণী ও পবনাদি পদার্থগুলির শুদ্ধির জন্য যজ্ঞক্রিয়াগুলি করে, তাহারা সুখী হয় ॥ ২০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
কায়॒ স্বাহা॒ কস্মৈ॒ স্বাহা॑ কত॒মস্মৈ॒ স্বাহা॒ স্বাহা॒ধিমাধী॑তায়॒ স্বাহা॒ মনঃ॑ প্র॒জাপ॑তয়ে॒ স্বাহা॑ চি॒ত্তং বিজ্ঞা॑তা॒য়াদি॑ত্যৈ॒ স্বাহাদি॑ত্যৈ ম॒হ্যৈ স্বাহাদি॑ত্যৈ সুমৃডী॒কায়ৈ॒ স্বাহা॒ সর॑স্বত্যৈ॒ স্বাহা॒ সর॑স্বত্যৈ পাব॒কায়ৈ॒ স্বাহা॒ সর॑স্বত্যৈ বৃহ॒ত্যৈ স্বাহা॑ পূ॒ষ্ণে স্বাহা॑ পূ॒ষ্ণে প্র॑প॒থ্যা᳖য়॒ স্বাহা॑ পূ॒ষ্ণে ন॒রন্ধি॑ষায়॒ স্বাহা॒ ত্বষ্ট্রে॒ স্বাহা॒ ত্বষ্ট্রে॑ তু॒রীপা॑য়॒ স্বাহা॒ ত্বষ্ট্রে॑ পুরু॒রূপা॑য়॒ স্বাহা॒ বিষ্ণ॑বে॒ স্বাহা॒ বিষ্ণ॑বে নিভূয়॒পায়॒ স্বাহা॒ বিষ্ণ॑বে শিপিবি॒ষ্টায়॒ স্বাহা॑ ॥ ২০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
কায়েত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । প্রজাপত্যাদয়ো দেবতাঃ । আদ্যস্য ভুরিগ্ধৃতিশ্ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ । সরস্বত্যৈ বৃহত্যা ইত্যুত্তরস্য অতিধৃতিশ্ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ।
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