यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 8
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - प्रयत्नवन्तो जीवादयो देवताः
छन्दः - भुरिग्धृतिः, भुरिगतिधृतिः
स्वरः - ऋषभः, षड्जः
4
य॒ते स्वाहा॒ धाव॑ते॒ स्वाहो॑द्द्रा॒वाय॒ स्वाहोद्द्रु॑ताय॒ स्वाहा॑ शूका॒राय॒ स्वाहा॒ शूकृ॑ताय॒ स्वाहा॒ निष॑ण्णाय॒ स्वाहोत्थि॑ताय॒ स्वाहा॑ ज॒वाय॒ स्वाहा॒ बला॑य॒ स्वाहा॑ वि॒वर्त्त॑मानाय॒ स्वाहा॒ विवृ॑त्ताय॒ स्वाहा॑ विधून्वा॒नाय॒ स्वाहा॒ विधू॑ताय॒ स्वाहा॒ शुश्रू॑षमाणाय॒ स्वाहा॑ शृण्व॒ते स्वाहेक्ष॑माणाय॒ स्वाहे॑क्षि॒ताय॒ स्वाहा॒ वीक्षिताय॒ स्वाहा॑ निमे॒षाय॒ स्वाहा॒ यदत्ति॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ यत् पिब॑ति॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ यन्मूत्रं॑ क॒रोति॒ तस्मै॒ स्वाहा॑ कुर्व॒ते स्वाहा॑ कृ॒ताय॒ स्वाहा॑॥८॥
स्वर सहित पद पाठय॒ते। स्वाहा॑। धाव॑ते। स्वाहा॑। उ॒द्द्रा॒वायेत्यु॑त्ऽद्रा॒वाय॑। स्वाहा॑। उद्द्रु॑ता॒येत्युत्ऽद्रु॑ताय। स्वाहा॑। शू॒का॒राय॑। स्वाहा॑। शूकृ॑ताय। स्वाहा॑। निष॑ण्णाय। निस॑न्ना॒येति॒ निऽस॑न्नाय। स्वाहा॑। उत्थि॑ताय। स्वाहा॑। ज॒वाय॑। स्वाहा॑। बला॑य। स्वाहा॑। वि॒वर्त्त॑माना॒येति॑ वि॒ऽवर्त्त॑मानाय। स्वाहा॑। विवृ॑त्तायेति॒ विऽवृ॑त्ताय। स्वाहा॑। वि॒धू॒न्वा॒नायेति॑ विधून्वा॒नाय॑। स्वाहा॑। विधू॑ता॒येति॒ विऽधूता॒य। स्वाहा॑। शुश्रू॑षमाणाय। स्वाहा॑। शृ॒ण्व॒ते। स्वाहा॑। ईक्ष॑माणाय। स्वाहा॑। ई॒क्षि॒ताय॑। स्वाहा॑। वीक्षि॑ता॒येति॒ विऽईक्षि॑ताय। स्वाहा॑। नि॒मे॒षायेति॑ निऽमे॒षाय॑। स्वाहा॑। यत्। अत्ति॑। तस्मै॑। स्वाहा॑। यत्। पिब॑ति। तस्मै॑। स्वाहा॑। यत्। मूत्र॑म्। क॒रोति॑। तस्मै॑। स्वाहा॑। कु॒र्वते॑। स्वाहा॑। कृ॒ताय॑। स्वाहा॑ ॥८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यते स्वाहा धावते स्वाहोद्द्रावाय स्वाहोद्द्रुताय स्वाहा शूकाराय स्वाहा शूकृताय स्वाहा निषणाय स्वाहोत्थिताय स्वाहा जवाय स्वाहा बलाय स्वाहा विवर्तमानाय स्वाहा विवृत्ताय स्वाहा विधून्वानाय स्वाहा विधूताय स्वाहा शुश्रूषमाणाय स्वाहा शृण्वते स्वाहेक्षमाणाय स्वाहेक्षिताय स्वाहा वीक्षिताय स्वाहा निमेषाय स्वाहा यदत्ति तस्मै स्वाहा यत्पिबति तस्मै स्वाहा यन्मूत्रङ्करोति तस्मै स्वाहा कुर्वते स्वाहा कृताय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
यते। स्वाहा। धावते। स्वाहा। उद्द्रावायेत्युत्ऽद्रावाय। स्वाहा। उद्द्रुतायेत्युत्ऽद्रुताय। स्वाहा। शूकाराय। स्वाहा। शूकृताय। स्वाहा। निषण्णाय। निसन्नायेति निऽसन्नाय। स्वाहा। उत्थिताय। स्वाहा। जवाय। स्वाहा। बलाय। स्वाहा। विवर्त्तमानायेति विऽवर्त्तमानाय। स्वाहा। विवृत्तायेति विऽवृत्ताय। स्वाहा। विधून्वानायेति विधून्वानाय। स्वाहा। विधूतायेति विऽधूताय। स्वाहा। शुश्रूषमाणाय। स्वाहा। शृण्वते। स्वाहा। ईक्षमाणाय। स्वाहा। ईक्षिताय। स्वाहा। वीक्षितायेति विऽईक्षिताय। स्वाहा। निमेषायेति निऽमेषाय। स्वाहा। यत्। अत्ति। तस्मै। स्वाहा। यत्। पिबति। तस्मै। स्वाहा। यत्। मूत्रम्। करोति। तस्मै। स्वाहा। कुर्वते। स्वाहा। कृताय। स्वाहा॥८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
ये मनुष्या यते स्वाहा धावते स्वाहोद्द्रावाय स्वाहोद्द्रुताय स्वाहा शूकाराय स्वाहा शूकृताय स्वाहा निषण्णाय स्वाहोत्थिताय स्वाहा जवाय स्वाहा बलाय स्वाहा विवर्त्तमानाय स्वाहा विवृत्ताय स्वाहा विधून्वानाय स्वाहा विधूताय स्वाहा शुश्रूषमाणाय स्वाहा शृण्वते स्वाहेक्षमाणाय स्वाहेक्षिताय स्वाहा वीक्षिताय स्वाहा निमेषाय स्वाहा यदत्ति तस्मै स्वाहा यत् पिबति तस्मै स्वाहा यन्मूत्रं करोति तस्मै स्वाहा कुर्वते स्वाहा कृताय स्वाहा कुर्वन्ति ते सर्वाणि सुखानि लभन्ते॥८॥
पदार्थः
(यते) प्रयतमानाय (स्वाहा) सत्क्रिया (धावते) (स्वाहा) (उद्द्रावाय) ऊर्ध्वं गताय द्रवीभूताय (स्वाहा) (उद्द्रुताय) उत्कर्षं गताय (स्वाहा) (शूकाराय) क्षिप्रकारिणे (स्वाहा) (शूकृताय) क्षिप्रकृताय (स्वाहा) (निषण्णाय) निश्चयेन स्थिताय (स्वाहा) (उत्थिताय) कृतोत्थानाय (स्वाहा) (जवाय) वेगाय (स्वाहा) (बलाय) (स्वाहा) (विवर्त्तमानाय) विशेषेण वर्त्तमानाय (स्वाहा) (विवृत्ताय) विविधतया कृतवर्त्तमानाय (स्वाहा) (विधून्वानाय) यो विविधं धुनोति तस्मै (स्वाहा) (विधूताय) येन विविधं धूतं कम्पितं तस्मै (स्वाहा) (शुश्रूषमाणाय) श्रोतुमिच्छते (स्वाहा) (शृण्वते) यः शृणोति तस्मै (स्वाहा) (ईक्षमाणाय) दर्शकाय (स्वाहा) (ईक्षिताय) अन्येन दृष्टाय (स्वाहा) (वीक्षिताय) विशेषेण कृतदर्शनाय (स्वाहा) (निमेषाय) (स्वाहा) (यत्) (अत्ति) भक्षयति (तस्मै) (स्वाहा) (यत्) (पिबति) (तस्मै) (स्वाहा) (यत्) (मूत्रम्) (करोति) (तस्मै) (स्वाहा) (कुर्वते) (स्वाहा) (कृताय) (स्वाहा)॥८॥
भावार्थः
ये प्रयत्नधावनादीनां साधकानि सुगन्ध्यादिहोमप्रभृतीनि च कर्माणि कुर्वन्ति, ते सर्वाणीष्टानि वस्तूनि प्राप्नुवन्ति॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
जो मनुष्य (यते) अच्छा यत्न करते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (धावते) दौड़ते हुए के लिये (स्वाहा) श्रेष्ठ क्रिया (उद्द्रावाय) ऊपर को गये हुए गीले पदार्थ के लिये (स्वाहा) सुन्दर क्रिया (उद्द्रुताय) उत्कर्ष को प्राप्त हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (शूकाराय) शीघ्रता करने वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (शूकृताय) शीघ्र किये हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (निषण्णाय) निश्चय से बैठे हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (उत्थिताय) उठे हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (जवाय) वेग के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (बलाय) बल के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (विवर्त्तमानाय) विशेष रीति से वर्त्तमान होते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (विवृत्ताय) विशेष रीति से वर्त्ताव किये हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (विधून्वानाय) जो पदार्थ विधूनता है, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (विधूताय) जिसने नाना प्रकार से विधूना उस के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (शुश्रूषमाणाय) सुना चाहते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (शृण्वते) सुनते के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (ईक्षमाणाय) देखते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (ईक्षिताय) और से देखे हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (वीक्षिताय) भलीभांति देखे हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (निमेषाय) आंखों के पलक उठने-बैठने के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (यत्) जो (अत्ति) खाता है (तस्मै) उस के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (यत्) जो (पिबति) पीता है (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (यत्) जो (मूत्रम्) मूत्र (करोति) करता है (तस्मै) उस के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (कुर्वते) करने वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया तथा (कृताय) किये हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया करते हैं, वे सब सुखों को प्राप्त होते हैं॥८॥
भावार्थ
जो अच्छे यत्न और दौड़ने आदि क्रियाओं को सिद्ध करने वाले काम तथा सुगन्धि आदि वस्तुओं के होम आदि कामों को करते हैं, वे समस्त सुख और चाहे हुए पदार्थों को प्राप्त होते हैं॥८॥
भावार्थ
( यते ) गमन करते हुए, (धावते) वेग से जाते हुए, (उद्द्रुवाय ) बहुत तीव्र गति से जाते हुए (उद्द्भुताय स्वाहा ) और उछल-उछल कर द्रुत गति से जाने वाले शूरवीर का भी आदर करो। (शूकाराय, शूकृताय ) शीघ्र काम करने वाले और शीघ्रता करने वाले, (निषण्णाय, उत्थिताय ) बैठे और उठे का भी आदर करो। (जवाय, बलाय, विवर्त्तमानाय, विवृत्ताय ) वेग और बल वाले, लोटते पोटते और पासे पलटते हुए का भी आदर करो । ( विधुन्वानाय, विधूताय) विविध शत्रुओं, अथवा विविध मानस वासनाओं को धुनते हुए और शत्रुओं को परास्त कर चुके हुए या पापमल से रहित का भी आदर करो। (शुश्रूषमाणाय, शृण्वते) विद्वानों से ज्ञान श्रवणार्थं उनकी शुश्रूषा करने वाले और ज्ञान श्रवण करते हुए का भी आदर करो । ( ईक्षमाणाय, ईक्षिताय, वीक्षिताय ) साक्षात् करते हुए, साक्षात् किये, और विशेष रूप से साक्षात् हुए का भी आदर करो। (निमेषाय) पलक चलाते हुए, इशारा करते हुए (यदत्ति तस्मै ) जब खावे तब उसका, (यत् पिबति तस्मै) जब कुछ पान करता हो तब उसका, ( यत् मूत्रं करोति) जब मूत्र करता हो तब उसका, (कुर्वते, कृताय स्वाहा ) काम करते हुए और काम कर चुकने पर भी उसका आदर करो ॥ ८ ॥ शत० १३ । १ । ३ । ५ ॥ इस प्रकार ४९ दशाओं में आदरणीय पुरुष का आदर करना चाहिये और इन ४९ दशाओं की उत्तम रीति से आदर सत्कार और रक्षा, सुविधा और सुव्यवस्था करनी चाहिये ।
टिप्पणी
१ यते ।२ विधूताय ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
(१,२ ) अतिधृतिः षडजः ॥
विषय
उनन्चास मरुत
पदार्थ
१. छठे मन्त्र के अनुसार स्वार्थत्याग करने पर व प्रभु के प्रति अपना अर्पण करने पर अग्नि आदि तत्त्वों के शरीर में विकसित होने का उल्लेख था। अब सातवें व आठवें मन्त्र में उसी प्रकार स्वार्थत्याग से व प्रभु के प्रति अर्पण से शरीर में उननचास मरुतों व प्राणभेदों के ठीक से कार्य चलने का उल्लेख करते हैं। शरीर में ये प्राणवायु भिन्न-भिन्न रूप में होकर सारे शरीर की विविध क्रियाओं को सिद्ध करती है। ये भेद उननचास हैं-अतः ये प्राण= मरुत उननचास कहलाते हैं। इन उननचास मरुतों की क्रियाओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि १. (हिङ्काराय स्वाहा) = [शुक्लमेव हिङ्कारः । जै०उ० १।३४।१] अपने जीवन को शुक्ल बनाने के लिए मैं स्वार्थत्याग करता हूँ। स्वार्थ ही मलिनता है। इसके त्याग से मेरा जीवन शुद्ध होता है। उठने पर सबसे पूर्व शोधन ही आवश्यक होता है, अत: इस शोध से ही मन्त्र को प्रारम्भ किया गया है। 'प्राणो वै हिङ्कारः' [श० ४।२।२।११] । प्राणशक्ति की वृद्धि के लिए मैं स्वार्थभाव से ऊपर उठता हूँ। स्वार्थभाव में भोगप्रवणता बढ़ती है और प्राणशक्ति का ह्रास होता है। 'वज्रो हिङ्कारः' [कौ० ३।२ ] । प्राणशक्ति की वृद्धि के द्वारा मैं अपने इस शरीर को वज्रतुल्य बनाता हूँ। २. (हिङ्कृताय स्वाहा) = जिसने अपना शोधन कर लिया है, प्राणशक्ति की वृद्धि की है तथा शरीर को वज्रतुल्य बनाया है, उसके लिए हम [सु+आह] शुभ शब्द बोलते हैं, प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं । ३. (क्रन्दते) = [क्रदि आह्वाणे] प्रभु को पुकारनेवाले का स्वाहा-हम आदर करते हैं । ४. (अवक्रन्दाय) = प्रभु को नीचे-अपने अन्दर बुलाने के लिए हम स्वाहा स्वार्थत्याग करते हैं। प्रातः उठकर शोधन की प्रक्रिया के बाद प्रभु का स्मरण व स्तवन ही चलना चाहिए। इस प्रभु के आह्वान से हमें शुद्ध बनने में सहायता मिलती है । ५. (प्रोथते) = [ प्रोथ पर्यापणे subdue, overcome] प्रभु स्मरण के द्वारा कामादि शत्रुओं का विजय करनेवाले के लिए हम स्वाहा आदर के शब्द बोलते हैं। ६. (प्रप्रोथाय स्वाहा) = वासना - विजय के प्रकृष्ट कार्य के लिए, इन शत्रुओं को जीतने की क्षमता प्राप्त करने के लिए मैं स्वार्थत्याग करता हूँ। ७. अब प्रभु स्मरण के पश्चात् स्वाध्याय का क्रम आता है। उस स्वाध्याय में मैं विज्ञान के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करता हूँ अथवा विज्ञान के द्वारा प्रभु के साथ सम्बन्ध जोड़ता हूँ। इस (गन्धाय स्वाहा) = ज्ञान की गन्ध के लिए मैं स्वार्थत्याग करता हूँ। स्वार्थ से ऊपर उठकर ही मैं अपनी बुद्धि को शुद्ध करता हूँ और अपने में ज्ञान का सम्बन्ध कर पाता हूँ। ८. (घ्राताय स्वाहा) = इस ज्ञान-गन्ध का ग्रहण करनेवाले के लिए मैं आदरभाव धारण करता हूँ। ९. स्वाध्यायानन्तर निविष्टाय-अपने कार्यों में लग जानेवाले पुरुष के लिए मैं (स्वाहा) = शुभ शब्द बोलता हूँ। १०. इन कार्यों को करते समय (उपविष्टाय स्वाहा) = सदा प्रभु के समीप स्थित के लिए मैं आदर के शब्द कहता हूँ। ११. इन कार्यों को करते हुए (सन्दिताय स्वाहा) = [सम्यक् दितं खण्डनं यस्य सः] वासनाओं व आलस्य की भावना का सम्यक् खण्डन करनेवाले के लिए हम आदर करते हैं। १२. (वल्गते स्वाहा) = आलस्य को छोड़कर मधुरता से गति करते हुए का हम आदर करते हैं। १३. आसीनाय स्वाहा कर्म करने के बाद अब आराम के लिए बैठे हुए के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं। १४. (शयानाय स्वाहा) = लेटनेवाले के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं। १५. (स्वपते स्वाहा) = सोनेवाले के लिए हम शुभ शब्द कहते हैं । १६. अब सोने के बाद (जाग्रते स्वाहा) = जागनेवाले के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं । १७. (कूजते स्वाहा) = जागने के बाद अव्यक्त रूप में, मानस जप के रूप में प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाले का हम आदर करते हैं १८. (प्रबुद्धाय स्वाहा) = अब खूब अच्छी प्रकार जागरित हो गये के लिए हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं। १९. (विजृम्भमाणाय स्वाहा) = अब गात्रों का विविध नयन करनेवाले के लिए, अर्थात् सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों को फैलानेवाले के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं । २०. (विचृताय) = [ चृती दीप्तौ ] गात्रविनाम के द्वारा दीप्त होनेवाले का हम आदर करते हैं । २१. (संहानाय) = 'अत्रा जहाम अशिवा ये असन्' इस मन्त्रभाग की भावना के अनुसार अशिव को छोड़नेवाले का हम आदर करते हैं। २२. (उपस्थिताय स्वाहा) = अशुभ को छोड़कर प्रभु के समीप पहुँचे हुए का हम आदर करते हैं। २३. (अयनाय स्वाहा) = [अयते] प्रभु की ओर जानेवाले का हम आदर करते हैं । २४. (प्रायणाय स्वाहा) = [प्रकृष्टमयते] सदा प्रकृष्ट मार्ग से जानेवाले का हम आदर करते हैं। २५. (यते स्वाहा) = गतिशील का हम आदर करते हैं। २६. (धावते स्वाहा) = गतिशीलता के द्वारा अपना शोधन करनेवाले का हम आदर करते हैं । २७. (उद्भावाय स्वाहा) = उत्कृष्ट गतिवाले का हम आदर करते हैं । २८. (उद्द्रुताय) = जो विषयों से (उत्) = ऊपर [out] उठ गया है, उसका हम आदर करते हैं। २९. (शूकाराय स्वाहा) = शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले के लिए हम शुभ शब्द कहते हैं । ३०. (शूकृताय स्वाहा) = शीघ्रता से शिक्षित हुए का हम आदर करते हैं । ३१. (निषण्णाय) = अपने कार्यों में निश्चित रूप से स्थित का हम आदर करते हैं। ३२. (उत्थिताय स्वाहा) = उठ खड़े हुए के लिए, अर्थात् सदा कार्यों में उद्युक्त का हम आदर करते हैं । ३३. (जवाय) = वेगवान् के लिए, क्रियाओं में गतिवाले का हम आदर करते हैं । ३४. (बलाय स्वाहा) = क्रियाओं में सतत वेग के द्वारा उत्पन्न बल के लिए हम स्वार्थत्याग करते हैं। आलस्य आराम को छोड़कर प्रबलता से कर्मों को करनेवाला ही सबल बनता है। ३५. (विवर्त्तमानाय) = विशिष्ट रूप से क्रियाओं में चेष्टा करनेवाले का हम आदर करते हैं। ३६. (विवृत्ताय) = विशिष्ट वर्तन के कारण जो उत्कृष्ट चरित्रवाला बना है [विशिष्टं वृतं यस्य ] उसके लिए हम आदर करते हैं । ३७. (विधूवानाय स्वाहा) जो विशिष्ट वृत्तवाला बनकर बुराइयों को अपने से कम्पित करके दूर कर रहा है, उसके लिए शुभ शब्द कहते हैं । ३८. (विधूताय स्वाहा) = बुराइयों को कम्पित करते हुए जो 'विधूतपाप्मा' बन गया है, उसका हम आदर करते हैं। ३९. (शुश्रूषमाणाय स्वाहा) = विधूतपाप्मा बनने के लिए गुरुओं का उपदेश सुनने की इच्छावालों का तथा गुरुओं का उपासन करनेवाले का हम आदर करते हैं। ४०. (शृण्वते स्वाहा) = गुरुओं के उपदेश को सुननेवाले का लिए हम आदर करते हैं। ४१. (ईक्षमाणाय स्वाहा) = ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रकृति का सूक्ष्मता से निरीक्षण करनेवाले का हम आदर करते हैं। ४२. (ईक्षिताय स्वाहा) = प्रकृति के तत्त्वों के द्रष्टा का हम आदर करते हैं। ४३. (वीक्षिताय स्वाहा) = वीक्षित का ठीक conecption बनानेवाले का हम आदर करते हैं। ४४. इस प्रकृति - निरीक्षण के बाद (निमिषाय स्वाहा) = आँख आदि के व्यापार को रोककर अन्तःस्थित आत्मतत्त्व को देखनेवाले का हम आदर करते हैं। ४५. (यत् अत्ति तस्मै स्वाहा) = आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए शरीर को स्वस्थ रखने के उद्देश्य से जो खाता है, सात्त्विक भोजन करता है, अन्न का सेवन करता है उसका हम आदर करते हैं। ४६. (यत् पिबति तस्मै स्वाहा) = इसी उद्देश्य से जो सात्त्विक दूध आदि का पान करता है, उसका हम आदर करते हैं। ४७ (यत् मूत्रं करोति तस्मै स्वाहा) = शरीर में से मूत्र आदि के क्षार मलांश को दूर करनेवाले प्राण का हम आदर करते हैं । ४८. (कुर्वते स्वाहा) = शोधनकार्य को करते हुए का हम आदर करते हैं और ४९. (कृताय स्वाहा) = मलादि के शोधनकार्य को कर चुके प्राण के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं। इस प्रकार की प्रशंसा करते हुए उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे शरीरों में प्राण के ४९ भेद भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। उन्हीं से अङ्ग-प्रत्यङ्ग के सब कार्य चलते हैं । प्राणों की क्रिया से ही स्वास्थ्य व सुबुद्धि प्राप्त होती है, अतः विविध रूपों में उल्लिखित इन सब कार्यों को करते हुए प्राणों के लिए हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं।
मराठी (2)
भावार्थ
जे लोक कोणतीही क्रिया करताना चांगल्याप्रकारे प्रयत्न करतात व गतिमान बनतात व सुगंधित पदार्थांचा होम इत्यादी उत्तम कार्य करतात त्यांना संपूर्ण सुख व इच्छित पदार्थ प्राप्त होतात.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (यते) चांगल्या कामासाठी यत्न करीत आहेत, त्यांच्यासाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात आणि जे (धावते) धावणाऱ्या (प्रगतिशील वा उघमी) व्यक्तीसाठी (स्वाहा) सुंदर क्रिया करतात (ते सर्व सुख प्राप्त करतात) जे लोक (उद्द्रावाय) वरच्या दिशेला गेलेल्या ओलसर पदार्थासाठी (आकाशस्थ जल वा जलकणांसाठी) (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात, तसेच जे (शूकृताय) शीघ्र कर्म करणाऱ्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात, (ते सुख प्राप्त करतात) (निषण्णाय) थांबण्याचा निश्चय केलेल्यासाठी थकलेल्यासाठी (स्वाहा) आणि (उत्थिताय) उठून उभा राहिलेल्या (यत्नशील) व्यक्तीसाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात (ते सुखी होतात) (जवाय) वेगासाठी (स्वाहा) आणि (बलाय) शक्तीसाठी (स्वाहा) जे लोक उत्तम क्रिया करतात (ते सुखी होतात) (विवर्तमानाय) विशेषत्वाने वर्तमान असलेल्या (वर्तमानकाळासाठी यत्न करणाऱ्यासाठी) (स्वाहा) आणि (विवृताय) विशिष्ट रीतीने वागणूक वा उद्यम करणाऱ्यासाठी (स्वाहा) जे लोक उत्तम क्रिया करतात (ते सुखी होतात) (विधून्वानाय) जो पदार्थांना (पिंजणे, बडवणे सारख्या क्रिया करून) मोकळे करतो, त्याच्यासाठी (स्वाहा) आणि विधुताय) जे पदार्थ पिंजले वा तोडले, तुडवले गेले त्यांच्यासाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात (ते सुखी होतात) (शुश्रूषमाणाय) जो काही चांगले ऐकू वा शिकू इच्छितो, त्याच्यासाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात, तसेच (शृण्वते) समक्ष ऐकत असलेल्यासाठी (स्वाहा) जे उत्तम क्रिया करतात, (ते सुखी होतात) -(ईदामाणाय) पाहणाऱ्यासाठी (स्वाहा) जे उत्तम क्रिया करतात वा (ईक्षिताय) दुसऱ्याकडून जो पाहिला जातो (जे दुसऱ्याचे निरीक्षण करतात अथवा जे इतरांच्या निरीक्षणाखाली आहेत) त्यांच्यासाठी जे (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात, (ते सुखी होतात) (वीक्षिताय) चांगल्याप्रकारे पाहिलेल्या डोळ्यांचे पाते लवण्या-उघडण्यासाठी (नेत्र-चिकित्सा वा नेत्र ) (स्वाहा) जे लोक उत्तम क्रिया करतात (ते सुखी होतात) तसेच (यत्) जो माणूस (अत्ति) भोजन करीत आहे (तस्मै) त्याच्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया (त्यास जेवण वाढणें आदी करावी. (यत्) जो (पिबति) जल (पिबति) पीत आहे (तस्मै) त्याच्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया जो करतो (यत्) जो (मूत्रं) लघवी (करोति) करीत आहे (तस्मै) त्याच्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया जो करतो, तसेच जो (कुर्वते) कर्म करणाऱ्या उद्यमशील व्यक्तीसाठी (स्वाहा) आणि (कृताय) कर्म पूर्ण करून थांबलेल्यासाठी (स्वाहा) जे लोक उत्तम क्रिया करतात, ते या संसारात सर्व प्रकारची सुखें प्राप्त होतात ॥8॥
भावार्थ
भावार्थ - जे लोक सत्कार्यासाठी प्रयत्न करतात, आणि धावणे आणि उद्दिष्टे पूर्ण करणारी कामें करतात तसेच सुगंधित पदार्थांद्वारे यज्ञ, होम आदी कार्यें करतात, ते समस्त सुख आणि इच्छित पदार्थ अवश्य प्राप्त करतात ॥8॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Reverence to the soul that exerts, and is fleeting. Reverence to the warrior that jumps and moves fast. Reverence to him who performs duty promptly and is full of agility. Reverence to him who is sitting peacefully, and him who is up and doing. Reverence to him who is speed-minded, and is physically stout. Reverence to him who behaves prominently. Reverence to him who is respected extraordinarily. Reverence to him who controls his mental cravings, and him who is free from sin. Reverence to him who longs to hear the sermons of the learned, and him who listens to the word of knowledge. Reverence to the seer. Reverence to him whom others want to look at, and who is closely looked at. Reverence to him who closes his eyes in contemplation, reverence to him who takes food in time, reverence to him who drinks when needed, and takes due care of his urine. Reverence to him in action, and reverence for his accomplishments.
Meaning
All hail and reverence for the man of endeavour, running, advancing, flying high, acting promptly, and for the man who has achieved instant success and accomplishment. Reverence to the man who is of stable mind, of high values, speed and strength. Reverence to the man who is expansive, and has achieved advancement and peace. Reverence for the agitative and sympathy for the shaken. Welcome and reverence for the man who wants to listen and is listening, for the man who is watching, who is watched, and who is watched and guarded for security reasons. Reverence for the yogi with closed eyes. Reverence for any one who eats and drinks and who removes the waste of the system. Reverence to the man who is doing the job and to the one who has done and calls it a day. (Those who honour the men of action and accomplishment find recognition peace and happiness. )
Translation
Svaha to him, that is walking. (1) Svaha to him, that is running. (2) Svaha to jumping up. (3) Svaha to him, that has jumped up. (4) Svaha to the shoo sound. (5) Svaha to him, that has made the shoo sound. (6) Svaha to him, that is sitting down. (7) Svaha to him, that has stood up. (8) Svaha to the speed. (9) Svaha to the strength. (10) Svaha to him, that is rolling. (11) Svaha to him, that has finished rolling. (12) Svaha to him, that is shaking himself. (13) Svaha to him, that has shaken himself. (14) Svaha to him, that is trying to listen. (15) Svaha to him, that is listening. (16) Svaha to him, that is trying to see. (17) Svaha to him, that is seen by others. (18) Svaha to him, that has been seen minutely by others. (19) Svaha to him, that blinks. (20) Svaha to him, that eats. (21) Svaha to him, that drinks. (22) Svaha to him, that urinates. (23) Svaha to him, that acts. (24) Svaha to him, that has finished actions. (25)
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- যে সব মনুষ্য (য়তে) উত্তম প্রচেষ্টা যাহারা করে, তাহাদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (ধাবতে) ধাবমানদের জন্য (স্বাহা) শ্রেষ্ঠ ক্রিয়া (উদ্দ্রাবায়) ঊপরে উত্থিত আর্দ্র পদার্থগুলির জন্য (স্বাহা) সুন্দর ক্রিয়া, (উদ্দ্রুতায়) উৎকর্ষ প্রাপ্তকারীদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (শূকারায়) শীঘ্রতাকারীদিগের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (শূক্রতায়) ক্ষিপ্রকারীদিগের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (নিষন্নায়) নিশ্চয়পূর্বক আসীনদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (উত্থিতায়) উত্থিতদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (জবায়) গতির জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (বলায়) বলের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (বিবর্ত্তমানায়) বিশেষ রীতি দ্বারা বর্ত্তমান হওয়াদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (বিবৃতায়) বিশেষ রীতি পূর্বক ব্যবহার কৃতদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (বিধূন্বানায়) যে পদার্থকে কম্পন করায় তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (বিধূতায়) যে নানা প্রকার কম্পন করায় তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (শুশ্রূষমানায়) শুনিতে ইচ্ছুকদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (শৃণ্বতে) শ্রোতাদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (ঈক্ষমাণায়) দ্রষ্টাদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (ঈক্ষিতায়) দর্শকদিগের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (বীক্ষিণতায়) ভালমত দর্শিতদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (নিমেষায়) চোখের পলক উঠা-বসার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (য়ৎ) যাহা (অত্তি) খায় (তস্মৈ) তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (য়ৎ) যাহা (পিবতি) পান করে (তস্মৈ) তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (য়ৎ) যাহা (মূত্রম্) মূত্র (করোতি) করে (তস্মৈ) তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (কুর্বতে) যাহা করে তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া তথা (কৃতায়) কৃতকর্ম্মের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া যাহারা করে তাহারা সকলে সুখ লাভ করিয়া থাকে ॥ ৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যাহার সুপ্রচেষ্টা এবং ধাবনাদি ক্রিয়াগুলিকে সিদ্ধকারী কর্ম্ম তথা সুগন্ধি আদি বস্তুসমূহের হোমাদি কর্ম্ম করে, তাহারা সমস্ত সুখ এবং আকাঙ্ক্ষিত বস্তু লাভ করে ॥ ৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়॒তে স্বাহা॒ ধাব॑তে॒ স্বাহো॑দ্দ্রা॒বায়॒ স্বাহোদ্দ্রু॑তায়॒ স্বাহা॑ শূকা॒রায়॒ স্বাহা॒ শূকৃ॑তায়॒ স্বাহা॒ নিষ॑ণ্ণায়॒ স্বাহোত্থি॑তায়॒ স্বাহা॑ জ॒বায়॒ স্বাহা॒ বলা॑য়॒ স্বাহা॑ বি॒বর্ত্ত॑মানায়॒ স্বাহা॒ বিবৃ॑ত্তায়॒ স্বাহা॑ বিধূন্বা॒নায়॒ স্বাহা॒ বিধূ॑তায়॒ স্বাহা॒ শুশ্রূ॑ষমাণায়॒ স্বাহা॑ শৃণ্ব॒তে স্বাহেক্ষ॑মাণায়॒ স্বাহে॑ক্ষি॒তায়॒ স্বাহা॒ বী᳖ক্ষিতায়॒ স্বাহা॑ নিমে॒ষায়॒ স্বাহা॒ য়দত্তি॒ তস্মৈ॒ স্বাহা॒ য়ৎ পিব॑তি॒ তস্মৈ॒ স্বাহা॒ য়ন্মূত্রং॑ ক॒রোতি॒ তস্মৈ॒ স্বাহা॑ কুর্ব॒তে স্বাহা॑ কৃ॒তায়॒ স্বাহা॑ ॥ ৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়তে স্বাহেত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । প্রয়ত্নবন্তো জীবাদয়ো দেবতাঃ ।
পূর্বস্য ভুরিগ্ধৃতিশ্ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ । বিধূতায়েত্যুত্তরস্য ভুরিগতিধৃতিশ্ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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