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यजुर्वेद अध्याय - 22

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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 34
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    4

    एक॑स्मै॒ स्वाहा॑ द्वाभ्या॒ स्वाहा॑ श॒ताय॒ स्वाहैक॑शताय॒ स्वाहा॑ व्युड्टष्ट्यै॒ स्वाहा॑ स्व॒र्गाय॒ स्वाहा॑॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑स्मै। स्वाहा॑। द्वाभ्या॑म्। स्वाहा॑। श॒ताय॑। स्वाहा॑। एक॑शता॒येत्येक॑ऽशताय। स्वाहा॑। व्युष्ट्या॒ इति॒ विऽउ॑ष्ट्यै॒। स्वाहा॑। स्व॒र्गायेति॑ स्वः॒ऽगाय॑। स्वाहा॑ ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकस्मै स्वाहा द्वाभ्याँ स्वाहा शताय स्वाहैकशताय स्वाहा व्युष्ट्यै स्वाहा स्वर्गाय स्वाहा॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एकस्मै। स्वाहा। द्वाभ्याम्। स्वाहा। शताय। स्वाहा। एकशतायेत्येकऽशताय। स्वाहा। व्युष्ट्या इति विऽउष्ट्यै। स्वाहा। स्वर्गायेति स्वःऽगाय। स्वाहा॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः किमर्थो यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! युष्माभिरेकस्मै स्वाहा द्वाभ्यां स्वाहा शताय स्वाहैकशताय स्वाहा व्युष्ट्यै स्वाहा स्वर्गाय स्वाहा च संप्रयोज्या॥३४॥

    पदार्थः

    (एकस्मै) अद्वितीयाय परमात्मने (स्वाहा) सत्या क्रिया (द्वाभ्याम्) कार्यकारणाभ्याम् (स्वाहा) (शताय) असंख्याताय पदार्थाय (स्वाहा) (एकशताय) एकाधिकाय शताय (स्वाहा) (व्युष्ट्यै) प्रदीप्तायै दाहक्रियायै (स्वाहा) (स्वर्गाय) सुखगमकाय पुरुषार्थाय (स्वाहा)॥३४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्भक्तिविशेषेणाऽद्वितीय ईश्वरः प्रेमपुरुषार्थाभ्यामसंख्याता जीवाश्च प्रसन्नाः कार्य्या, येनाऽऽभ्युदयिकनैःश्रेयसिके सुखे प्राप्येतामिति॥३४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर किसके अर्थ यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोगों को (एकस्मै) एक अद्वितीय परमात्मा के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया (द्वाभ्याम्) दो अर्थात् कार्य और कारण के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (शताय) अनेक पदार्थों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (एकशताय) एक सौ एक व्यवहार वा पदार्थों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (व्युष्ट्यै) प्रकाशित हुई पदार्थों को जलाने की क्रिया के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया और (स्वर्गाय) सुख को प्राप्त होने के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया भलीभांति युक्त करनी चाहिये॥३४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि विशेष भक्ति से जिसके समान दूसरा नहीं, वह ईश्वर तथा प्रीति और पुरुषार्थ से असंख्य जीवों को प्रसन्न करें, जिससे संसार का सुख और मोक्ष सुख प्राप्त होवे॥३४॥

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    विषय

    यज्ञ से भव, ज्ञान, बल आदि की उत्पत्ति ।

    भावार्थ

    ( एकस्मै, द्वाभ्यां स्वाहा ) एक परमेश्वर, दो कार्य और कारण, इनको उत्तम साधना से साधो । ईश्वर की उपासना करो और कार्य और कारणं का ज्ञान करो। इसी प्रकार (एकस्मै, द्वाभ्यां, त्रिभ्यः, "चतुर्भ्यः, इत्यादि ) एक, दो, तीन, चार, पांच आदि सभी संख्या से परिमित पदार्थों को सुख से प्राप्त करो, उनका सदुपयोग करो और इन संख्या से परिमित आयु के वर्ष भी सुखकारी हों। उनको हम सुखकारी बनावें और अन्त में सौ वर्ष तक जीवें । तब ( शताय स्वाहा ) सौ वर्ष का जीवन भी सुखकारी हो और अधिक जीवन हो तो ( एकशताय स्वाहा ) एक सौ एक वां वर्ष भी सुखकारी हो । इतनी उतनी आयु वाले व्यक्तियों को उचित मान, जीवन साधन प्राप्त हों। इससे अधिक की गणना दो, तीन आदि पहले कह चुके ( व्युष्टयै ) विशेष पाप भावों को दहन करने वाली शक्ति की ( स्वाहा ) उन्नति हो, वह हमें प्राप्त हो और ( स्वर्गाय स्वाहा) स्वर्ग, अर्थात् सुख देनेवाले पदार्थ और उसके निमित्त पुरुषार्थ हमें उत्तम रीति से प्राप्त हों, उस आनन्दमय मोक्ष की हम साधना करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    एकादयो यशो वा देवताः । भूरिगुष्णिक् । धैवतः ॥

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    विषय

    निर्दोष सुखमय दीर्घ जीवन

    पदार्थ

    १. (एकस्मै स्वाहा) = जीवन के प्रथम वर्ष की उत्तमता के लिए हम स्वार्थत्याग करते हैं। वस्तुत: 'किस प्रकार माता का स्वार्थत्याग व तप बालक के प्रथम वर्ष को पूर्ण नीरोग बना सकता है' यह स्पष्ट है। माता का पूर्ण सात्त्विक भोजन व सात्त्विक क्रियाएँ बालक की नीरोगता के लिए आवश्यक हैं। २. (द्वाभ्यां स्वाहा) = जीवन के द्वितीय वर्ष की उत्तमता के लिए भी हम स्वार्थत्याग करते हैं । ३. इसी प्रकार तीन-चार पाँच इस क्रम से (शताय स्वाहा) = पूरे सौवें वर्ष के लिए भी हम स्वार्थत्याग करते हैं और सौवें से भी ऊपर उठकर ४. (एक शताय स्वाहा) = एक सौ एकवें वर्ष के लिए भी हम स्वार्थ से ऊपर उठते हैं । ५. (व्युष्ट्यै स्वाहा) = [वि+उष दाहे] विशेषरूप से सब रोगों व दोषों को जलाने के लिए हम स्वार्थत्याग करते हैं । ६. और इस प्रकार (स्वर्गाय) = [सुअर्ग] उत्तम कर्मों के अर्जन के लिए तथा इस लोक को सुखमय बनाने के लिए हम स्वार्थत्याग करते हैं। स्वार्थत्याग से ही दीर्घजीवन भी प्राप्त होगा, दोषदहन होकर स्वर्ग का निर्माण होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञियवृत्तिवाले बनें, जिससे हमारा एक-एक वर्ष उत्तम बीते । हमारा जीवन निर्दोष तथा सुखमय हो ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्याच्यसारख्या दुसरा कोणीच नाही अशा परमेश्वराची माणसांनी विशेष भक्ती करावी व असंख्य जीवांना प्रेमाने व पुरुषार्थाने प्रसन्न करावे म्हणजे सांसारिक सुख व मोक्षसुख प्राप्त होईल.

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    विषय

    यज्ञाचे अनुष्ठान कशासाठी करावे, यावषियी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मुनष्यांनो, तुम्हा सर्वांनी (एकस्मै) त्या एकमेवाद्वितीय परमेश्वरासाठी (स्वाहा) सत्य क्रिया (सत्य उपासना केली पाहिजे) तसेच (द्वाभ्याम्‌) दोन्हासाठी म्हणजे कार्य आणि कारणासाठी (स्वाहा) सत्यक्रिया केली पाहिजे (शताय) जगातील अनेक पदार्थांसाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया केली पाहिजे. (एंकशताय) एकशत व्यवहारांसाठी वा पदार्थांसाठी (स्वाहा) तुम्ही उत्तम क्रिया करावी. (व्युष्ट्यै) प्रकाशित वा ज्वलनशील पदार्थांमधे प्रज्वलन क्रिया उत्पन्न करण्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करावी तसेच (स्वर्गाय) सुखप्राप्तीसाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा सत्कर्में योग्य रीतीने अवश्य केली पाहिजेत. ॥34॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी, ज्या समान अन्य कोणी नाही, अशा परमेश्वराची विशेषत्वाने भक्ती अवश्य करावी. तवेच तो ईश्वर आपली प्रीती देऊन व पुरुषार्थाची प्रेरणा देऊन असंख्य जीवात्म्यांना प्रसन्न करील. यामुळे जगात सुख- आनंद नांदेल व जीवांना मोक्ष-सुख मिळेल. ॥34॥

    टिप्पणी

    या बाविसाव्या अध्यायात आयु, बुद्धी अग्नींचे गुण, कर्म, यज्ञ गायत्री मंत्राचा अर्थ आणि सर्व पदार्थांच्या शुद्धीकरण वा शोधन विषयी वर्णन केले आहे. त्यामुळे या अध्यायाच्या अर्थाची संगती मागील एकविसाव्या अध्यायाशी आहे, हे जाणून घ्यावे.^यजुर्वेद 22 वा अध्यायाचा मराठी भाषानुवाद समाप्त

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Worship one God. Have knowledge of Cause and Effect, Please hundreds of souls. Practise hundred and one trades. Acquire the power to burn down sins. Attain to final beatitude full of happiness.

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    Meaning

    By yajna in truth of thought, word and deed, homage and surrender to the One, Supreme Soul of the universe. Homage to the two, Purusha, the supreme spirit, and Prakriti, one the efficient cause and the other the material cause of the world. Homage to the hundred (years of life and countless things). Homage to the hundred (years of life) and the one beyond. Homage to the fire, the reckoning and the dawn. Homage to Svarga, the joy of the next world.

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    Translation

    Svaha to the one. (1) Svaha to the two. (2) Svaha to the hundred. (3) Svaha to the hundred and one. (4) Svaha to the effort to rise. (5) Svаһа to the state of absolute bliss. (6)

    Notes

    Vyustih, रात्रि:, the night. Svargaḥ, दिनम्, the day.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ কিমর্থো য়জ্ঞোऽনুষ্ঠাতব্য ইত্যাহ ॥
    পুনঃ কাহার জন্য যজ্ঞের অনুষ্ঠান করা কর্ত্তব্য, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমাদিগকে (একস্মৈ) এক অদ্বিতীয় পরমাত্মার জন্য (স্বাহা) সত্য ক্রিয়া (দ্বাভ্যাম্) দুই অর্থাৎ কার্য্য ও কারণের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (শতায়) বহু পদার্থের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (একশতায়) একশত এক ব্যবহার বা পদার্থের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (ব্যুষ্ট্যৈ) প্রকাশিত পদার্থকে দাহক্রিয়ার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া এবং (স্বর্গায়) সুখ প্রাপ্ত হওয়ার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া ভালমত যুক্ত করা উচিত ॥ ৩৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, বিশেষ ভক্তি দ্বারা যাহার সমকক্ষ কেউ নয়, সেই ঈশ্বর তথা প্রীতি ও পুরুষার্থ দ্বারা অসংখ্য জীবগুলিকে প্রসন্ন করিবে যাহাতে সংসারের সুখ ও মোক্ষ সুখ প্রাপ্ত হয় ॥ ৩৪ ॥
    এই মন্ত্রগুলিতে আয়ু, বৃদ্ধি, অগ্নির গুণ, কর্ম, যজ্ঞ, গায়ত্রী মন্ত্রের অর্থ এবং সফল পদার্থের শোধন করিবার বিধান আদির বর্ণনা হওয়ায় এই অধ্যায়ের অর্থের গত অধ্যায়ের অর্থ সহ সঙ্গতি জানা দরকার ॥
    ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
    য়জুর্বেদভাষ্যে দ্বাবিংশোऽধ্যায়ঃ সমাপ্তঃ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    এক॑স্মৈ॒ স্বাহা॑ দ্বাভ্যা॒ᳬं স্বাহা॑ শ॒তায়॒ স্বাহৈক॑শতায়॒ স্বাহা॑ ব্যু᳖ষ্ট্যৈ॒ স্বাহা॑ স্ব॒র্গায়॒ স্বাহা॑ ॥ ৩৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    একস্মা ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । ভুরিগুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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