यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - इन्द्रादयो देवताः
छन्दः - अतिधृतिः
स्वरः - षड्जः
4
प्र॒जाप॑तये त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मीन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि वा॒यवे॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यो॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॒ सर्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यो॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि। योऽअर्व॑न्तं॒ जिघा॑सति॒ तम॒भ्यमीति॒ वरु॑णः। प॒रो मर्त्तः॑ प॒रः श्वा॥५॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जापत॑य॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। त्वा। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। इन्द्रा॒ग्निभ्या॒मितीन्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म्। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। वायवे॑। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। सर्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। यः। अर्व॑न्तम्। जिघा॑सति। तम्। अ॒भि। अ॒मी॒ति॒। वरु॑णः। प॒रः। मर्त्तः। प॒रः। श्वा ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतये त्वा जुष्टम्प्रोक्षामीन्द्राग्निभ्यान्त्वा जुष्टम्प्रोक्षामि वायवे त्वा जुष्टम्प्रोक्षामि । विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यो जुष्टम्प्रोक्षामि । सर्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यो जुष्टम्प्रोक्षामि । योऽअर्वन्तञ्जिघाँसति तमभ्यमीति वरुणः परो मर्तः परः श्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रजापतय इति प्रजाऽपतये। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। इन्द्राग्निभ्यामितीन्द्राग्निऽभ्याम्। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। वायवे। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। विश्वेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। सर्वेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। यः। अर्वन्तम्। जिघासति। तम्। अभि। अमीति। वरुणः। परः। मर्त्तः। परः। श्वा॥५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कान् वर्द्धयेयुरित्याह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यः परो वरुणो मर्त्तोऽर्वन्तं जिघांसति तमभ्यमीति यः परः श्वेव वर्त्तते यस्तं निवारयति तं प्रजापतये जुष्टं त्वा प्रोक्षामीन्द्राग्निभ्यां जुष्टं त्वा प्रोक्षामि वायवे त्वा जुष्टं प्रोक्षामि विश्वेभ्यो देवेभ्यो जुष्टं त्वा प्रोक्षामि सर्वेभ्यो देवेभ्यो जुष्टं त्वा प्रोक्षामि॥५॥
पदार्थः
(प्रजापतये) प्रजापालकाय (त्वा) त्वाम् (जुष्टम्) प्रीतम् (प्रोक्षामि) प्रकृष्टतयाऽभिषिञ्चामि (इन्द्राग्निभ्याम्) जीवाग्निभ्याम् (त्वा) (जुष्टम्) (प्रोक्षामि) पवनाय (त्वा) (जुष्टम्) (प्रोक्षामि) (विश्वेभ्यः) अखिलेभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (जुष्टम्) (प्रोक्षामि) (सर्वेभ्यः) समग्रेभ्यः (त्वा) (देवेभ्यः) दिव्येभ्यः पृथिव्यादिपदार्थेभ्यः (जुष्टम्) (प्रोक्षामि) (यः) (अर्वन्तम्) शीघ्रगामिनमश्वम् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (तम्) (अभि) (अमीति) प्राप्नोति (वरुणः) श्रेष्ठः (परः) उत्कृष्टः (मर्त्तः) मनुष्य (परः) (श्वा) कुक्कुरः॥५॥
भावार्थः
ये मनुष्या उत्तमान् पशून् हिंसितुमिच्छेयुस्ते सिंहवद्धन्तव्याः, य एतान् रक्षितुं यतेरंस्ते सर्वरक्षणायाधिकर्त्तव्याः॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य किन को बढ़ावें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! (यः) जो (परः) उत्तम और (वरुणः) श्रेष्ठ (मर्त्तः) मनुष्य (अर्वन्तम्) शीघ्र चलने हारे घोड़े को (जिघांसति) ताड़ना देने वा चलाने की इच्छा करता है (तम्) उसको (अभि, अमीति) सब ओर से प्राप्त होता है और जो (परः) अन्य मनुष्य (श्वा) कुत्ते के समान वर्त्तमान अर्थात् दुष्कर्मी है, उसको जो रोकता है, उस (प्रजापतये) प्रजा की पालना करने वाले के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये गये (त्वा) तुझ को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार सींचता हूँ। (इन्द्राग्निभ्याम्) जीव और अग्नि के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये हुए (त्वा) तुझ को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार सींचता हूँ। (वायवे) पवन के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये हुए (त्वा) तुझको (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार सींचता हूँ। (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये हुए (त्वा) तुझ को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार सींचता हूँ। (सर्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) दिव्य पृथिवी आदि पदार्थों के लिये (जुष्टम्) प्रीति किये हुए (त्वा) तुझ को (प्रोक्षामि) अच्छी प्रकार सींचता हूँ॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य उत्तम पशुओं के मारने की इच्छा करते हों, वे सिंह के समान मारने चाहिये और जो इन पशुओं की रक्षा करने को अच्छा यत्न करते हैं, वे सबकी रक्षा करने के लिये अधिकार देने योग्य हैं॥५॥
विषय
अधिकार पदों के लिये प्रोक्षण, अभिषेक और आदरयोग्य पुरुषों का वर्णन ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! श्रेष्ठ पुरुष ! (जुष्टम् ) सबके प्रेमपात्र (त्वा) - तुझको मैं (प्रजापतये) प्रजा पालक पद के लिये, (इन्द्राग्नीभ्यां त्वा) इन्द्र और अग्नि, सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी सेनापति, अग्रणीपद के लिये, (वायवे ) वायु के समान शत्रुरूप वृक्षों के डाले तोड़ डालने वाले शूरवीर के पद पर और (विश्वेभ्यः देवेभ्यः) समस्त प्रजा के लिये; ( जुष्टम् ) सब लोगों से चाहे गये (स्वा) तुझको (प्रोक्षापि ) अभिषिक्त करता हूँ । (यः) जो पुरुष ( अर्वन्तम् ) अश्व के समान तीव्र वीर, विद्वान् और सब पदों के प्राप्त राजा को (जिघांसति) मारना चाहता है ( वरुणः ) दुष्टों का वारक पदाधिकारी ( तम् ) उसको (अभि अमीति) विनष्ट करे । (मर्त्तः) राजद्रोही, पुरुष ( परः) शत्रु है, और (परः श्वा) पर, शत्रु पुरुष कुत्ते के समान दुत्कारा जाय । अथवा (श्वा) कुत्ते के स्वभाव का टुकड़े पर पंछ हिलाने वाला भी (परः) पर अर्थात् शत्रु है उसे भी राष्ट्र से बाहर कर दिया जाय । शत० १३ । १ । २ । ५-९ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्रादयो देवताः अतिधृतिः । षड्जः ॥
विषय
अश्व-प्रोक्षण
पदार्थ
१. (प्रजापतये) = प्रजा का पति [ रक्षक] बनने के लिए (जुष्टम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये गये (त्वा) = तुझे गतमन्त्र के अश्व, अर्थात् सर्वव्यापक परमात्मा को (प्रोक्षामि) = मैं अपने हृदयदेश में सिक्त करता हूँ। २. (इन्द्राग्निभ्याम्) = अपने अन्दर इन्द्र व अग्नितत्त्व के विकास के लिए, अर्थात् बल व प्रकाश की वृद्धि के लिए (जुष्टम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये गये (त्वा) = तुझे (प्रोक्षामि) = मैं अपने अन्दर सिक्त करता हूँ। ३. (वायवे) = वायुतत्त्व के विकास के लिए, अर्थात् [वा गतिगन्धनयो: ] गति के द्वारा सब बुराइयों के हिंसन के लिए (जुष्टम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये गये (त्वा) = तुझको (प्रोक्षामि) = मैं अपने हृदयदेश में सिक्त करता हूँ। ४. (विश्वेभ्यः त्वा देवेभ्यः) = शरीर में अंशरूपेण प्रविष्ट सब देवों के लिए, अर्थात् चक्षु आदि में प्रतिष्ठित सूर्यादि देवों से स्वास्थ्य के लिए [सूर्य: चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशत्] (जुष्टम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये गये (त्वा) = तुझे प्रोक्षामि अपने हृदयदेश में सिक्त करता हूँ। ५. (सर्वेभ्यः देवेभ्यः) = इस बाह्य जगत् में स्थित सूर्यादि देवों की अनुकूलता के लिए तथा दिव्य गुणों से युक्त विद्वानों की कृपादृष्टि के लिए (जुष्टम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये गये (त्वा) = तुझको (प्रोक्षामि) = अपने हृदयदेश में सिक्त करता हूँ, अर्थात् हृदय में प्रभु का स्मरण होने पर सब देवों की अनुकूलता होती है। ६. इसके विपरीत (यः) = जो (अर्वन्तम्) = उस हृदयस्थरूपेण प्रेरणा देनेवाले इस प्रभु को [अर्व : ईरणवान्-प्रेरक : नि० २० । ३१] (जिघांसति) = नष्ट करना चाहता है, अर्थात् उसे भुलाकर संसार में आसक्त हो जाता है (तम्) = उसको (वरुणः) = वह श्रेष्ठ बनानेवाला प्रभु (अभ्यमीति) = [to pain, to attack] इस वृत्ति के लिए पीड़ित करता है। यह (मर्त्तः) = [अश्वं जिघांसुः] परमेश्वर को भूलकर विषयों के पीछे मरनेवाला मनुष्य (परः) = पराभूत होता है, अधस्पद को प्राप्त कराया जाता है। यह (श्वा) = विषयास्थियों को चाटनेवाला कुत्ते - जैसा मनुष्य (परः) = पराकृत होता है, दूर किया जाता है, समाज में आदर नहीं पाता।
भावार्थ
भावार्थ- हृदयदेश में प्रभु के स्मरण से मनुष्य प्रजापति बनता है, बल व प्रकाश को प्राप्त करता है, गतिशीलता से बुराइयों को दूर करता है, चक्षु आदि इन्द्रियों को स्वस्थ रख पाता है, सूर्यादि देव व विद्वान् इसके अनुकूल होते हैं। प्रभु को भूलनेवाला पीड़ित होता है, अन्ततः निरादृत होता है और अधोगति को प्राप्त करता है।
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे उत्तम पशूंना मारण्याची इच्छा बाळगतात त्यांची सिंहाप्रमाणे शिकार करावी व जे या पशूंचे रक्षण करण्याचा प्रयत्न करतात त्यांना सगळ्यांचे रक्षण करण्याचा अधिकार द्यावा.
विषय
मनुष्यांनी कोणत्या वस्तूची वृद्धी केली पाहिजे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान, (यः) जो (परः) उत्तम आणि (वरूण।) श्रेष्ठ असा (मर्त्तः) मनुष्य (अर्वन्तम्) शीघ्रगामी घोड्याला (जिघांसति) ताडना करून त्याला लवकर चलण्याची प्रेरणा देतो (तम्) तो मनुष्य त्या घोड्याचा (अभि, अमीति) सर्व प्रकारे योग्य उपयोग घेतो (आणि ‘विद्यांसति` शब्दाचा दुसऱ्या अर्थाप्रमाणे जो घोडासारख्या उपयोगी पशूची हत्या करतो, तो त्या लाभांपासून पूर्णतः वंचित होतो) तसेच (परः) एखादा दुसरा माणूस जो (श्वा) कुत्र्यासारखा वाजणाऱ्या, दुष्कर्म व दुराचार करणाऱ्या मनुष्याला ऐकतो (दुष्कर्मी व्यक्तीला अडवितो वा मारतो) त्या तशा (प्रजापतये) प्रजेचे (प्राण्यांचे) पालन-रक्षण करणाऱ्या हे विद्वान (पशुपालक अथवा राजा) मी (एक प्राणीप्रिय नागरिक) (त्वा) तुला (प्रोक्षामि) समर्थन देतो. याशिवाय (इन्द्राग्नीभ्याम्) सर्व जीवांकरिता आणि त्यांना वाढविणाऱ्या अग्नी करिता (जुष्टम्) तू करील असलेल्या कार्यासाठी (त्वा) तुला (प्रोक्षामि) चांगल्याप्रकारे संचित करतो (तुझी प्रशंसा करतो) (वायने) वायूसाठी (हवेच्या शुद्धता आणि प्रदूषणविरहितता या कार्यासाठी (जुष्टम्) तू मोठ्या निष्ठेने करीत असलेल्या कार्यासाठी (त्वा) तुला (प्रोक्षामि) तुला समर्थन देतो. तसेच (तुझ्या या सर्वहितकारी कार्यात सहकार्य करणाऱ्या (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानांनी केलेल्या (जुष्टम्) प्रशंसनीय कार्यासाठी (त्वा) मी तुला (प्रोक्षामि) संपूर्ण समर्थन देतो तसेच (सर्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) दिव्य पृथ्वी आदी पदार्थासाठी (जुष्टम्) मोठ्या तत्परतेने कार्य करणाऱ्या (त्वा) तुला (प्रोक्षामि) चांगल्याप्रकारे सिंचित करतो (तुझ्या मस्तकावर जलसिंचन करून तुला आशीर्वाद देतो म्हणजेच सत्कार्यासाठी तुझे समर्थन करतो) ॥5॥
भावार्थ
भावार्थ - जे लोक उत्तम वा अति उपयोगी पशूंना देखील मारण्याची इच्छा वा यत्न करतात, त्यांना ज्याप्रमाणे अत्याचारी नरभक्षक सिंहाला ठार मारले पाहिजे त्याप्रमाणे (राजाने) त्या दुष्ट पशुघातक लोकांचा वध केला पाहिजे. आणि जे लोक या पशूंचे रक्षण व पालन करण्यासाठी चांगले यत्न करतात, त्यांना (राजाने) त्या सर्वांची रक्षा करण्यासाठी उचित अधिकार दिले पाहिजेत ॥5॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, he, who wishes to kill a horse, should be punished by a noble person. Such a person is an enemy. He, low in character like a dog is an enemy and must be checked by thee. I sprinkle thee loved by all as prospector of the people. I anoint thee loved by all, for the protection of soul and fire. I anoint thee loved by all for the protection of air. I anoint thee loved by all, for the protection of all the educated persons. I anoint thee loved by all, for protecting beautiful physical objects like the Earth.
Meaning
Dedicated as you are, scholar, to Prajapati, I consecrate you. Dedicated to Indra and Agni, the soul and energy, I consecrate you. Dedicated to Vayu, wind energy, I consecrate you. Dedicated to divinities of the world, I consecrate you. Dedicated to all nobilities, I consecrate you. Who ever does violence to the horse¬ power, energy and the nation, the supreme lord Varuna punishes him, the best man too takes him on. The killer is worse than the worst man. He is worse than a dog.
Translation
I sprinkle you, who are pleasing to the Lord of creatures. (1) I sprinkle you, who are pleasing to the clouds as well as to the fire. (2) I sprinkle you, who are pleasing to the wind. (3) I sprinkle you, who are pleasing to all the bounties of Nature. (4) I sprinkle you, who are pleasing to all the enlightened ones. (5) The venerable Lord smites him, who wants to harm an aspirant moving forward. (6) May the man keep away; may the dog keep away. (7)
Notes
Prokṣāmi, अभिषिंचामि, I sprinkle you with water; I bathe you. I invest you with the charge of. Justam, प्रीतं, pleasing to; favoured by. Abhyamiti, हिनस्ति, smites. Paraḥ śvā, away the dog.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যাঃ কান্ বর্দ্ধয়েয়ুরিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্য কাহাকে বৃদ্ধি করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! (য়ঃ) যে (পরঃ) উত্তম ও (বরুণঃ) শ্রেষ্ঠ (মর্ত্তঃ) মনুষ্য (অর্বন্তম্) শীঘ্র গমনকারী অশ্বকে (জিঘাংসতি) তাড়না দেওয়া বা চালাইবার ইচ্ছা করে, (তম্) তাহাকে (অভি, অমীতি) সব দিক্ দিয়া প্রাপ্ত হয় এবং যে (পরঃ) অন্য মনুষ্য (শ্বা) কুকুরের সমান বর্ত্তমান অর্থাৎ দুষ্কর্মী তাহার যে প্রতিরোধ করে সেই (প্রজাপতয়ে) প্রজার পালন করিবার জন্য (জুষ্টম্) প্রীতি করিয়া (ত্বা) তোমাকে (প্রোক্ষামি) সম্যক্ প্রকার সিঞ্চন করি । (ইন্দ্রাগ্নিভ্যাম্) জীব ও অগ্নির জন্য (জুষ্টম্) প্রীতিপূর্বক (ত্বা) তোমাকে (প্রোক্ষামি) সম্যক্ প্রকার সিঞ্চন করি । (বায়বে) পবন হেতু (জুষ্টম্) প্রীতি করিয়া (ত্বা) তোমাকে (প্রোক্ষামি) সম্যক্ প্রকার সিঞ্চন করি । (বিশ্বেভ্যঃ) সমস্ত (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের জন্য (জুষ্টম্) প্রীতিপূর্বক (ত্বা) তোমাকে (প্রোক্ষামি) সম্যক্ প্রকার সিঞ্চন করি । (সর্বেভ্যঃ) সমস্ত (দেবেভ্যঃ) দিব্য পৃথিবী আদি পদার্থগুলির জন্য (জুষ্টম্) প্রীতি করিয়া (ত্বা) তোমাকে (প্রোক্ষামি) সম্যক্ প্রকার সিঞ্চন করি ॥ ৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে সব মনুষ্য উত্তম পশুদের মারিবার ইচ্ছা করে তাহাদের সিংহ সমান মারা উচিত এবং যাহারা এই পশুদের রক্ষা করিবার জন্য প্রচেষ্টা করে তাহাদেরকে সকলের রক্ষা করিবার জন্য অধিকার দেওয়া দরকার ॥ ৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
প্র॒জাপ॑তয়ে ত্বা॒ জুষ্টং॒ প্রোক্ষা॑মীন্দ্রা॒গ্নিভ্যাং॑ ত্বা॒ জুষ্টং॒ প্রোক্ষা॑মি বা॒য়বে॑ ত্বা॒ জুষ্টং॒ প্রোক্ষা॑মি॒ বিশ্বে॑ভ্যস্ত্বা দে॒বেভ্যো॒ জুষ্টং॒ প্রোক্ষা॑মি॒ সর্বে॑ভ্যস্ত্বা দে॒বেভ্যো॒ জুষ্টং॒ প্রোক্ষা॑মি । য়োऽঅর্ব॑ন্তং॒ জিঘা॑ᳬंসতি॒ তম॒ভ্য᳖মীতি॒ বর॑ুণঃ । প॒রো মর্ত্তঃ॑ প॒রঃ শ্বা ॥ ৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
প্রজাপতয় ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । ইন্দ্রাদয়ো দেবতাঃ । অতিধৃতিশ্ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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