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यजुर्वेद अध्याय - 22

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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 28
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - नक्षत्रादयो देवताः छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः
    4

    नक्ष॑त्रेभ्यः॒ स्वाहा॑ नक्ष॒त्रिये॑भ्यः॒ स्वाहा॑होरा॒त्रेभ्यः॒ स्वाहा॑र्द्धमा॒सेभ्यः॒ स्वाहा॒ मासे॑भ्यः॒ स्वाह॑ऽऋ॒तुभ्यः॒ स्वाहा॑र्त्त॒वेभ्यः॒ स्वाहा॑ संवत्स॒राय॒ स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ स्वाहा॑ च॒न्द्राय॒ स्वाहा॒ सूर्या॑य॒ स्वाहा॑ र॒श्मिभ्यः॒ स्वाहा॒ वसु॑भ्यः॒ स्वाहा॑ रु॒द्रेभ्यः॒ स्वाहा॑दि॒त्येभ्यः॒ स्वाहा॑ म॒रुद्भ्यः॒ स्वाहा॒ विश्वे॑भ्यो दे॒वेभ्यः॒ स्वाहा॒ मूले॑भ्यः॒ स्वाहा॒ शाखा॑भ्यः॒ स्वाहा॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ स्वाहा॒ पुष्पे॑भ्यः॒ स्वाहा॒ फले॑भ्यः॒ स्वाहौष॑धीभ्यः॒ स्वाहा॑॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नक्ष॑त्रेभ्यः। स्वाहा॑। न॒क्ष॒त्रिये॑भ्यः। स्वाहा॑। अ॒हो॒रा॒त्रेभ्यः॑। स्वाहा॑। अ॒र्द्ध॒मा॒सेभ्य॒ इत्य॑र्द्ध॒ऽमा॒सेभ्यः॑। स्वाहा॑। मासे॑भ्यः। स्वाहा॑। ऋ॒तुभ्य॒ इत्यृ॒तुऽभ्यः॑। स्वाहा॑। आ॒र्त्त॒वेऽभ्यः॑। स्वाहा॑। सं॒व॒त्स॒राय॑। स्वाहा॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। स्वाहा॑। च॒न्द्राय॑। स्वाहा॑। सूर्या॑य। स्वाहा॑। र॒श्मिभ्य॒ इति॑ र॒श्मिऽभ्यः॑। स्वाहा॑। वसु॑भ्य॒ इति॒ वसु॑ऽभ्यः। स्वाहा॑। रु॒द्रेभ्यः॑। स्वाहा॑। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। स्वाहा॑। म॒रुद्भ्य॒ इति॑ म॒रुत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। विश्वे॑भ्यः। दे॒वेभ्यः॑। स्वाहा॑। मूले॑भ्यः। स्वाहा॑। शाखा॑भ्यः। स्वाहा॑। वन॒स्पति॑भ्य॒ इति॒ वन॒स्पति॑ऽभ्यः। स्वाहा॑। पुष्पे॑भ्यः। स्वाहा॑। फले॑भ्यः। स्वाहा॑। ओष॑धीभ्यः स्वाहा॑ ॥२८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नक्षत्रेभ्यः स्वाहा नक्षत्रियेभ्यः स्वाहाहोरात्रेभ्यः स्वाहार्धमासेभ्यः स्वाहा मासेभ्यः स्वाहाऽऋतुभ्यः स्वाहार्तवेभ्यः स्वाहा सँवत्सराय स्वाहा द्यावापृथिवीभ्याँ स्वाहा चन्द्राय स्वाहा सूर्याय स्वाहा रश्मिभ्यः स्वाहा वसुभ्यः स्वाहा रुद्रेभ्यः स्वाहादित्येभ्यः स्वाहा मरुद्भ्यः स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा मूलेभ्यः स्वाहा शाखाभ्यः स्वाहा वनस्पतिभ्यः स्वाहा पुष्पेभ्यः स्वाहा फलेभ्यः स्वाहौषधीभ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नक्षत्रेभ्यः। स्वाहा। नक्षत्रियेभ्यः। स्वाहा। अहोरात्रेभ्यः। स्वाहा। अर्द्धमासेभ्य इत्यर्द्धऽमासेभ्यः। स्वाहा। मासेभ्यः। स्वाहा। ऋतुभ्य इन्यृतुऽभ्यः। स्वाहा। आर्त्तवेऽभ्यः। स्वाहा। संवत्सराय। स्वाहा। द्यावापृथिवीभ्याम्। स्वाहा। चन्द्राय। स्वाहा। सूर्याय। स्वाहा। रश्मिभ्य इति रश्मिऽभ्यः। स्वाहा। वसुभ्य इति वसुऽभ्यः। स्वाहा। रुद्रेभ्यः। स्वाहा। आदित्येभ्यः। स्वाहा। मरुद्भ्य इति मरुत्ऽभ्यः। स्वाहा। विश्वेभ्यः। देवेभ्यः। स्वाहा। मूलेभ्यः। स्वाहा। शाखाभ्यः। स्वाहा। वनस्पतिभ्य इति वनस्पतिऽभ्यः। स्वाहा। पुष्पेभ्यः। स्वाहा। फलेभ्यः। स्वाहा। ओषधीभ्यः स्वाहा॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 28
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    मनुष्यैर्नक्षत्रेभ्यः स्वाहा नक्षत्रियेभ्यः स्वाहाऽहोरात्रेभ्यः स्वाहाऽर्द्धमासेभ्यः स्वाहा मासेभ्यः स्वाहार्त्तुभ्यः स्वाहाऽऽर्त्तवेभ्यः स्वाहा संवत्सराय स्वाहा द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा चन्द्राय स्वाहा सूर्याय स्वाहा रश्मिभ्यः स्वाहा वसुभ्यः स्वाहा रुद्रेभ्यः स्वाहाऽऽदित्येभ्यः स्वाहा मरुद्भ्यः स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा मूलेभ्यः स्वाहा शाखाभ्यः स्वाहा वनस्पतिभ्यः स्वाहा पुष्पेभ्यः स्वाहा फलेभ्यः स्वाहौषधीभ्यः स्वाहा चावश्यमनुष्ठेयाः॥२८॥

    पदार्थः

    (नक्षत्रेभ्यः) अक्षीणेभ्यः (स्वाहा) (नक्षत्रियेभ्यः) नक्षत्राणां समूहेभ्यः (स्वाहा) (अहोरात्रेभ्यः) अहर्निशेभ्यः (स्वाहा) (अर्द्धमासेभ्यः) (स्वाहा) (मासेभ्यः) (स्वाहा) (ऋतुभ्यः) (स्वाहा) (आर्त्तवेभ्यः) ऋतुजातेभ्यः (स्वाहा) (संवत्सराय) (स्वाहा) (द्यावापृथिवीभ्याम्) भूमिप्रकाशाभ्याम् (स्वाहा) (चन्द्राय) (स्वाहा) (सूर्याय) (स्वाहा) (रश्मिभ्यः) किरणेभ्यः (स्वाहा) (वसुभ्यः) पृथिव्यादिभ्यः (स्वाहा) (रुद्रेभ्यः) प्राणजीवेभ्यः (स्वाहा) (आदित्येभ्यः) अविनाशिभ्यः कालावयवेभ्यः (स्वाहा) (मरुद्भ्यः) (स्वाहा) (विश्वेभ्यः) सर्वेभ्यः (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः (स्वाहा) (मूलेभ्यः) (स्वाहा) (शाखाभ्यः) (स्वाहा) (वनस्पतिभ्यः) (स्वाहा) (पुष्पेभ्यः) (स्वाहा) (फलेभ्यः) (स्वाहा) (ओषधीभ्यः) (स्वाहा)॥२८॥

    भावार्थः

    मनुष्या नित्यं सुगन्ध्यादिद्रव्यमग्नौ प्रक्षिप्य तद्वायुरश्मिद्वारा वनस्पत्यौषधिमूलशाखापुष्पफलादिषु प्रवेश्य सर्वेषां पदार्थानां शुद्धिं कृत्वाऽऽरोग्यं सम्पादयन्तु॥२८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि (नक्षत्रेभ्यः) जो पदार्थ कभी नष्ट नहीं होते उनके लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (नक्षत्रियेभ्यः) उक्त पदार्थों के समूहों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (अहोरात्रेभ्यः) दिन-रात्रि के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (अर्द्धमासेभ्यः) शुक्ल-कृष्ण पक्ष अर्थात् पखवाड़ों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (मासेभ्यः) महीनों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (ऋतुभ्यः) वसन्त आदि छः ऋतुओं के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (आर्त्तवेभ्यः) ऋतुओं में उत्पन्न हुए ऋतु के पदार्थों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (संवत्सराय) वर्षों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (द्यावापृथिवीभ्याम्) प्रकाश और भूमि के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (चन्द्राय) चन्द्रलोक के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (सूर्य्याय) सूर्य्यलोक के लिये (स्वाहा) यज्ञक्रिया (रश्मिभ्यः) सूर्य्य आदि की किरणों के लिये (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया (वसुभ्यः) पृथिवी आदि लोकों के लिये (स्वाहा) उक्त क्रिया (रुद्रेभ्यः) दश प्राणों के लिये (स्वाहा) यज्ञक्रिया (आदित्येभ्यः) काल के अवयव जो अविनाशी हैं, उनके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (मरुद्भ्यः) पवनों के लिये (स्वाहा) उनके अनुकूल क्रिया (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) दिव्य गुणों के लिये (स्वाहा) सुन्दर क्रिया (मूलेभ्यः) सभों की जड़ों के लिये (स्वाहा) तदनुकूल क्रिया (शाखाभ्यः) शाखाओं के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (वनस्पतिभ्यः) वनस्पतियों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (पुष्पेभ्यः) फूलों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (फलेभ्यः) फलों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया और (ओषधीभ्यः) ओषधियों के लिये (स्वाहा) नित्य उत्तम क्रिया अवश्य करनी चाहिये॥२८॥

    भावार्थ

    मनुष्य नित्य सुगन्ध्यादि पदार्थों को अग्नि में छोड़ अर्थात् हवन कर पवन और सूर्य की किरणों द्वारा वनस्पति, ओषधि, मूल, शाखा, पुष्प और फलादिकों में प्रवेश करा के सब पदार्थों की शुद्धि कर आरोग्यता की सिद्धि करें॥२८॥

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    विषय

    नक्षत्र आदि के सुखकारी होने की भावना ।

    भावार्थ

    (नक्षत्रेभ्यः, नक्षत्रियेभ्यः स्वाहा ) नक्षत्र, कभी अपने स्थान से च्युत नहीं होते और 'नक्षत्रिय', नक्षत्रों में उपग्रह भी हमें सुखकारी हों । (अहोरात्रेभ्यः, धर्ममासेभ्यः, ऋतुभ्यः, आर्त्तवेभ्यः, संवत्सराय स्वाहा ५) दिन-रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु और ऋतुओं में होने वाले विशेष परिवर्तन और संवत्सर ये हमें सुखकारी हों । (द्यावापृथिवीभ्यां चन्द्राय, सूर्याय, रश्मिभ्यः स्वाहा ४) द्यौ, पृथिवी, चन्द्र, सूर्य और रश्मियों सुखकारी हों। इनके शुभ लक्षण प्रकट हों । (वसुभ्यः, रुद्रेभ्यः, आदित्येभ्यः स्वाहा ३) आठ वसु, पृथिवी आदि ११ रुद्र = प्राण आदित्य १२ मास या अविनाशी काल के अवयव और (मरुद्रयः स्वाहा ) नाना वायुएं ये हमें सुखकारी हों । (विश्वेभ्यः देवेभ्यः स्वाहा ) समस्त अन्य दिव्य शक्तियां सुखकारी हों । (मूलेभ्य: शाखाभ्यः, वनस्पतिभ्यः पुष्पे- भ्यः, फलेभ्यः, स्वाहा ६) मूल, शाखा, वनस्पतियां, फूल, फल और औषधिगण वे सब हमारे लिये सुखकारी हों और हम उन सब उक्त पदार्थों को सुखकारी बनाने के उत्तम साधन उपस्थित करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नक्षत्रादयो देवताः।भुरिगष्टिः । मध्यमः ॥

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    विषय

    यज्ञ से ईति निवारण व सुकाल

    पदार्थ

    के १. (नक्षत्रेभ्य स्वाहा) = नक्षत्रों के लिए यज्ञक्रिया हो। इन नक्षत्रों से किसी प्रकार की आधिदैविक आपत्ति की हमारे लिए आशंका न रहे, इसके लिए हम यज्ञ करनेवाले बनें। (नक्षत्रियेभ्यः स्वाहा) = इन नक्षत्रों में रहनेवाले प्राणियों से हमारा अविरोध हो, इसके लिए हम यज्ञ की वृत्तिवाले बनें। जैसे समीप के देशों से हम मित्रभाव चाहते हैं, उसी प्रकार इन नक्षत्रों में रहनेवाले प्राणियों से भी हमारा विरोध न हो। इस सबके लिए चाहिए यही कि हम स्वार्थ की वृत्ति से ऊपर उठें । ३. (अहोरात्रेभ्यः स्वाहा) = दिन व रात की उत्तमता के लिए हम यज्ञशील हों। ४. (अर्धमासेभ्यः स्वाहा) = अर्धमासों के लिए - शुक्लपक्ष व कृष्णपक्ष के उत्तम होने के लिए हम यज्ञशील बनें। ५. (मासेभ्यः स्वाहा) = मासों के सौन्दर्य के लिए हम यज्ञशील बनें। ६. (ऋतुभ्यः स्वाहा) = ऋतुओं की अनुकूलता के लिए हम यज्ञशील हों । ७. (अर्तवेभ्यः स्वाहा) = ऋतुजन्य पदार्थों की अनुकूलता के लिए हम यज्ञशील हों । ८. (संवत्सराय स्वाहा) = वर्ष के लिए हम यज्ञशील हों। यज्ञ के द्वारा हमारा सारा वर्ष सुन्दर-ही- सुन्दर व्यतीत हो । यज्ञों के होने पर सम्पूर्णकाल हमारे लिए अनुकूल ही - अनुकूल हो। काल ही क्या, ९. (द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा) = द्युलोक व पृथिवीलोक की अनुकूलता लिए हम यज्ञशील बनें। १०. (चन्द्राय स्वाहा) = चन्द्र की अनुकूलता के लिए हम यज्ञों को अपनाएँ । ११. (सूर्याय स्वाहा) = सूर्य की अनुकूलता के लिए हम यज्ञशील बनें। १२. (रश्मिभ्यः स्वाहा) = सूर्य व चन्द्र की किरणों की अनुकूलता के लिए हम यज्ञ करनेवाले बनें। १३. (वसुभ्यः स्वाहा, रुद्रेभ्यः स्वाहा, आदित्येभ्यः स्वाहा) = वसुओं, रुद्रों व आदित्यों की अनुकूलता के लिए हम यज्ञियवृत्तिवाले बनें। १४. (मरुद्भ्)यः = ४९ प्रकार के मरुतों-वायुओं की शुद्धता के लिए स्वाहा-हम यज्ञ करें। १५.( विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा) = सब देवताओं की अनुकूलता के लिए हम यज्ञशील हों। १६. (मूलेभ्यः स्वाहा) = वृक्षों के मूलों के लिए यज्ञ हो । १७. (शाखाभ्यः स्वाहा) = शाखाओं के लिए यज्ञ हो । १८. (वनस्पतिभ्यः स्वाहा) = वनस्पतियों के लिए यज्ञ हो। १९. (पुष्पेभ्यः स्वाहा) = फूलों के लिए यज्ञ हो । २०. (फलेभ्यः स्वाहा) = फलों के लिए यज्ञ हो। २१. (ओषधीभ्यः स्वाहा) = ओषधियों के लिए यज्ञ हो, अर्थात् यज्ञों के द्वारा वृष्टि होकर सिंची हुई ये वनस्पतियाँ व ओषधियाँ तथा फल और फूल सब हमारे लिए अनुकूल व गुणकारी हों।

    भावार्थ

    भावार्थ-यज्ञों के द्वारा सब लोकों की हमारे साथ अनुकूलता होकर हमें सब ऋतुओं का सौन्दर्य प्राप्त होता है। सूर्य चन्द्रादि देव तथा वसु, रुद्र, आदित्य व मरुत् आदि देवगण हमारे अनुकूल होते हैं। सब देवताओं की अनुकूलता के साथ सब ओषधि वनस्पतियाँ हमारे लिए हितकर होती हैं और हम कभी आधिदैविक आपत्तियों के शिकार नहीं होते।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी नित्य सुगंधी पदार्थ अग्नीमध्ये टाकून अर्थात् हवन करून वायू व सूर्यकिरणांद्वारे वनस्पती, वृक्ष, मुळे, फांद्या, फुले, फळे इत्यादी सर्व पदार्थांचे शुद्धिकरण करून आरोग्याची पूर्तता करावी.

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    विषय

    पुन्हा त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - मनुष्यांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी (नक्षत्रेभ्यः) जे कधी नष्ट होत नाहींत, अशा पदार्थासाठी (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया करावी. (नक्षत्रियेभ्यः) तशा पदार्थांच्या समूहासाठी (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया करावी. (अहोरात्रेभ्यः) दिवसरात्रीसाठी (स्वाहा) आणि (अर्द्धमासेभ्यः) शुक्ल आणि कृष्ण या दोन पक्षांसाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करावी. (मासेभ्यः) बारा महिन्यांसाठी व (ऋतुभ्यः) वसंत आदी सहा ऋतूंसाठी (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया करावी. (आर्त्तवेभ्यः) ऋतूंमधे उत्पन्न होणाऱ्या पदार्थांसाठी (स्वाहा) आणि (संवत्सराय) एका वर्षासाठी (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया केली पाहिजे. (द्यावापृथिवीभ्याम्‌) (स्वाहा) यज्ञक्रिया करावी. (सूर्याय) सूर्यलोकासाठी (स्वाहा) (रश्मिभ्यः) सूर्य आदींच्या किरणांकरिता (स्वाहा) उत्तम यज्ञक्रिया करावी. (वसुभ्यः) पृथ्वी आदी लोकांसाठी (स्वाहा) आणि (रूद्रेभ्यः) दहा प्राणवायूसाठी (स्वाहा) पूर्वेाक्त क्रिया करावी. (आदित्येभ्यः) काल वा समयातील अवयव भाग जे अविनाशी आहेत, त्यांच्यासाठी (स्वाहा) तसेच (मरुद्भ्यः) पवनांसाठी (स्वाहा) त्यांच्या अनुकूल अशी क्रिया करावी. (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) दिव्यगुणांसाठी (स्वाहा) सुंदर क्रिया करावी. (मूलेभ्यः) वृक्षांच्या मुळांसाठी (स्वाहा) आणि (शाखाभ्यः) वृक्षांच्या शाखांसाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करावी. (पुष्पेभ्यः) फुलांकरिता (स्वाहा) (फलेभ्यः) फळांसाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करावी तसेच (औषधीभ्यः) औषधीसाठी (स्वाहा) मनुष्यांनी नित्य उत्तम क्रिया केली पाहिजे (यज्ञ म्हणजे सर्वोत्तम क्रिया आहे. यज्ञ केल्याने चंद्र, सूर्य, भूमी, शरीरातील प्राणादी वायू, पवन, वृक्ष, फळें, फुलें आदी सर्वांवर अनुकूल व अपेक्षित परिणाम होतात. यामुळे सर्वांनी यज्ञ अवश्य करावा. ) ॥28॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी सुगंधादी पदार्थ यज्ञाग्नीत टाकून म्हणजे (विधिप्रमाणे) यज्ञ करून वायू आणि सूर्य यांच्या साहाय्याने वनस्पती, औषधी, मुळें, शाखा, पुष्प आणि फळांमधे त्या उपकारक पदार्थाना प्रविष्ट करावे. अशाप्रकारे सर्व पदार्थांची शुद्धी करून आरोग्य प्राप्त करावे. ॥28॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Perform yajna for indestructible objects and for their assemblage ; for day and night, for the half months ; for the months ; for the seasons and for the objects produced in them and for the year to derive happiness, Perform yajna for the purification of Heaven and Earth ; for the Moon, for the Sun, and his rays. Perform yajna for the betterment of the Vasus, the Rudras and the Adityas. Perform yajna for purifying the airs ; for the acquisition of noble qualities, for improving the roots and branches of forest trees, flowers, fruits and herbs.

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    Meaning

    Let us perform yajna and do our best for the stars and planets and their part in nature, the day-night cycle, the fortnights, the months, the seasons and their part in nature, the year, the heaven and earth, the moon, the sun, the rays of light, the Vasu sustainers of life, the Rudra sustainers of pranic energy, the solar zodiacs of time, the winds, all the divine powers of nature, the roots, the branches, the herbs and trees, the flowers, fruits and medicinal plants.

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    Translation

    Svaha to the stars. (1) Svaha to the constellations. (2) Svaha to the pairs of day and night. (3) Svaha to the half months. (4) Svaha to the months. (5) Svaha to the seasons. (6) Svaha to the groups of seasons. (7) Svaha to the year. (8) Svaha to the heaven and earth. (9) Svaha to the moon. (10) Svaha to the sun. (11) Svaha to the rays. (12) Svaha to the abodes. (13) Svaha to the vital forces. (14) Svaha to the luminous bodies. (15) Svaha to the cloud-bearing winds. (16) Svaha to all the bounties of Nature. (17) Svaha to the roots. (18) Svaha to the branches. (19) Svaha to the plants. (20) Svaha to the flowers. (21) Svaha to the fruits. (22) Svaha to the medicinal herbs. (23)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে (নক্ষত্রেভ্যঃ) যে, পদার্থ কখনও নষ্ট হয় না তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম যজ্ঞক্রিয়া (নক্ষত্রিয়েভ্যঃ) উক্ত পদার্থের সমূহের জন্য (স্বাহা) উত্তম যজ্ঞক্রিয়া (অহোরাত্রেভ্যঃ) দিন-রাত্রির জন্য (স্বাহা) উত্তম যজ্ঞক্রিয়া (অর্দ্ধমাসেভ্য) শুক্ল-কৃষ্ণ পক্ষ অর্থাৎ দুই পক্ষের জন্য (স্বাহা) উক্ত ক্রিয়া (মাসেভ্যঃ) মাসগুলির জন্য (স্বাহা) উক্ত ক্রিয়া (ঋতুভ্যঃ) বসন্তাদি ছয়টি ঋতুর জন্য (স্বাহা) উত্তম যজ্ঞক্রিয়া (আর্ত্তবেভ্যঃ) ঋতুগুলিতে উৎপন্ন ঋতু-ঋতুর পদার্থের জন্য (স্বাহা) উত্তম যজ্ঞক্রিয়া (সংবৎসরায়) বর্ষাসমূহের জন্য (স্বাহা) উত্তম যজ্ঞক্রিয়া (দ্যাবাপৃথিবীভ্যাম্) প্রকাশ ও ভূমির জন্য (স্বাহা) উত্তম যজ্ঞক্রিয়া (চন্দ্রায়) চন্দ্রলোকের জন্য (স্বাহা) উত্তম যজ্ঞক্রিয়া (সূর্য়্যায়) সূর্য্যলোকের জন্য (স্বাহা) যজ্ঞক্রিয়া (রশ্মিভ্যঃ) সূর্য্য আদির কিরণ সমূহের জন্য (স্বাহা) উত্তম যজ্ঞক্রিয়া (বসুভ্যঃ) পৃথিবী আদি লোক-লোকান্তরের জন্য (স্বাহা) উক্ত ক্রিয়া (রুদ্রেভ্যঃ) দশ প্রাণের জন্য (স্বাহা) যজ্ঞক্রিয়া (আদিতেভ্যঃ) কালের অবয়ব যাহা অবিনাশী তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (মরুদ্ভ্যঃ) পবন সমূহের জন্য (স্বাহা) তাহার অনুকূল ক্রিয়া (বিশ্বেভ্যঃ) সমস্ত (দেবেভ্যঃ) দিব্যগুণগুলির জন্য (স্বাহা) সুন্দর ক্রিয়া (মূলেভ্যঃ) সকলের মূলের জন্য (স্বাহা) তদনুকূল ক্রিয়া (শাখাভ্যঃ) শাখাগুলির জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (বনস্পতিভ্যঃ) বনস্পতিসমূহের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (পুষ্পেভ্যঃ) পুষ্পগুলির জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (ফলেভ্যঃ) ফলগুলির জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া এবং (ওষধিভ্যঃ) ওষধি সমূহের জন্য (স্বাহা) নিত্য উত্তম ক্রিয়া অবশ্য করা উচিত ॥ ২৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্য নিত্য সুগন্ধাদি পদার্থসমূহকে অগ্নিতে আহুতি দিবে অর্থাৎ দহন করিয়া উহাদেরকে পবন ও সূর্য্যের কিরণ দ্বারা বনস্পতি, ওষধি, মূল, শাখা, পুষ্প ও ফলাদিতে প্রবেশ করাইয়া সকল পদার্থের শুদ্ধি করাইয়া আরোগ্যতা সিদ্ধ করিবে ॥ ২৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    নক্ষ॑ত্রেভ্যঃ॒ স্বাহা॑ নক্ষ॒ত্রিয়ে॑ভ্যঃ॒ স্বাহা॑হোরা॒ত্রেভ্যঃ॒ স্বাহা॑র্দ্ধমা॒সেভ্যঃ॒ স্বাহা॒ মাসে॑ভ্যঃ॒ স্বাহ॑ऽঋ॒তুভ্যঃ॒ স্বাহা॑র্ত্ত॒বেভ্যঃ॒ স্বাহা॑ সংবৎস॒রায়॒ স্বাহা॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বীভ্যা॒ᳬं স্বাহা॑ চ॒ন্দ্রায়॒ স্বাহা॒ সূর্য়া॑য়॒ স্বাহা॑ র॒শ্মিভ্যঃ॒ স্বাহা॒ বসু॑ভ্যঃ॒ স্বাহা॑ রু॒দ্রেভ্যঃ॒ স্বাহা॑দি॒ত্যেভ্যঃ॒ স্বাহা॑ ম॒রুদ্ভ্যঃ॒ স্বাহা॒ বিশ্বে॑ভ্যো দে॒বেভ্যঃ॒ স্বাহা॒ মূলে॑ভ্যঃ॒ স্বাহা॒ শাখা॑ভ্যঃ॒ স্বাহা॒ বন॒স্পতি॑ভ্যঃ॒ স্বাহা॒ পুষ্পে॑ভ্যঃ॒ স্বাহা॒ ফলে॑ভ্যঃ॒ স্বাহৌষ॑ধীভ্যঃ॒ স্বাহা॑ ॥ ২৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    নক্ষত্রেভ্য ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । নক্ষত্রাদয়ো দেবতাঃ । ভুরিগষ্টী ছন্দসী । মধ্যমৌ স্বরৌ ॥

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