यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 12
ऋषिः - बृहस्पतिर्ऋषिः
देवता - इन्द्राबृहस्पती देवते
छन्दः - स्वराट अति धृति,
स्वरः - षड्जः
2
ए॒षा वः॒ सा स॒त्या सं॒वाग॑भू॒द् यया॒ बृह॒स्पतिं॒ वाज॒मजी॑जप॒ताजी॑जपत॒ बृह॒स्पतिं॒ वाजं॒ वन॑स्पतयो॒ विमु॑च्यध्यम्। ए॒षाः वः॒ स॒त्या सं॒वाग॑भू॒द् ययेन्द्रं॒ वाज॒मजी॑जप॒ताजी॑जप॒तेन्द्रं॒ वाजं॒ वन॑स्पतयो॒ विमु॑च्यध्वम्॥१२॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा। वः॒। सा। स॒त्या। सं॒वागिति॑ स॒म्ऽवाक्। अ॒भू॒त्। यया॑। बृह॒स्प॑तिम्। वाज॑म्। अजी॑जपत। अजी॑जपत। बृह॒स्पति॑म्। वाज॑म्। वन॑स्पतयः। वि। मु॒च्य॒ध्व॒म्। ए॒षा। वः॒। सा। स॒त्या। संवागिति॑ स॒म्ऽवाक्। अ॒भू॒त्। यया॑। इन्द्र॑म्। वाज॑म्। अजी॑जपत। अजी॑जपत। इन्द्र॑म्। वाज॑म्। वन॑स्पतयः। वि। मु॒च्य॒ध्व॒म् ॥१२॥
स्वर रहित मन्त्र
एषा वः सा सत्या सँवागभूद्यया बृहस्पतिँवाजमजीजपताजीजपत बृहस्पतिँवाजन्वनस्पतयो विमुच्यध्वम् । एषा वः सा सत्या सँवागभूद्ययेन्द्रँवाजमजीजपताजीजपतेन्द्रँवाजँवनस्पतयो वि मुच्यध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
एषा। वः। सा। सत्या। संवागिति सम्ऽवाक्। अभूत्। यया। बृहस्पतिम्। वाजम्। अजीजपत। अजीजपत। बृहस्पतिम्। वाजम्। वनस्पतयः। वि। मुच्यध्वम्। एषा। वः। सा। सत्या। संवागिति सम्ऽवाक्। अभूत्। यया। इन्द्रम्। वाजम्। अजीजपत। अजीजपत। इन्द्रम्। वाजम्। वनस्पतयः। वि। मुच्यध्वम्॥१२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः सर्वदा सर्वथा सत्यं वक्तव्यं श्रोतव्यं चेत्याह॥
अन्वयः
हे वनस्पतयः! यूयं यया बृहस्पतिं वाजमजीजपत बृहस्पतिमजीजपत सैषा वः संवाक् सत्याऽभूत्। हे वनस्पतयः! यूयं ययेन्द्रं वाजमजीजपतेन्द्रमजीजपत सैषा वः संवाक् सत्याऽभूत्॥१२॥
पदार्थः
(एषा) उक्ता वक्ष्यमाणा च (वः) युष्माकम् (सा) (सत्या) यथार्थोक्ता (संवाक्) राजनीतिनिष्ठा सम्यग्वाणी (अभूत्) भवतु (यया) (बृहस्पतिम्) वेदशास्त्रपालकम् (वाजम्) वेदशास्त्रबोधम् (अजीजपत) उत्कर्षयत (अजीजपत) (बृहस्पतिम्) बृहतो राज्यस्य पालकम् (वाजम्) सङ्ग्रामम् (वनस्पतयः) वनस्य किरणसमूहस्येव न्यायस्य पालकाः। वनमिति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं॰१।५) (वि) (मुच्यध्वम्) मुक्ता भवत, विकरणव्यत्ययेन श्यन् (एषा) पूर्वापरप्रतिपादिता (वः) युष्माकम् (सा) (सत्या) सत्यभाषणयुक्ता (संवाक्) विनयपुरुषार्थयोः सम्यक् प्रकाशिनी वाणी (अभूत्) भवेत् (यया) (अजीजपत) जापयत (अजीजपत) सम्यक् प्रापयत (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवते पुरुषाय (वाजम्) युद्धम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तमुत्तमश्रीप्रापकमुद्योगम् (वाजम्) वेगयुक्तम् (वनस्पतयः) वनानां जङ्गलानां पालकाः (वि) (मुच्यध्वम्)। अयं मन्त्रः (शत॰५। १। ५। ११-१२) व्याख्यातः॥१२॥
भावार्थः
नैव कदाचिदपि राजा राजाऽमात्यभृत्याः प्रजाजनाश्च स्वकीयां प्रतिज्ञां वाचं चासत्यां कुर्य्युः। यावतीं ब्रूयुस्तावतीं तथ्यामेव कुर्य्युः। यस्य वाणी सर्वदा सत्याऽस्ति, स एव सम्राड् भवितुमर्हति, यावदेवं न भवति तावद् राजप्रजाजना विश्वसिताः सुखस्योत्कर्षकाश्च भवितुं नार्हन्ति॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को अति उचित है कि सब समय में सब प्रकार से सत्य ही बोलें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (वनस्पतयः) किरणों के समान न्याय के पालनेहारे राजपुरुषो! तुम लोग (यया) जिस से (बृहस्पतिम्) वेदशास्त्र के पालनेहारे विद्वान् को (वाजम्) वेदशास्त्र के बोध को (अजीजपत) बढ़ाओ (बृहस्पतिम्) बड़े राज्य के रक्षक राजपुरुष के (वाजम्) सङ्ग्राम को (अजजीपत) जिताओ (सा) वह (एषा) पूर्व कही वा आगे जिस को कहेंगे (वः) तुम लोगों की (संवाक्) राजनीति में स्थित अच्छी वाणी (सत्या) सत्यस्वरूप (अभूत्) होवे। हे (वनस्पतयः) सूर्य की किरणों के समान न्याय के प्रकाश से प्रजा की रक्षा करनेहारे राजपुरुषो! तुम लोग (यया) जिससे (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य प्राप्त करानेहारे सेनापति को (वाजम्) युद्ध को (अजीजपत) जिताओ (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्ययुक्त पुरुष को (वाजम्) अत्युत्तम लक्ष्मी को प्राप्त करनेहारे उद्योग को (अजजीपत) अच्छे प्रकार प्राप्त करावें, (सा) वह (एषा) आगे-पीछे जिसका प्रतिपादन किया है (वः) तुम लोगों की (संवाक्) विनय और पुरुषार्थ का अच्छे प्रकार प्रकाश करने वाली वाणी (सत्या) सदा सत्यभाषणादि लक्षणों से युक्त (अभूत्) होवे॥१२॥
भावार्थ
राजा, उस के नौकर और प्रजापुरुषों को उचित है कि अपनी प्रतिज्ञा और वाणी को असत्य होने कभी न दें, जितना कहें उतना ठीक-ठीक करें। जिसकी वाणी सब काल में सत्य होती है, वही पुरुष राज्यधिकार के योग्य होता है, जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक उन राजा और प्रजा के पुरुषों का विश्वास और वे सुखों को नहीं बढ़ा सकते॥१२॥
विषय
सत्या संवाक्
पदार्थ
१. पुरोहित सभ्यों से कहता है कि तुम लोगों ने राजा के लिए जो उत्साह की वाणी कही है ( एषा ) = यह ( वः ) = तुम्हारी ( सा ) = वह ( संवाक् ) = उत्तम वाणी ( सत्या ) = सत्य ( अभूत् ) = हुई है। वह वाणी ( यया ) = जिससे कि ( बृहस्पतिम् ) = ज्ञान के अधिपति राजा को ( वाजम् ) = संग्राम को ( अजीजपत ) = तुमने जिताया है। हे ( वनस्पतयः ) = ज्ञान की रश्मियों के अधिपतियो! तुमने उत्साह का सञ्चार करनेवाली वाणी के द्वारा ( बृहस्पतिम् ) = इस ज्ञानी राजा को ( वाजम् ) = संग्राम में ( अजीजपत ) = विजय प्राप्त कराई है। अब तुम शत्रुओं के उपद्रवों से जनित क्लेशों से ( विमुच्यध्वम् ) = मुक्त हो जाओ। जब तक युद्ध रहता है या शत्रुओं का उपद्रव बना रहता है तब तक कुछ-न-कुछ क्लेश बना ही रहता है।
२. ( एषा सा ) = यह वह ( वः ) = तुम्हारी ( संवाक् ) = उत्तम वाणी ( सत्या अभूत् ) = सत्य हुई है ( यया ) = जिससे आपने ( इन्द्रम् ) = सेनापति को ( वाजं अजीजपत ) = संग्राम में विजयी किया है। हे ( वनस्पतयः ) = ज्ञानरश्मियों के अधिपति सभ्यो! आपने अपनी उत्साहमयी वाणी से ( इन्द्रम् ) = सेनापति को ( वाजम् ) = संग्राम में ( अजीजपत ) = विजय प्राप्त कराई है। परिणमतः ( विमुच्यध्वम् ) = अब तुम्हारा जीवन क्लेशों से मुक्त हो गया है।
३. राष्ट्र में जब सभ्य ज्ञानी होते हैं और राजा व सेनापति के साथ उनकी अनुकूलता होती है तब अवश्य विजय होती है और राष्ट्र विविध क्लेशों व अशान्तियों से मुक्त हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ — युद्ध के समय सब सभ्यों का राष्ट्रपति व सेनापति के साथ पूर्ण सहयोग आवश्यक है। संकटकाल में विरोधी वाणी मानस शक्ति को नष्ट करने का कारण बनती है।
विषय
उनका संग्राम-विजय में सहायोगदान ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों की ( एषा ) यह ( सा ) वह ( सत्या ) सत्य, न्याययुक्र, उचित ( सं-वाग ) सम्मिलित एक दूसरे से संगत वाणी ( अभूत् ) होना चाहिये ( या ) जिससे ( बृहस्पतिम् ) बृहती सेना के स्वामी, सेनाध्यक्ष या बृहत् राष्ट्र के पालक राजा को (वाजम् ) संग्राम का ( अजीजपत ) आप लोग विजय कराने में समर्थ होते हैं । आप लोग उस एक सम्मिलित उत्तम ज्ञान वाणी से ही ( बृहस्पतिम् ) इस बृहस्पति राजा को ( वाजं अजीजपत ) संग्राम का विजय कराने में समर्थ हुए हैं। अतः हे (वनस्पतयः ) प्रजा समूहों के एवं सैनिक समूहों के पालक पुरुषो ! आप लोग ( विमुच्यध्वम् ) अपने सैनिकों, अश्वों और दस्तों को बन्धन से छोड़ दो। ( एषा ) यह ( वः ) तुम लोगों को ( सत्या संवाग् ) सच्ची, परस्पर सम्मिलित सहमति ( अभूत् ) है ( यथा ) जिससे आप लोग ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् राजा को ( वाजम् अजीजपत) संग्राम को विजय कराते हो। आप लोग ही ( इन्द्रम् ) इन्द्र को ( वाजम् अजीजपत ) संग्राम विजय कराते हो । ( वनस्पतयः ) हे सैनिक समूहों के पालक, अध्यक्ष कप्तान लोग ! ( विमुधच्यध्वम् ) आप विजय के अनन्तर अपने सैनिकों, घोड़ों और रथों को छोड़ दो, उनके बन्धन खोल दो, उनको आराम दो ॥ शत० ५ । १ । ५ । १२ ॥
समस्त सैनिक सेनानायक लोग मिलकर एक आवाज, एक आज्ञा से चलकर सेनापति राजा के युद्ध को विजय कराते हैं और विजय करलेने पर उनको अपने दस्तों और अश्व आदि के बन्धनमुक्त करने की आज्ञा हो ।
(
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्राबृहस्पती देवते । स्वराड् अतिधृतिः । षड्जः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
राजा, त्याचे सेवक व प्रजा यांनी आपली प्रतिज्ञा व आपली वाणी असत्य ठरेल असे वागू नये. जशी वाणी तशीच करणी असावी. ज्याची वाणी सर्व काळी सत्य ठरते त्याच व्यक्तीला राज्य करण्याचा अधिकार असतो. जोपर्यंत असे होत नाही तोपर्यंत राजा व प्रजा यांचा परस्परांवर विश्वास नसतो व सुखाची वृद्धीही होत नाही.
विषय
मनुष्यांनी सदा सर्वदा सदैव सत्यतेच बोलावे, पुढील मंत्रात हा उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (वनस्पतय्:) सूर्याच्या किरणांप्रमाणे सर्वांशी न्याय्यपणे वागणार्या राजपुरुषहो, (सूर्याची किरणें सर्व वनस्पती, वृक्षादींना सारखेपणाने प्रकाश देतात, तद्वत सर्वांना न्यायोचित अधिकार देणार्या शासकीय अधिकार्यांनो) (यया) ज्या उत्तम वाणी आहेत, त्या (तुमच्या वाणी वा उपदेशाने) (बृहस्पतिम्) वेदशास्त्रज्ञाता-अध्येताजनाच्या (वाजम्) अध्ययन, ज्ञान व बोधाला (अजीजपत) वाढवा. तसेच त्या उपदेशाने (बृहस्पतिम्) विशाल व महान राजाच्या रक्षक राजपुरुषाला (अजीजपत) संग्रामात विजयी करा. (सा) ती (एषा) ही आताची वाणी वा तुम्ही पुढे बोलणार ती वचने (व:) तुमच्या (संवाक्) राजनीतीमधे ती वाणी उत्तम आणि (सत्या) सत्य (अभूत्) व्हावी. (तुम्ही सदा वर्तमानकाळीं व भविष्यात देखील केवळ सत्यवचनें बोलावीत) हे (वनस्पतय:) सूर्याच्या किरणांप्रमाणे न्यायाने प्रजेचे रक्षण करणार्या राजपुरुष हो, तुम्ही (यथा) (तुमच्याजवळ जी तुमची श्रेष्ठवाणी, मधुरवचनें आहेत) त्या वचनांनी (इन्द्रम्) परमैश्वर्य मिळवणार्या सेनापतीला (वाजम्) युद्धात (अजीजपठ) विजय मिळवून द्या. (अधिकार्यांनी वाणी व वागणुकीने सैनिकांचा उत्साह वाढवावा) (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशायी पुरुषाचा (वाजम्) अत्युत्तम समृद्धी देणारा उद्योग-व्यवसाय (अजीजपत) उत्तमप्रकारे यशस्वी होईल, असे करा. (सा) तुमची ती (एषा) आणि ही म्हणजे मागील काळात व पुढीलकाळी प्रकाश उत्साह देणारी वाणी सदा (सत्या) सत्यभाषणयुक्त (अभूत्) व्हावी. ॥12॥
भावार्थ
भावार्थ - राजा, त्याचे सेवक (अधिकारी, कर्मचारी) तसेच प्रजाजन, सर्वांसाठी उचित आहे की आपली प्रतिज्ञा (दिलेले वचन, आश्वासन आदी) तसेच आपली वाणी कधीही खोटी ठरू देऊ नये. जे जे जेवढे म्हणले, बोलले, ते ते तेवढे करून दाखवावे. कारण की ज्या मनुष्याची वाणी वा वचनें सदा खरीं ठरतात, होतात तोच राज्यशासनासाठी योग्य पात्र मनुष्य असतो. जर असे असणार नाही, (बोललेले खरे करून दाखवणार नाही, तर राजा आणि प्रजा यांमध्ये कधीही परस्परात विश्वास निर्माण होणार नाही आणि परिणामीं सुखाची प्राप्ती कदापि होणार नाही. ॥12॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O guardians of justice, advance thereby the knowledge of the Vedas, and the learned who protect them. Bring victory to the king in the battle. May ye be free in speech. O 1 guardians of justice, bring thereby like the suns beams victory to your commander in the battle. May ye grant to your king success in a wealth-producing pursuit. May this your utterance of statesmanship be true. May ye be free in speech.
Meaning
Men bright as sunbeams, this national language of yours should be true, good, common and one by which Brihaspati, ruler of the great land and leader of education and enlightenment may win the battle of unity and education. Men of plenty and abundance, cooperate and help Brihaspati win the battle and free the nation from ignorance, disunity and suffering. Men bright as sunbeams, the language of yours should be true, good, common and one by which Indra, lord of national glory, may win his battle. Men of plenty and abundance, cooperate and help Indra win the battle and free the nation from ignorance and suffering.
Translation
True has come out your auspicious speech, by which you have made the Lord Supreme win the battle. O vegetations, be freed by the Lord Supreme, whom you have enabled to win the battle. (1) True has come out your auspicious speech by which you have made the resplendent Lord win the battle. О vegetations, be freed by the resplendent Lord, whom you have enabled to win the battle. (2)
Notes
Samvak, auspicious speech. Vimucyadhvam, be freed.
बंगाली (1)
विषय
অথ মনুষ্যৈঃ সর্বদা সর্বথা সত্যং বক্তব্যং শ্রোতব্যং চেত্যাহ ॥
মনুষ্যের অত্যন্ত উচিত যে, সব সময় সব প্রকার সত্যই বলিবে, এই উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (বনস্পতয়ঃ) কিরণ সম ন্যায়পালনকারী রাজপুরুষগণ ! তোমরা (য়য়া) যদ্দ্বারা (বৃহস্পতিম্) বেদশাস্ত্রের পালক বিদ্বান্কে (বাজম্) বেদশাস্ত্রের বোধকে (অজীজপত) বৃদ্ধি কর (বৃহস্পতিম্) বড় রাজ্যের রক্ষক রাজপুরুষের সংগ্রামকে (অজীজপত) জয় করাও (সা) উহা (এষা) পূর্বকথিত বা পরে যাহা (বঃ) তোমাদিগের (সংবাক্) রাজনীতিতে স্থিত সুষ্ঠু বাণী (সত্যা) সত্যস্বরূপ (অভূৎ) হইবে । হে (বনস্পতয়ঃ) সূর্য্যের কিরণ সম ন্যায়ের প্রকাশ দ্বারা প্রজার রক্ষক রাজপুরুষগণ ! তোমরা (য়য়া) যদ্দ্বারা (ইন্দ্রম্) পরম ঐশ্বর্য্য প্রাপ্ত করাইতে ইচ্ছুক সেনাপতিকে (বাজম্) যু্দ্ধে (অজীজপত) জয়লাভ করাও । (ইন্দ্রম্) পরম ঐশ্বর্য্যযুক্ত পুরুষকে (বাজম্) অত্যুত্তম লক্ষ্মীকে প্রাপ্ত করাইবার উদ্যোগকে (অজীজপত) ভাল প্রকার প্রাপ্ত করাইও । (সা) উহা (এষা) অগ্রপশ্চাৎ যাহার প্রতিপাদন করা হইয়াছে (বঃ) তোমাদিগের (সংবাক্) বিনয় ও পুরুষকারের সম্যক্ প্রকার প্রকাশক বাণী (সত্যা) সদা সত্যভাষণাদি লক্ষণগুলি দ্বারা যুক্ত (অভূৎ) হউক ॥ ১২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- রাজা, তাঁহার সেবক এবং প্রজাপুরুষদিগের উচিত যে, স্বীয় প্রতিজ্ঞা ও বাণীকে অসত্য হইতে কখনও দিবেন না, যতখানি বলিবেন ততখানি ঠিক ঠিক করিবেন । যাহার বাণী সর্বকালে সত্য হয় সেই পুরুষ রাজ্যাধিকারের যোগ্য হয় । যতক্ষণ এমন হয় না ততক্ষণ সেই সব রাজা ও প্রজার পুরুষদিগের বিশ্বাস এবং সুখকে বৃদ্ধি করিতে পারে না ॥ ১২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
এ॒ষা বঃ॒ সা স॒ত্যা সং॒বাগ॑ভূ॒দ্ য়য়া॒ বৃহ॒স্পতিং॒ বাজ॒মজী॑জপ॒তাজী॑জপত॒ বৃহ॒স্পতিং॒ বাজং॒ বন॑স্পতয়ো॒ বি মু॑চ্যধ্যম্ । এ॒ষাঃ বঃ॒ সা স॒ত্যা সং॒বাগ॑ভূ॒দ্ য়য়েন্দ্রং॒ বাজ॒মজী॑জপ॒তাজী॑জপ॒তেন্দ্রং॒ বাজং॒ বন॑স্পতয়ো॒ বি মু॑চ্যধ্বম্ ॥ ১২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
এষা ব ইত্যস্য বৃহস্পতির্ঋষিঃ । ইন্দ্রাবৃহস্পতী দেবতে । স্বরাডতিধৃতিশ্ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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