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यजुर्वेद अध्याय - 9

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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 2
    ऋषिः - बृहस्पतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्ति,विकृति स्वरः - पञ्चमः, मध्यमः
    4

    ध्रु॒व॒सदं॑ त्वा नृ॒षदं॑ मनः॒सद॑मुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्। अ॒प्सुषदं॑ त्वा घृत॒सदं॑ व्योम॒सद॑मुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्। पृ॒थि॒वि॒सदं॑ त्वाऽन्तरिक्ष॒सदं॑ दिवि॒सदं॑ देव॒सदं॑ नाक॒सद॑मुपया॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ जुष्ट॑तमम्॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध्रु॒व॒सद॒मिति॑ ध्रु॒व॒ऽसद॑म्। त्वा॒। नृ॒षद॑म्। नृ॒सद॒मिति॑ नृ॒ऽसद॑म्। म॒नः॒सदमिति॑ मनःऽसद॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। अ॒प्सु॒षद॑म्। अ॒प्सु॒सद॒मित्य॑प्सु॒ऽसद॑म्। त्वा॒। घृ॒त॒सद॒मिति॑ घृत॒ऽसद॑म्। व्यो॒म॒सद॒मिति॑ व्योम॒ऽसद॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। पृ॒थि॒वि॒सद॒मिति॑ पृथिविऽसद॑म्। त्वा॒। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒सद॒मित्यन्त॑रिक्ष॒ऽसद॑म्। दि॒वि॒सद॒मिति॑ दिवि॒ऽसद॑म्। दे॒वसद॒मिति॑ देव॒ऽसद॑म्। ना॒क॒सद॒मिति॑ नाक॒ऽसद॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृही॑तः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम् ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धु्रवसदन्त्वा नृषदम्मनः सदमुपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टङ्गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् । अप्सुषदन्त्वा घृतसदँव्योमसदमुपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टङ्गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् । पृथिवीसदन्त्वान्तरिक्षसदन्दिविसदन्देवसदन्नाकसदमुपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा जुष्टङ्गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ध्रुवसदमिति ध्रुवऽसदम्। त्वा। नृषदम्। नृसदमिति नृऽसदम्। मनःसदमिति मनःऽसदम्। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। जुष्टम्। गृह्णामि। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्। अप्सुषदम्। अप्सुसदमित्यप्सुऽसदम्। त्वा। घृतसदमिति घृतऽसदम्। व्योमसदमिति व्योमऽसदम्। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। जुष्टम्। गृह्णामि। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्। पृथिविसदमिति पृथिविऽसदम्। त्वा। अन्तरिक्षसदमित्यन्तरिक्षऽसदम्। दिविसदमिति दिविऽसदम्। देवसदमिति देवऽसदम्। नाकसदमिति नाकऽसदम्। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। जुष्टम्। गृह्णामि। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। जुष्टतममिति जुष्टऽतमम्॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्याः कीदृशं राजानं स्वीकुर्य्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे सम्राडहमिन्द्राय यस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तं ध्रुवसदं नृषदं मनः सदं जुष्टं त्वा गृह्णामि। यस्यैष ते योनिरस्ति तं जुष्टतमं त्वेन्द्राय गृह्णामि। हे राजन्नहमिन्द्राय यस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तमप्सुसदं घृतसदं व्योमसदं जुष्टं त्वा गृह्णामि। हे सर्वरक्षक सभाध्यक्ष! यस्यैष ते योनिरस्ति तं जुष्टतमं त्वेन्द्राय गृह्णामि। हे सार्वभौम राजन्नहमिन्द्राय यस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि पृथिविसदमन्तरिक्षसदं दिविसदं देवसदं नाकसदं जुष्टं त्वा गृह्णामि। हे सर्वसुखप्रद प्रजापते! यस्यैष ते योनिरस्ति तं जुष्टतमं त्वेन्द्राय गृह्णामि॥२॥

    पदार्थः

    (ध्रुवसदम्) ध्रुवेषु विद्याविनययोगधर्मेषु सीदन्तम् (त्वा) त्वाम् (नृसदम्) नायकेषु सीदन्तम् (मनःसदम्) मनसि विज्ञाने तिष्ठन्तम् (उपयामगृहीतः) उपगतैर्यमानामिमकैः सेवकैः पुरुषैः स्वीकृतः (असि) भवसि (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्ताय जगदीश्वराय (त्वा) त्वाम् (जुष्टम्) जुषमाणम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (एषः) (ते) तव (योनिः) कारणम् (इन्द्राय) राज्यैश्वर्य्याय (त्वा) (जुष्टतमम्) अतिशयेन जुषमाणम् (अप्सुसदम्) जलेषु गच्छन्तम् (त्वा) (घृतसदम्) आज्यं प्राप्नुवन्तम् (व्योमसदम्) विमानैर्व्योम्नि गच्छन्तम् (उपयामगृहीतः) उपयामैः प्रजाराजजनैः स्वीकृतः (असि) (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यधारणाय (त्वा) (जुष्टम्) प्रीतम् (गृह्णामि) (एषः) (ते) (योनिः) (इन्द्राय) दुष्टशत्रुविदारणाय (जुष्टतमम्) (पृथिविसदम्) पृथिव्यां गच्छन्तम्। अत्र ङ्यापोः सञ्ज्ञाछन्दसोर्बहुलम्। (अष्टा॰६।३।६३) इति पूर्वपदस्य ह्रस्वः (त्वा) (अन्तरिक्षसदम्) अवकाशे गमकम् (दिविसदम्) न्यायप्रकाशे व्यवस्थितम् (देवसदम्) देवेषु धार्मिकेषु विद्वत्स्ववस्थितम् (नाकसदम्) अविद्यमानं कं सुखं यस्मिन् तदकमेतन्नास्ति यस्मिन् परमेश्वरे धर्मे वा तत्रस्थम् (उपयामगृहीतः) साधनोपसाधनैः संयुक्तः (असि) (इन्द्राय) विद्यायोगमोक्षैश्वर्य्याय (त्वा) (जुष्टम्) (गृह्णामि) (एषः) (ते) (योनिः) निवसतिः (इन्द्राय) सर्वैश्वर्य्यसुखप्राप्तये (त्वा) (जुष्टतमम्)। अयं मन्त्रः (शत॰५। १। २। ३-६) व्याख्यातः॥२॥

    भावार्थः

    हे राजप्रजाजनाः! यथा सर्वव्यापकेन परमेश्वराय सर्वैश्वर्य्याय जगन्निर्माय सर्वेभ्यः सुखं दीयते, तथा यूयमप्याचरत, यतो धर्मार्थकाममोक्षफलानां प्राप्तिः सुगमा स्यात्॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य लोग किस प्रकार के पुरुष को राज्याऽधिकार में स्वीकार करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे चक्रवर्ति राजन्! मैं (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा के लिये जो आप (उपयामगृहीतः) योगविद्या के प्रसिद्ध अङ्ग यम के सेवने वाले पुरुषों से स्वीकार किये (असि) हो। उस (ध्रुवसदम्) निश्चल विद्या विनय और योगधर्मों में स्थित (नृषदम्) नायक पुरुषों में अवस्थित (मनःसदम्) विज्ञान में स्थिर (जुष्टम्) प्रीतियुक्त (त्वा) आपको (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं। जिस (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) सुखनिमित्त है, उस (जुष्टतमम्) अत्यन्त सेवनीय (त्वा) आपका (गृह्णामि) धारण करता हूं। हे राजन्! मैं (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य धारण के लिये जो आप (उपयामगृहीतः) प्रजा और राजपुरुषों ने स्वीकार किये (असि) हो। उस (अप्सुसदम्) जलों के बीच चलते हुए (घृतसदम्) घी आदि पदार्थों को प्राप्त हुए और (व्योमसदम्) विमानादि यानों से आकाश में चलते हुए (जुष्टम्) सब के प्रिय (त्वा) आपका (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं। हे सब की रक्षा करनेहारे सभाध्यक्ष राजन्! जिस (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) सुखदायक घर है, उस (जुष्टतमम्) अति प्रसन्न (त्वा) आपको (इन्द्राय) दुष्ट शत्रुओं के मारने के लिये (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं। हे सब भूमि में प्रसिद्ध राजन्! मैं (इन्द्राय) विद्या योग और मोक्षरूप ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये जो आप (उपयामगृहीतः) साधन-उपसाधानों से युक्त (असि) हो, उस (पृथिविसदम्) पृथिवी में भ्रमण करते हुए (अन्तरिक्षसदम्) आकाश में चलने वाले (दिविसदम्) न्याय के प्रकाश में नियुक्त (देवसदम्) धर्मात्मा और विद्वानों के मध्य में अवस्थित (नाकसदम्) सब दुःखों से रहित परमेश्वर और धर्म्म में स्थिर (जुष्टम्) सेवनीय (त्वा) आपको (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं। हे सब सुख देने और प्रजापालन करनेहारे राजपुरुष! जिस (ते) तेरा (एषः) यह (योनिः) रहने का स्थान है, उस (जुष्टतमम्) अत्यन्त प्रिय (त्वा) आपको (इन्द्राय) समग्र सुख देने के लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं॥२॥

    भावार्थ

    हे राजप्रजाजनो! जैसे सर्वव्यापक परमेश्वर सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य भोगने के लिये जगत् रच के सब के लिये सुख देता, वैसा ही आचरण तुम लोग भी करो कि जिस से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फलों की प्राप्ति सुगम होवे॥२॥

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    विषय

    राजा

    पदार्थ

    ‘पिछले मन्त्रों की भावना के अनुसार सबके जीवन बड़े सुन्दर हों’ इसके लिए राजा का उत्तम होना आवश्यक है। वास्तव में राजशक्ति ही प्रजाओं में सब उत्तमताओं को लाने का कारण बनती है, अतः प्रस्तुत मन्त्र में राजा का वर्णन करते हैं कि— १. ( ध्रुवसदम् ) = [ ध्रुवम् यथा स्यात्तथा सीदतीति ] ध्रुवता से अपने धर्मों में स्थित होनेवाले २. ( नृषदम् ) = [ नृषु सीदति ] मनुष्यों में अवस्थित होनेवाले, अर्थात् हर समय प्रजा-रक्षण के कार्य में तत्पर रहनेवाले, ३. ( मनः सदम् ) = अपने मन पर आसीन होनेवाले, अर्थात् अपने मन को पूर्णरूप से वश में करनेवाले ऐसे ( त्वा ) = तुझ राजा को ( गृह्णामि ) = हम ग्रहण करते हैं। हे राजन्! ४. ( उपयामगृहीतः असि ) = आप उपासना द्वारा यम-नियमों से स्वीकृत जीवनवाले हैं। ( इन्द्राय त्वा ) = आपको राष्ट्र के ऐश्वर्य की वृद्धि के लिए स्वीकार करते हैं। ( जुष्टम् ) = आप प्रीतिपूर्वक राष्ट्र का सेवन करनेवाले हो। ( एषः ते योनिः ) = यह राष्ट्र ही तेरा घर है। ( इन्द्राय ) = राष्ट्र के ऐश्वर्य के लिए, ( जुष्टतमम् ) = सर्वाधिक प्रीति से राष्ट्र का सेवन करनेवाले ( त्वा ) = तुझे हम स्वीकार करते हैं। 

    ५. ( अप्सुषदम् ) = सदा कार्यों में अवस्थित होनेवाले, अर्थात् सदा क्रियाशील ( त्वा ) = तुझे हम स्वीकार करते हैं। 

    ६. ( घृतसदम् ) = [ घृ क्षरणदीप्त्योः ] मलों के क्षरण के द्वारा दीप्ति को लाने के कार्य में स्थित तुझे हम ग्रहण करते हैं। राजा का महत्त्वपूर्ण कार्य यही है कि वह प्रजा की मलिनताओं को दूर करे और उनके जीवन को उज्ज्वल बनाये। 

    ७. ( व्योमसदम् ) = [ व्योम्नि सीदति, व्योमन् = वी+ओम्+अन् = प्रकृति, परमात्मा व जीव ] जो तू प्रकृति, परमात्मा व जीव तीनों में स्थित है। प्रजा की प्राकृतिक आवश्यकताओं [ खान-पान ] को पूर्ण करने का ध्यान करता है। उनकी वृत्ति को प्रभु-प्रवण बनाने का ध्यान करता है और जीवों के पारस्परिक व्यवहार को उत्तम बनाता है। 

    ८. ऐसा यह राजा ( उपयामगृहीतः असि ) = उपासना द्वारा यम-नियमों को अपनानेवाला है। ( इन्द्राय ) = राष्ट्र के ऐश्वर्य के लिए हम ( त्वा ) = तुझे स्वीकार करते हैं। ( जुष्टम् ) = राष्ट्र का प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले तुझे ( गृह्णामि ) = ग्रहण करते हैं। ( एषः ते योनिः ) = यह राष्ट्र ही तेरा घर है। ( इन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ) = राष्ट्र के ऐश्वर्य के लिए सर्वाधिक प्रीतिपूर्वक राष्ट्र की सेवा करनेवाले ( त्वा ) = तुझे हम स्वीकार करते हैं। 

    ९. ( पृथिविसदम्, अन्तरिक्षसदम्, दिविसदम् ) = [ पृथिवी = शरीरम्, हृदय = अन्तरिक्ष, मूर्धन् = द्यौः ] शरीर, हृदय व मस्तिष्क में स्थित ( त्वा ) = तुझे ग्रहण करते हैं—तू शरीर, हृदय व मस्तिष्क तीनों का अधिष्ठाता है, तूने शरीर को स्वस्थ बनाया है, हृदय को निर्मल तथा मस्तिष्क को उज्ज्वल। 

    १०. ( देवसदम् ) = तेरा उठना-बैठना सदा देवों के साथ है, अतः तुझे अपने व प्रजाओं के जीवन को दिव्य बनाना है। 

    ११. ( नाकसदम् ) = [ न+अक ] तू आनन्दस्वरूप प्रभु में स्थित है। प्रातः-सायं तू प्रभु का स्मरण अवश्य करता है। यह प्रभु-स्मरण ही तुझे कर्त्तव्यमार्ग पर ध्रुवता से चलने की शक्ति देता है। ऐसे ( त्वा ) = तुझे हम ग्रहण करते हैं। 

    १२. आप ( उपयामगृहीतः असि ) = उपासना द्वारा यम-नियमों से स्वीकृत जीवनवाले हो। ( जुष्टम् ) =  प्रीतिपूर्वक राष्ट्र की सेवा करनेवाले ( त्वा ) = तुझे ( इन्द्राय ) = राष्ट्र के ऐश्वर्य के लिए ( गृह्णामि ) = ग्रहण करते हैं। ( एषः ते योनिः ) = यह राष्ट्र ही तेरा घर है। ( जुष्टतमम् ) = राष्ट्र का सर्वाधिक प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले ( त्वा ) = तुझे ( इन्द्राय ) = राष्ट्र के ऐश्वर्य के लिए ग्रहण करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — राजा ध्रुव वृत्तिवाला हो—मानव-कार्यों में ही रुचिवाला हो [ हर समय शिकार ही न खेलता हो ], अपने मन का अधिष्ठाता हो, सदा कार्यव्यापृत हो, मलों का क्षरण करके दीप्ति का लानेवाला हो। वह प्रजाओं की प्राकृतिक आवश्यकताओं का ध्यान करे, उन्हें प्रभु-प्रवण बनाये। उनके पारस्परिक व्यवहारों को उत्तम करे, शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों का ध्यान करे, अच्छे पुरुषों के साथ उसका उठना-बैठना हो, प्रातः-सायं प्रभु का ध्यान करनेवाला हो।

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    विषय

    इन्द्र की स्थापना ।

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! राजन् ! तू ( उपयाम गृहीतः असि ) राज्यव्यवस्था में नियुक्त राजपुरुषों, प्रजा के और राज्य के उत्तम पुरुषों और राज्य के साधनों और उपसाधनों से स्वीकृत है । ( त्वा इन्द्राय ) तुझको इन्द्रपद के ( जुष्टं ) योग्य जानकर ( गृहामि ) इस पद के लिये नियुक्त करता हूँ । ( ते एषः योनिः ) यह तेरा आश्रयस्थान और पत्र है । ( जुष्टतमम् ) सबसे योग्यतम ( ध्रुवसदम् ) ध्रुव, स्थितरूप से विराजनेवाले (नृसदम् ) समस्त नेता पुरुषों में प्रतिष्ठित ( मनःसदम् ) सब प्रजाओं के मन में और मनन योग्य विज्ञान में प्रतिष्ठित ( त्वा ) तुझको स्थापित करता हूँ । इसी प्रकार, (अप्युषदम् ) प्रजाओं में, समुद्रों में और्वानल या विद्युत् के समान तेजपूर्वक विराजमान, ( घृतसदम् ) घृत में अग्नि के समान तेजस्वी रूप से विराजमान ( व्योमसदम् ) आकाश में सूर्य के समान प्रतापी होकर विराजमान (त्वा) तुमको स्थापित करता हूं । ( उपयामगृहीतः इत्यादि ) पूर्ववत् । इसी प्रकार ( पृथिवीसदम् ) पृथिवी पर पर्वत के समान स्थिररूप से विराजने हारे ( अन्तरिक्षसदम् ) अन्तरिक्ष में वायु के समान व्यापक, ( दिविसदम् ) द्यौलोक या नक्षत्रगणों में सूर्य या चन्द्र के समान विराजमान ( देवसदम् ) देव -विद्वानों और योद्धाओं में विजिगीषु पुरुषों में प्रति- ष्टित ( नाकसदम् ) दुःखरहित धर्म या परमेश्वर में दत्तचित्त (त्वा ) 
    तुझको मैं राज्यपद पर प्रतिष्ठित करता हूं । ( उपयामगृहीतः असि० इत्यादि ) पूर्ववत् ॥ शत० ५ । १ । २ । १-६ ॥

    टिप्पणी

    १ ध्रुवसद २ अप्सुषद।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो देवता । ( १ ) आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः । ( २ ) विकृतिः । मध्यमः॥ 

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे राजा व प्रजाजनांनो ! ज्याप्रमाणे सर्वव्यापक परमेश्वर सर्वांना संपूर्ण ऐश्वर्य भोगण्यासाठी जगाची निर्मिती करून सुख देतो त्याप्रमाणे तुम्हीही वागा. यामुळे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सहजतेने प्राप्त होईल.

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    विषय

    मनुष्यांनी (प्रजेने) कोणत्या व कशा पुरुषाला राज्यात राज्याधिकारी रुपात स्वीकारावे (वा निवडावे), हे पुढील मंत्रात वर्णित केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विद्वानाचे वचन चक्रवर्ती राजापती) हे चक्रवर्ती राजा, (इन्द्राय) परमैश्वर्यमय परमात्म्यासाठी (त्याची उपासना, धार्मिकता आणि अस्तिकतेच्या स्थापनेसाठी) (उपयामगृहीत:) योगविद्येचे प्रमुख अंग म्हणजे यम, याचे पालन करणार्‍या श्रेष्ठ पुरुषांनी आपणांस स्वीकार केले (असि) आहे. आपण (धु्रवसदम्) स्थिर विद्या, विनय आणि योगशक्तीमध्ये निष्णात आहात. (नृषदम्) नेतृत्व करणार्‍या पुरुषांमध्ये उपस्थित असणारे, (मन:सदम्) विज्ञान विशारद आणि (जुष्टम्) प्रीतीयुक्त आहात. अशा गुणांना धारण करणार्‍या (त्वा) आपला मी (गृह्णमि) स्वीकार करतो (आपणांस राजा म्हणून मान्यता देतो वा चक्रवर्ती राजा मानतो) (ते) आपला (एष:) हा सुखाचे (योनि:) कारण असलेला स्वभाव आहे, तो (जुष्टतम्) सेवनीय व अत्यंत प्रिय आहे. अशा (त्वा) आपला मी (गृह्णामि) स्वीकार करतो. हे राजा, (इन्द्राय) ऐश्वर्यप्राप्तीसाठी आपला (उपयामगृहीत:) प्रजाजनांनी आणि राजपुरुषांनी स्वीकार केले (असि) आहे, यामुळे (अप्सुसदम्) पाण्यातून (जलया आदी वा नौसेनिक युद्धयानादीतून) प्रवास करणार्‍या (घृतसदम्) तूप आदी पौष्टिक पदार्थांची प्राप्ती करणार्‍या (व्योमसदम्) विमानायी यानांत बसून अवकाशात यात्रा करणार्‍या (जुष्टम्) सर्वांचे प्रिय अशा (त्वा) आपला मी (गृह्णामि) स्वीकार करतो. हे सर्वांचे रक्षक सभाध्यक्ष राजा (ते) आपला (एष:) हा (योनि:) सुखकारक महाल आहे. (जुष्टतमम्) सदा प्रसन्न राहणारे अशा (त्वा) आपणाला मी (इन्द्राय) दुष्ट शत्रूंना ठार मारण्यासाठी (गृह्णामि) स्वीकार करतो. हे सार्‍या भूमंडळात प्रशंसित व कीर्तिमान राजा, (इन्द्राय) विद्या, योग आणि मोक्षरुप ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी आपण (उपयामगृहीत:) योग्य साधनांनी, उपसाधनांनी समृद्ध (असि) आहात. आपण (पृथिवीसदम्) सार्‍या पृथ्वीवर भ्रमण करणारे (अन्तरिक्षसदम्) अवकाशात यात्रा करणारे (दिविसदम्) न्यायदानात निपुण आहात. (देवसदम्) धर्मात्मा जनांच्या आणि विद्वानांच्या सभेत भाग घेणारे, (नाकसदम्) दु:खरहित परमेश्वराविषयी आणि धर्माविषयी आस्था असणारे आणि (जुष्टम्) प्रिय व सेवनीय आहात. (त्वा) अशा आपला मी (गृह्णामि) स्वीकार करतो. हे सर्वांना सुख देणार्‍या आणि प्रजापालक राजपुरुषा, (ते) आपले (एष:) हे (योनि:) निवासस्थान आहे, (ते सुखदायक आहे) मी (जुष्टतमम्) अत्यंत प्रिय (त्वा) अशा आपला (इन्द्राय) समस्त सुखांच्या प्राप्तीकरिता (गृह्णामि) स्वीकार करतो (वरील हेतूंची पूर्तता करणार्‍या सभाध्यक्षाला व राजाला विद्वज्जनांना मान्यता देत आहेत. त्याच्या शासनकार्यावर प्रसन्न असून विद्वान त्यास आशीर्वाद देत आहेत) ॥2॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे राजा आणि हे प्रजाजनो, ज्याप्रमाणे सर्वव्यापी परमेश्वर मानवाला संपूर्ण ऐश्वर्य देण्यासाठी या जगाची रचना करून सर्वांना सुख देतो, तद्वत तुम्ही देखील तसेच आचरण (सर्वांना सुखकारक व्यवहार) करा की ज्यामुळे तुम्हाला धर्म, अर्थ, काम आणि मोक्ष यांची सुगमपणे प्राप्ती व्हावी. ॥2॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O king elected by the learned, for carrying out the behest of God, I accept thee, well versed in knowledge, yoga practices, and full of humility, leader of leaders, expert in science, and full of affection, as my lord. This administration is thy mainstay. I accept thee, most beloved for attaining to prosperity. Thou hast been elected by the people. I accept thee, that indulges in sea trade, is the master of strength-giving articles like ghee, fliest in space in an aero plane, and is full of affection ; as my lord. This kingdom is thy mainstay. I accept thee, most beloved for destroying foes. Thou art full of plans, I accept thee, the traveller in all parts of the world, the flier in heavens, the bestower of justice, the devotee of duty and God, free from affliction ; and the lover of humanity, as my lord. This kingdom is thy mainstay. I accept thee, most beloved for the attainment of happiness.

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    Meaning

    Ruler of the land, firmly settled (with knowledge, humility, yoga and Dharma) among the people, in their heart and awareness, you are accepted and consecrated in the rules and discipline of the state for the honour and prosperity of the people. Loved and thus accepted, I accept and elect you. This office now is your very life and purpose. Most highly loved and respected, you are now dedicated to Indra, honour and prosperity of the people. Ruler of the country, saddled with the management of water, food (milk, ghee and other nourishments), and aviation, you are accepted by the people by virtue of your discipline and respect for law and constitution of the nation for the defence and honour of the people. Loved and respected thus, I accept and elect you. This office now is your very life and existence. Most highly loved and respected, you are now committed to the honour and glory of the nation. President of the nations of the world, committed as you are to the earth and its environment, to the skies, to exploration of space, powers of nature and the brilliant people, and the freedom and happiness of humanity, you are accepted and consecrated by the people of the world in the universal Dharma and nation’s law for absolute freedom and prosperity of the people of the world. Accepted, loved and respected thus, I accept and elect you. This office and its Dharma now is the very meaning and purpose of your existence. Most highly loved, respected and elected, we commit and dedicate you to the honour and prosperity of humanity and to the glory of the Lord of the universe.

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    Translation

    You are firmly set in this world, settled in men, settled in the mind. (1) You have been duly accepted. I take you, who are pleasing to the resplendent Lord. (2) This is your abode. You, the most pleasing, to the resplendent Lord. (3) You are settled in waters, settled in melted butter and settled in the Sky. (4) You have been duly accepted. I take you, who are pleasing to the resplendent Lord. (5) This is your abode. You, the most pleasing, to the resplendent Lord. (6) You are settled on the earth, settled in the midspace, settled in the sky, settled in the bounties of Nature, settled in the heaven. (7) You have been duly accepted. I take you, who are pleasing to the resplendent Lord. (8) This is your abode. You, the most pleasing, to the respledent Lord. (9)

    Notes

    Dhravasadam, set firmly. Justatamam, most pleasing.

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    बंगाली (1)

    विषय

    মনুষ্যাঃ কীদৃশং রাজানং স্বীকুর্য়্যুরিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যগণ কী প্রকার পুরুষকে রাজ্যাধিকারে স্বীকার করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে চক্রবর্তি রাজন্ ! আমি (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্যযুক্ত পরমাত্মার জন্য আপনি যে (উপয়ামগৃহীতঃ) যোগবিদ্যার প্রসিদ্ধ অঙ্গ যমসেবনকারী পুরুষগণ স্বীকার করিয়াছেন সেই (ধ্রুবসদম্) নিশ্চল বিদ্যা বিনয় এবং যোগধর্মে স্থিত (নৃষদম্) নায়ক পুরুষদিগের মধ্যে অবস্থিত, (মনঃ সদম্) বিজ্ঞানে স্থির (জুষ্টঃ) প্রীতিযুক্ত (ত্বা) আপনাকে (গৃহণামি) স্বীকার করি । (তে) আপনার যে (এষঃ) ইহা (য়োনিঃ) সুখনিমিত্ত সেই (জুষ্টতমম্) অত্যন্ত সেবনীয় (ত্বা) আপনাকে (গৃহণামি) ধারণ করি । হে রাজন্ ! আমি (ইন্দ্রায়) ঐশ্বর্য্য ধারণ হেতু আপনি যে (উপয়ামগৃহীতঃ) প্রজাও রাজ পুরুষগণ স্বীকার করিয়াছেন সেই (অপ্সুসদম্) জলের মধ্যে চলায়মান (ঘৃতসদম্) ঘৃতাদি পদার্থ প্রাপ্ত হওয়া এবং (ব্যোমসদম্) বিমানাদি যান দ্বারা আকাশে চলায়মান (জুষ্টম্) সকলের প্রিয় (আপনাকে গৃহ্ণামি) গ্রহণ করি । হে সকলের রক্ষাকারী সভাধ্যক্ষ রাজন্ ! (তে) আপনার যে (এষঃ) এই (য়োনিঃ) সুখদায়ক গৃহ সেই (জুষ্টতমম্) অতিপ্রসন্ন (ত্বা) আপনাকে (ইন্দ্রায়) দুষ্ট শত্রুদিগকে মারিবার জন্য (গৃহ্ণামি) স্বীকার করি । হে সকল ভূমিতে প্রসিদ্ধ রাজন্ ! আমি (ইন্দ্রায়) বিদ্যা যোগ ও মোক্ষরূপ ঐশ্বর্য্য প্রাপ্তি হেতু আপনি যে (উপয়ামগৃহীতঃ) সাধন-উপসাধন দ্বারা যুক্ত হন সেই (পৃথিবিসদম্) পৃথিবীতে ভ্রমণরত (অন্তরিক্ষসদম্) আকাশে চলায়মান (দিবিসদম্) ন্যায়ের প্রকাশে নিযুক্ত (দেবসদম্) ধর্মাত্মা ও বিদ্বান্দিগের মধ্যে অবস্থিত (নাকসদম্) সকল দুঃখ হইতে রহিত পরমেশ্বর ও ধর্ম্মে স্থির (জুষ্টম্) সেবনীয় (ত্বা) আপনাকে (গৃহ্ণামি) স্বীকার করি । হে সর্বসুখদাতা এবং প্রজাপালনকারী রাজপুরুষ (তে) আপনার যে (এষঃ) এই (য়োনিঃ) থাকিবার স্থান সেই (জুষ্টতমম্) অত্যন্ত প্রিয় (ত্বা) আপনাকে (ইন্দ্রায়) সমগ্র সুখ প্রদান করিবার জন্য (গৃহ্ণামি) গ্রহণ করি ॥ ২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে রাজ প্রজাগণ ! যেমন সর্বব্যাপক পরমেশ্বর সম্পূর্ণ ঐশ্বর্য্য ভোগ করিবার জন্য জগৎ রচনা করিয়া সকলের জন্য সুখ প্রদান করেন সেইরূপ তোমরাও আচরণ কর, যাহাতে ধর্ম-অর্থ-কাম ও মোক্ষ ফলের প্রাপ্তি সুগম হয় ॥ ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ধ্রু॒ব॒সদং॑ ত্বা নৃ॒ষদং॑ মনঃ॒সদ॑মুপয়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা॒ জুষ্টং॑ গৃহ্ণাম্যে॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা॒ জুষ্ট॑তমম্ । অ॒প্সুষদং॑ ত্বা ঘৃত॒সদং॑ ব্যোম॒সদ॑মুপয়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা॒ জুষ্টং॑ গৃহ্ণাম্যে॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা॒ জুষ্ট॑তমম্ । পৃ॒থি॒বি॒সদং॑ ত্বাऽন্তরিক্ষ॒সদং॑ দিবি॒সদং॑ দেব॒সদং॑ নাক॒সদ॑মুপয়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা॒ জুষ্টং॑ গৃহ্ণাম্যে॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা॒ জুষ্ট॑তমম্ ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ধ্রুবসদং ত্বেত্যস্য বৃহস্পতির্ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ধ্রুবসদমিতি পূর্বস্যার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । অপ্সুসদমিত্যস্য বিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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