यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 35
ऋषिः - वरुण ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - विराट् उत्कृति
स्वरः - षड्जः
1
ए॒ष ते॑ निर्ऋते भा॒गस्तं जु॑षस्व॒ स्वाहा॒ऽग्निने॑त्रेभ्यो दे॒वेभ्यः॑ पुरः॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ य॒मने॑त्रेभ्यो दे॒वेभ्यो॑ दक्षिणा॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ वि॒श्वदे॑वनेत्रेभ्यो दे॒वेभ्यः॑ पश्चा॒त्सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ मि॒त्रावरु॑णनेत्रेभ्यो वा म॒रुन्ने॑त्रेभ्यो वा दे॒वेभ्य॑ऽउत्तरा॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॒ सोम॑नेत्रेभ्यो दे॒वेभ्य॑ऽउपरि॒सद्भ्यो॒ दुव॑स्वद्भ्यः॒ स्वाहा॑॥३५॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः। ते॑ नि॒र्ऋ॒त इति॑ निःऽऋते। भा॒गः। तम्। जु॒ष॒स्व॒। स्वाहा॑। अ॒ग्निने॑त्रेभ्य॒ इत्य॒ग्निऽने॑त्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। पु॒रः॒सद्भ्य॒ इति॑ पुरःसत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। य॒मने॑त्रेभ्य॒ इति॑ य॒मऽने॑त्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। द॒क्षि॒णा॒सद्भ्य॒ इति॑ दक्षिणा॒सत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। वि॒श्वदे॑वनेत्रेभ्य॒ इति॑ वि॒श्वदे॑वऽनेत्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। प॒श्चात्सद्भ्य॒ इति॑ पश्चा॒त्सत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। मि॒त्रावरु॑णनेत्रेभ्य॒ इति॑ मि॒त्रावरु॑णऽनेत्रेभ्यः। वा॒। म॒रुन्ने॑त्रेभ्य॒ इति॑ म॒रुत्ऽने॑त्रेभ्यः। वा॒। दे॒वेभ्यः॑। उ॒त्त॒रा॒सद्भ्य॒ इत्यु॑त्तरा॒सत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। सोम॑नेत्रेभ्य॒ इति॑ सोम॑ऽनेत्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। उ॒प॒रि॒सद्भ्य॒ इत्यु॑परि॒सत्ऽभ्यः॑। दुव॑स्वद्भ्य॒ इति॑ दुव॑स्वत्ऽभ्यः। स्वाहा॑ ॥३५॥
स्वर रहित मन्त्र
एष ते निरृते भागस्तञ्जुषस्व स्वाहाग्निनेत्रेभ्यो देवेभ्यः पुरःसद्भ्यः स्वाहा यमनेत्रेभ्यो देवेभ्यो दक्षिणासद्भ्यः स्वाहा विश्वदेवनेत्रेभ्यो देवेभ्यो पश्चात्सद्भ्यः स्वाहा मित्रावरुणनेत्रेभ्यो वा मरुन्नेत्रेभ्यो वा देवेभ्य उत्तरासद्भ्यः स्वाहा सोमनेत्रेभ्यो देवेभ्य ऽउपरिसद्भ्यो दुवस्वद्भ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः। ते निर्ऋत इति निःऽऋते। भागः। तम्। जुषस्व। स्वाहा। अग्निनेत्रेभ्य इत्यग्निऽनेत्रेभ्यः। देवेभ्यः। पुरःसद्भ्य इति पुरःसत्ऽभ्यः। स्वाहा। यमनेत्रेभ्य इति यमऽनेत्रेभ्यः। देवेभ्यः। दक्षिणासद्भ्य इति दक्षिणासत्ऽभ्यः। स्वाहा। विश्वदेवनेत्रेभ्य इति विश्वदेवऽनेत्रेभ्यः। देवेभ्यः। पश्चात्सद्भ्य इति पश्चात्सत्ऽभ्यः। स्वाहा। मित्रावरुणनेत्रेभ्य इति मित्रावरुणऽनेत्रेभ्यः। वा। मरुन्नेत्रेभ्य इति मरुत्ऽनेत्रेभ्यः। वा। देवेभ्यः। उत्तरासद्भ्य इत्युत्तरासत्ऽभ्यः। स्वाहा। सोमनेत्रेभ्य इति सोमऽनेत्रेभ्यः। देवेभ्यः। उपरिसद्भ्य इत्युपरिसत्ऽभ्यः। दुवस्वद्भ्य इति दुवस्वत्ऽभ्यः। स्वाहा॥३५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कीदृग्जनः साम्राज्यं सेवितुं योग्यो जायत इत्याह॥
अन्वयः
हे निर्ऋतेराजँस्ते तव य एष भागो भजनीयो न्यायोऽस्ति, तमग्निनेत्रेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा पुरःसद्भ्यो देवेभ्यः स्वाहा। यमनेत्रेभ्यो दक्षिणासद्भ्यो देवेभ्यः स्वाहा। विश्वदेवनेत्रेभ्यः पश्चात्सद्भ्यो देवेभ्यः स्वाहा। मित्रावरुणनेत्रेभ्यो वा मरुन्नेत्रेभ्यो वोत्तरासद्भ्यो देवेभ्यः स्वाहा। सोमनेत्रेभ्यः उपरिसद्भ्यो दुवस्वद्भ्यो देवेभ्यः स्वाहा च प्राप्य त्वं धर्मेण राज्यं सदा जुषस्व॥३५॥
पदार्थः
(एषः) पूर्वापरप्रतिपादितः (ते) तव (निर्ऋते) नितरामृतं सत्यमाचरणं यस्मिन् तत्सम्बुद्धौ (भागः) भजनीयः, सेवितुं योग्यः (तम्) (जुषस्व) सेवस्व (स्वाहा) सत्यां वाचम् (अग्निनेत्रेभ्यः) अग्नेः प्रकाश इव नेत्रं नयनं येषां तेभ्यः (देवेभ्यः) धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यः (पुरःसद्भ्यः) ये पुरः पूर्वं सभायां राष्ट्रे वा सीदन्ति तेभ्यः (स्वाहा) धर्म्यां क्रियाम् (यमनेत्रेभ्यः) यमस्य वायोर्नेत्रं नयनमिव नीतिर्येषां तेभ्यः (देवेभ्यः) विपश्चिद्भ्यः (दक्षिणासद्भ्यः) विश्वेषां देवानां विदुषां नेत्रं नीतिरिव नीतिर्येषां तेभ्यः (स्वाहा) दानक्रियाम् (विश्वदेवनेत्रेभ्यः) सर्वविद्वत्तुल्या नेत्रा नीतिर्येषां तेभ्यः (देवेभ्यः) दिव्यसुखप्रदेभ्यः (पश्चात्सद्भ्यः) ये पश्चात् सीदन्ति तेभ्यः (स्वाहा) उत्साहकारिकां वाचम् (मित्रावरुणनेत्रेभ्यः) प्राणापानतुल्येभ्यः (वा) पक्षान्तरे (मरुन्नेत्रेभ्यः) मरुतामृत्विजां प्रजास्थानां सज्जनानां वा नेत्रमिव नायकत्वं येषां तेभ्यः (वा) (देवेभ्यः) दिव्यन्यायप्रकाशकेभ्यः (उत्तरासद्भ्यः) य उत्तरस्यां दिशि सीदन्ति तेभ्यः (स्वाहा) दौत्यकुशलताम् (सोमनेत्रेभ्यः) सोमस्य चन्द्रस्यैश्वर्य्यवती नेत्रं नयनमिव नीतिर्येषां तेभ्यः (देवेभ्यः) सकलविद्याप्रचारकेभ्यः (उपरिसद्भ्यः) सर्वोपरि विराजमानेभ्यः (दुवस्वद्भ्यः) विद्याविनयधर्मेश्वरान् सेवमानेभ्यः (स्वाहा) आप्तवाणीम्। अयं मन्त्रः (शत॰५। २। ३। ३-१०; ५। २। ४। १-५) व्याख्यातः॥३५॥
भावार्थः
हे राजन् सभाध्यक्ष! यदा भवान् सर्वतो विद्वद्वरेभ्यः परिवृतः प्राप्तशिक्षः कृतसभो रक्षितसेनः सुसहायः सन् सनातया वेदोक्त्या राजधर्मनीत्या प्रजाः पालयेत्, तदैवेहामुत्र सुखमेव प्राप्नुयात्। एतद्विरुद्धश्चेत् तर्हि ते कुतः सुखमिति, नहि मूर्खसहायः सुखमेधते, न खलु विद्वदुपदेशानुगामी कदाचित् सुखं जहाति, अस्माद्राजा सदैव विद्याधर्माप्तसहायेन राज्यं रक्षेत्। यस्य सभायां राज्ये वा पूर्णविद्या धर्मिका वर्त्तन्ते, मिथ्यावादिनो व्यभिचारिणोऽजितेन्द्रियाः परुषवाचोऽन्यायाचाराः स्तेना दस्यवश्च न सन्ति, स्वयमप्येवं भूतोऽस्ति, स एव चक्रवर्त्तिराज्यं कर्त्तुमर्हति, नातो विरुद्धो जन इति बोध्यम्॥३५॥
हिन्दी (3)
विषय
कैसा मनुष्य चक्रवर्त्ती राज्य सेवने को योग्य होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (निर्ऋते) सदैव सत्याचरणयुक्त राजन्! (ते) आप का जो (एषः) यह (भागः) सेवने योग्य है, उसको (अग्निनेत्रेभ्यः) अग्नि के प्रकाश के समान नीतियुक्त (देवेभ्यः) विद्वानों से (स्वाहा) सत्य वाणी (पुरःसद्भ्यः) जो प्रथम सभा वा राज्य में स्थित हो, उन (देवेभ्यः) न्यायाधीश विद्वानों से (स्वाहा) धर्मयुक्त क्रिया (यमनेत्रेभ्यः) जिनकी वायु के समान सर्वत्र गति (दक्षिणासद्भ्यः) जो दक्षिण दिशा में राजप्रबन्ध के लिये स्थित हों, उन (देवेभ्यः) विद्वानों से (स्वाहा) दानक्रिया (विश्वेदेवनेत्रेभ्यः) सब विद्वानों के तुल्य नीति के ज्ञानी (पश्चात्सद्भ्यः) जो पश्चिम दिशा में राजकर्मचारी हों, उन (देवेभ्यः) दिव्य सुख देनेहारे विद्वानों से (स्वाहा) उत्साहकारक वाणी (मित्रावरुणनेत्रेभ्यः) प्राण और अपान के समान वा (मरुन्नेत्रेभ्यः) ऋत्विक् यज्ञ के कर्त्ता (वा) सत्पुरुष के समान न्यायकारक (वा) वा (उत्तरासद्भ्यः) जो उत्तर दिशा में न्यायधीश हों, उन (देवेभ्यः) विद्वानों से (स्वाहा) दूतकर्म की कुशल क्रिया (सोमनेत्रेभ्यः) चन्द्रमा के समान ऐश्वर्य्ययुक्त होकर सब को आनन्ददायक (उपरिसद्भ्यः) विद्या, विनय, धर्म और ईश्वर की सेवा करनेहारे (देवेभ्यः) विद्वानों से (स्वाहा) आप्त पुरुषों की वाणी को प्राप्त हो के तू सदा धर्म का (जुषस्व) सेवन किया कर॥३५॥
भावार्थ
हे राजन् सभाध्यक्ष! जब आप सब ओर से उत्तम विद्वानों से युक्त होकर सब प्रकार की शिक्षा को प्राप्त सभा का करनेहारा सेना का रक्षक उत्तम सहाय से सहित होकर सनातन वेदोक्त राजधर्मनीति से प्रजा का पालन कर इस लोक और परलोक में सुख ही को प्राप्त होवे, जो कर्म से विरुद्ध रहेगा तो तुझ को सुख भी न होगा। कोई भी मनुष्य मूर्खों के सहाय से सुख की वृद्धि नहीं कर सकता और न कभी विद्वानों के अनुसार चलने वाला मनुष्य सुख को छाæेड़ देता है। इससे राजा सर्वदा विद्या, धर्म और आप्त विद्वानों के सहाय से राज्य की रक्षा किया करे। जिसकी सभा वा राज्य में पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक मनुष्य सभासद् वा कर्मचारी होते हैं और जिसके सभा वा राज्य में मिथ्यावादी, व्यभिचारी, अजितेन्द्रिय, कठोर वचनों के बोलने वाले, अन्याकारी, चोर और डाकू आदि नहीं होते और आप भी इसी प्रकार का धार्मिक हो तो वही पुरुष चक्रवर्त्ती राज्य करने के योग्य होता है, इससे विरुद्ध नहीं॥३५॥
विषय
राजा व मन्त्रीवर्ग
पदार्थ
१. राष्ट्र में राजा व सभ्य चुने जाते हैं। चुने जाने के कारण इनका नाम ‘वरुण’ है [ व्रियन्ते ]। इनमें सर्वप्रथम राजा का उल्लेख करते हैं कि— हे ( निऋर्ते ) = [ ‘तिग्मतेजा वा निऋर्तिः’ श० ७।८।१।१० ] तीव्र तेजवाले राजन्! ( एषः ) = यह राष्ट्र, यह देश ( ते ) = तेरा ( भागः ) [ भज्यते सेव्यते कर्मणि घञ् ] = सेवनीय है, तूने इस देश की सेवा करनी है।( तं जुषस्व ) = तू उस देश की प्रीतिपूर्वक सेवा कर। पूर्ण उत्साह से राष्ट्र की सेवा में प्रवृत्त हो। ( स्वाहा ) = तू इस राष्ट्र की सेवा के लिए स्वार्थ का त्याग करनेवाला हो।
२. इस राजा के पूर्वभाग में वे सभ्य बैठे हैं जो ( अग्निनेत्रेभ्यः ) = राष्ट्र को उन्नत करने के दृष्टिकोणवाले हैं, जिनका कार्य सदा राष्ट्र की उन्नति के विषय में सोचनामात्र है, जो सदा उन्नति की योजनाएँ [ plannings ] बनाते रहते हैं। इन ( पुरःसद्भ्यः ) = पूर्वभाग में बैठनेवालों ( देवेभ्यः ) = देदीप्यमान मस्तिष्कवालों के लिए ( स्वाहा ) = हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं।
३. अब ( यमनेत्रेभ्यः ) = नियन्त्रण के दृष्टिकोणवाले—राष्ट्र में व्यवस्था स्थापित करनेवाले [ होम-मिनिस्ट्री के सदस्यों के लिए ] ( देवेभ्यः ) = अनियन्त्रण पर विजय पानेवाले विद्वानों के लिए ( दक्षिणा सद्भ्यः ) = राजा के दक्षिण पार्श्व में स्थित देवों के लिए ( स्वाहा ) = हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं। अग्निनेत्र देवों ने आगे और आगे ले-चलना है, अतः अग्रगति की प्रतीक ‘प्राची’ दिशा उनका स्थान है और नियन्त्रण के द्वारा कार्यकुशलता में वृद्धि करनेवाले देवों की दिशा ‘दक्षिण’ है—यही दिशा दाक्षिण्य व कुशलता का प्रतीक है।
४. ( विश्वदेवनेत्रेभ्यः ) = सब दिव्य गुणों के विकास के दृष्टिकोणवाले ( पश्चात् सद्भ्यः ) = पश्चिम में स्थित होनेवाले, क्योंकि यही दिशा प्रत्याहार = [ फिर से वापस लाने ] की प्रतीक है ( देवेभ्यः ) = देवों के लिए ( स्वाहा ) = हम शुभ शब्द बोलते हैं। पश्चिम दिशा ‘प्रतीची’ कहलाती है। इसमें सूर्यकिरणें ‘प्रति अञ्च्’ वापस आती हैं। इसी प्रकार इसमें स्थित देवों का कार्य प्रजाओं को विषयों से व्यावृत्त करना है। विषयों से वापस लाकर ही तो ये उन्हें दिव्य गुणोंवाला बनाएँगे। इसी दृष्टिकोण से ये विश्वदेवनेत्र हैं—अर्थात् राष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञानी बनाने के दृष्टिकोणवाले हैं।
५. ( उत्तरासद्भ्यः ) = उन्नति की प्रतीकभूत उत्तर दिशा में बैठनेवाले ( मित्रावरुणनेत्रेभ्यः ) = प्राणापान की वृद्धि के दृष्टिकोणवाले अथवा स्नेहवर्धन व द्वेष-निवारण के दृष्टिकोणवाले ( देवेभ्यः ) = देवों के लिए अथवा ( मरुन्नेत्रेभ्यः ) = सब प्राण-भेदों के वर्धन के दृष्टिकोणवाले देवों के लिए ( स्वाहा ) = हम शुभ शब्द कहते हैं। प्राणों की शक्ति की वृद्धि ही सब उन्नतियों का मूल है।
६. अन्त में ( सोमनेत्रेभ्यः ) = सौम्यता ही जिनका दृष्टिकोण है उन ( उपरिसद्भ्यः ) = जो राजा के भी ऊपर हैं [ जैसे रामचन्द्र के ऊपर वसिष्ठ थे ], जिनकी बात राजा भी आज्ञावत् मानता है, उन ( दुवस्वद्भ्यः ) = प्रभु परिचर्यारत ( देवेभ्यः ) = विद्वानों के लिए ( स्वाहा ) = हम प्रशंसा के शब्द बोलते हैं। इन्हीं के लिए ४० वें मन्त्र में इस प्रकार के शब्द कहे जाएँगे कि ‘एष वो अमी राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा’ अर्थात् ( अमी ) = हे प्रजाओ। ( वः ) = आपका ( एषः ) = यह ( राजा ) = राजा है, परन्तु ( अस्माकम् ) = हम [ ब्रह्मणि स्थितानाम् ] सदा ब्रह्म में स्थित होनेवालों का तो ( सोमः ) = परमात्मा ही ( राजा ) = राजा व शासक है। एवं, ये प्रभु परिचर्यारत ‘दुवस्वत्’ लोग ‘उपरिसद्’ हैं, राजा से भी ऊपर हैं।
भावार्थ
भावार्थ — राजा राष्ट्र का सबसे बड़ा सेवक है। उसके मन्त्रीवर्ग क्रमशः राष्ट्र की उन्नति, नियन्त्रण, दिव्य गुणवृद्धि, ज्ञान का विस्तार व प्राणशक्ति की वृद्धि करने में लगे हैं। कुछ लोग वे भी हैं जिनका कार्य यह है कि इन सब अधिकारियों को सौम्य बनाये रहें।
विषय
राजा और उसके नाना प्रकार के नायकों की प्रतिष्ठा ।
भावार्थ
हे ( निर्ऋते ) सर्वथा सत्याचरण करनेवाले, सत्यधर्म के पालक राजन् ! अथवा हे । निर्ऋते ) पृथिवी ! राष्ट्र ! ( एषः ते भागः ) यह तेरा भाग है, विभाग है । ( तं जुषस्व ) उसको तू प्रेम से स्वीकार कर । ( स्वाहा ) और इस सत्य व्यवस्था को पालन कर । ( पुरः सद्भ्यः ) राजसभा में आगे विराजने वाले ( अग्निनेत्रेभ्यः ) अग्नि के समान शत्रुतापक, सेनानायक पुरुष को अपने नेता स्वीकार करनेवाले ( देवेभ्यः ) युद्ध विजयी वीर पुरुषों के लिये ( स्वाहा ) धर्मानुकूल उत्तम अन्न और ऐश्वर्य प्राप्त हो । ( दक्षिणासद्भ्यः ) दक्षिण की ओर, दायीं ओर विराजने वाले ( यमनेत्रेभ्यः ) दुष्टों के नियन्ता यम को अपने नेता स्वीकार करनेवाले अथवा वायु के समान तीव्रगति वाले, इन युद्ध-विजयी पुरुषों के लिये ( स्वाहा ) उत्तम अन्न-भाग प्राप्त हो । (विश्वेदेवनेत्रेभ्यः देवेभ्यः पश्चात्- सद्भ्यः स्वाहा ) पीछे या पश्चिम की ओर विराजनेवाले समस्त विद्वानों को अपना नेता या उनके द्वारा अपनी नीति प्रयोग करनेवाले विद्वान् विजयी पुरुषों को उत्तम अन्न ऐश्वर्य प्राप्त हो । ( मित्रावरुणनेत्रेभ्यः ) शरीर में प्राणापान के समान राष्ट्र में समान, जीवन सञ्चार करनेवाले अथवा मित्र=सूर्य और वरुण = मेघ के समान नीति वाले या मित्र, न्यायाधीश और वरुण, दुष्टवारक पुरुष को अपना नेता स्वीकार करनेवाले ( वा ) और ( मरुत् नेत्रेभ्यः ) मरुत् अर्थात् शत्रु-मारण में चतुर पुरुषों को नेता रखनेवाले ( देवेभ्यः ) विजयी ( उत्तरा सद्भ्यः ) उत्तर दिशा में या बांयीं और विराजने वाले पुरुषों को ( स्वाहा ) उत्तम अन्न और ऐश्वर्य, योग्य दूत आदि का कार्य प्राप्त हो । ( सोमनेत्रेभ्यः ) सोम, सौम्य स्वभाववाले आचार्य, योगी पुरुष को अपने नेता बनानेवाले ( उपरिसद्भ्यः ) सर्वोपरि विराजमान ( दुवस्वद्भ्यः ) ईश्वरोपासना, यज्ञ, विद्याध्ययनादि कार्य आचरण करनेवाले ( देवेभ्यः ) इन विद्वान् पुरुषों को ( स्वाहा ) उत्तम अन्न, धन और ज्ञानैश्वर्य प्राप्त हो ॥ शत० ५ । २ । ३ ॥ ३ ॥
राजा के राज्यकार्य को पांच विभाग में बांटा जिनके नेता, मुख्य अधिकारी अग्नि, यम, विश्वेदेव, मित्रावरुण, मरुत् और सोम हैं । राजदरबार में उनके पांच भिन्न स्थान हो और पृथ्वी के शासन में उनके पांच विभाग हों ।
टिप्पणी
३५ अतः परं राजसूयमन्त्राः वरुणदृष्टात् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वरुणः ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः । निचृदुत्कृतिः । षड्जः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
हे राजा ! सर्व तऱ्हेने विद्वानांच्या संगतीत राहून, सर्व प्रकारचे शिक्षण घेऊन, सभेचे व्यवस्थापन करून, सेनेचा रक्षक बनून, सर्वांची उत्तम मदत स्वीकारून वेदोक्त राजनीतीने प्रजेचे पालन केल्यास इहलोक व परलोकामध्ये सुख मिळले. याविरुद्ध कर्म केल्यास सुख मिळणार नाही. कोणत्याही माणसाला मूर्खांच्या संगतीत सुख प्राप्त होत नाही व विद्वानांच्या संगतीत सुख नष्ट होत नाही. त्यासाठी राजाने नेहमी विद्या, धर्म व आप्त विद्वानांच्या साह्याने राज्याचे रक्षण करावे. ज्याच्या राज्यामध्ये पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक माणसे सभासद किंवा कर्मचारी असतात आणि मिथ्यावादी व्यभिचारी, अजितेन्द्रिय, कठोर वचनी, अन्यायी, चोर व डाकू इत्यादी नसतात तसेच स्वतः ही जो धार्मिक असतो तोच पुरुष चक्रवर्ती राज्य करण्यायोग्य असतो. याविरुद्ध आचरण करणारा पुरुष राजा बनण्यायोग्य नसतो.
विषय
चक्रवर्ती राज्याचा स्वामी कसा असावा, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (निऋते) सदैव सत्याचरणयुक्त राजा, (ते) आपला (एष:) हा जो (भाग:) सेवनीय वा ग्रहणीय भाग आहे (प्रजा, विद्वान आदी लोकांकडून आपणाला मिळणारा जो अधिकार, दान, कर आदी आहे) तो भाग (अग्निनेत्रेभ्य:) अग्नीप्रमाणे प्रकाशमान आणि नीतिमान अशा (देवेभ्य:) विद्वानांपासून (स्वाहा) सत्यभाषणाच्या रुपाने प्राप्त व्हावा (आपण सदैव सत्यभाषी असा) (पुर:सद्भ्य:) जे लोक सभेत वा राज्यात सर्वप्रथम वंदनीय आहेत, अशा (देवेभ्य:) विद्वान न्यायाधीशांपासून (स्वाहा) धर्म (आणि न्याययुक्त निर्णय) कार्य करण्याचा भाग ग्रहण करा (न्यायोचित कर्म करा) (यमनेत्रेभ्य:) वायूप्रमाणे सर्वत्र गमन करणारे (दक्षिणासद्भ्य:) सर्वत्र विचरण करणारे असे दक्षिण दिशेत जे (देवेभ्य:) विद्वान आहेत, त्यांच्याकडून (स्वाहा) दान देण्याचे गुण ग्रहण करा. (विश्वदेवनेत्रेभ्य:) विद्वान असून नीतिशास्त्राचे ज्ञाता (पश्चात्सद्भ्य:) पश्चिम दिशेत नेमलेले जे राजकर्मचारी आहेत, त्या (देवेभ्य:) दिव्य सुख देणार्या विद्वानांपासून (स्वाहा) उत्साह वाढविणारी वाणी शिका. (प्रजेशी उत्साहवर्धक वाणी बोला) (मित्रावरूण नेत्रेभ्य:) प्राण आणि अपान शक्तीप्रमाणे अथवा (मरून्नेत्रेभ्य:) यज्ञकर्ता ऋत्विक्प्रमाणे (वा) अथवा सत्पुरुषाप्रमाणे न्याय करणारे (उत्तरासद्भ्य:) उत्तर दिशेत स्थित न्यायाधीश आणि (देवेभ्य:) जे विद्वान आहेत, त्यांच्याकडून दूतकर्माचे चतुर कार्य शिका. (सोमनेत्रेभ्य:) चंद्राप्रमाणे सर्वांकरिता ऐश्वर्य आणि आनंद देणार्या (उपरिसद्भ्य:) विद्या, विनय, धर्म आणि परमेश्वराची सेवा करणार्या (देवेभ्य:) विद्वानांकडून (स्वाहा) आप्त पुरुषांनी वापरण्यास योग्य अशी वाणी वा भाषा (हे राजा) तुम्ही प्राप्त करा आणि सदा धर्माचे (जुषस्व) सेवन करा वा पालन करा. (राष्ट्राच्या राजा वा सभाध्यक्षाने राज्यप्रबंधासाठी सर्वांकडून योग्य ते ज्ञान, क्रिया, व्यवहार, भाषा आदी सद्गुणांचे ग्रहण करावे. त्यांच्या साहाय्य, मत, विचारावीने राज्याचे शासन चालवावे) ॥35॥
भावार्थ
भावार्थ - हे राजा, वा सभाध्यक्ष, आपण सर्वत: उत्तम विद्वज्जनांचा संग करा. त्यांच्याकडून उत्तम नीती व कार्यपद्धतीचे शिक्षण मिळवा आणि सभेचे अध्यक्ष व्हा, सैन्याचे रक्षक. सेनाध्यक्ष व्हा. अशाप्रकारे उत्तमजनांच्या/श्रेष्ठ संगतीमुळे प्राप्त सनातन वेदोक्त राजतीती, धर्मनीती द्वारा प्रजेचे पालन करा. जे राजा याप्रकारे करतात, तेच या लोकात व परलोकात (देशात व विदेशात) सुखी होतात. जर आपण या कार्यपद्धती व धर्मनीतीच्या विरूद्ध वागाल, तर आपणाला कदापि सुख प्राप्त होणार नाही. कोणीही राजा व माणूस मूर्खांच्या संग-साहाय्याने सुख प्राप्त करू शकत नाही. तसेच विद्वानांच्या (अनुभव, सच्चरित्र व नीतिमान उत्तमजनांच्या मतानुसार वागणारा मनुष्य कधीही असफल वा दु:खी होत नाही. यामुळे राजाने सदा सर्वदा विद्या आणि धर्माचा अवलंब करीत विश्वसनीय विद्वानांच्या साहाय्याने राज्याचे रक्षण-पालन करावे. ज्या राजाच्या सभेत पूर्णविद्यायुक्त धार्मिक मनुष्य सभासद असतात आणि राज्यात असे राजकर्मचारी असतात (तोच पुरुष चक्रवर्ती राज्य करण्यास पात्र ठरतो.) ज्या राजाच्या राज्यात सभासदगण आणि राजपुरुष मिथ्यावादी, व्यभिचारी अजितेंद्रिय, कटुभाषी, अन्यायी, चोर व दरोडेखोर नसतात आणि जिथे स्वत: राजा वरील दुर्गुणांपासून दूर असतो, तोच पुरुष चक्रवर्ती राजा होण्यास योग्य असतो. (वा चक्रवर्ती राज्य चालवू शकतो) यापेक्षा विरूद्ध आचरण असणारा मनुष्य कदापि चक्रवर्ती राजा होऊ शकत नाही. ॥35॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O King, the lover of truth, conduct thy rule with justice. Utter truthful words for the learned, whose policy shines like the fire. Behave in a religious spirit towards those lords of justice who work in the east. Be charitable to the learned, who are fast-witted like the wind and are put in charge of the southern part of the country. Use inspiring language towards the learned officials stationed in the west, who fully understand politics like all the wise. Behave respectfully like a state representative towards those just officials appointed in the north, who are regular in their duty like the in-going, and out-coming breath, and who give true lead to the subjects. Use the language of a sage towards those who brilliant like the moon, give happiness to all, and who acquire knowledge, cultivate humility, are religious-minded, and worship God.
Meaning
Man of felicity beyond reproach, this is your share of Raj Dharma, governance, administration and service of the republic, your power-and-responsibility, assets- and-liabilities integrated. Serve it with words and acts of truth. Serve it with words and acts of Dharma, by the noble people of the very eyes and leadership of light and fire sitting in front of you in the council. Serve it with words and acts of charity, by the people of the speed and guidance of the wind itself on your right side. Serve it with words and acts of courage, by the noble people of the eyes and leadership of the world heroes on your back. Serve it with words and acts of saints and sages of knowledge and wisdom, by the noble people of the eyes and leadership of the best, the friendliest, the wisest and the most dynamic yajnic souls of the nation on your left side. Serve it with words and acts of peace and love under the protective bliss of the noble people of the light and leadership of the soothing serenity of the moon itself, servants of knowledge, humility, Dharma and Ishwara.
Translation
O earth, this is your share; enjoy it. Svaha. (1) I dedicate to the enlightened ones, whose leader is the adorable Lord, and who are seated on the eastern side. (2) I dedicate to the enlightened ones, whose leader is the ordainer and who are seated on the southern side. (3) I dedicate to the enlightened ones whose leaders are all the bounties of Nature and who are seated on the western side. (4) I dedicate to the enlightened ones, whose leaders are the friendly Lord and the venerable Lord, or the enlightened ones whose leaders are the cloudbearing winds and who are seated on the northern side. (5) I dedicate to the enlightened ones whose leader is the blissful Lord and who are seated above full of reverence. (6)
Notes
Here begin the formulas for the Rajasüya i. e. the king's Inauguration ceremony. Nirrte, O earth.
बंगाली (1)
विषय
কীদৃগ্জনঃ সাম্রাজ্যং সেবিতুং য়োগ্যো জায়ত ইত্যাহ ॥
কেমন মনুষ্য চক্রবর্ত্তী রাজ্য সেবন করার যোগ্য হয়, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (নিরৃতে) সর্বদা সত্যাচারণযুক্ত রাজন্ ! (তে) আপনার যে (এষঃ) এই (ভাগঃ) সেবনযোগ্য অংশ উহাকে (অগ্নিনেত্রেভ্যঃ) অগ্নির প্রকাশ সমান নীতিযুক্ত (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের হইতে (স্বাহা) সত্যবাণী (পুরঃ সদভ্যঃ) যাহা প্রথম সভা বা রাজ্যে স্থিত আছে সেইসব (দেবেভ্যঃ) ন্যায়াধীশ বিদ্বান্দিগের হইতে (স্বাহা) ধর্মযুক্ত ক্রিয়া (য়মনেত্রেভ্যঃ) যাহার বায়ুর সমান সর্বত্র গতি (দক্ষিণাসদ্ভ্যঃ) যাহা দক্ষিণ দিকে রাজপ্রবন্ধ হেতু স্থিত আছে সেই সব (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের হইতে (স্বাহা) দানক্রিয়া (বিশ্বদেবনেত্রেভ্যঃ) সকল বিদ্বান্দিগের তুল্য নীতি জ্ঞানী (পশ্চাৎ সদ্ভ্যঃ) যে পশ্চিম দিকে রাজকর্মচারী আছে সেই সব (দেবেভ্যঃ) দিব্য সুখ দাতা বিদ্বান্দিগের হইতে (স্বাহা) উৎসাহকারক বাণী (মিত্রাবরুণনেত্রেভ্যঃ) প্রাণ ও অপান সমান বা (মরুন্নেত্রেভ্যঃ) ঋত্বিক্ যজ্ঞের কর্ত্তা (বা) সৎপুরুষের সমান ন্যায়কারক বা (উত্তরাসদ্ভ্যঃ) যে উত্তর দিকে ন্যায়াধীশ, সেই সব (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের হইতে দূতকর্ম্মের কুশল ক্রিয়া (সোমনেত্রেভ্যঃ) চন্দ্রের সমান ঐশ্বর্য্যযুক্ত হইয়া সকলকে আনন্দদায়ক (উপরিসদ্ভ্যঃ) বিদ্যা বিনয় ধর্ম ও ঈশ্বরের সেবক (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের হইতে (স্বাহা) আপ্ত পুরুষদিগের বাণী প্রাপ্ত হইয়া তুমি সদা (জুষস্ব) ধর্মের সেবন করিতে থাক ॥ ৩৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে রাজন সভাধ্যক্ষ ! যখন আপনি সব দিক্ হইতে উত্তম বিদ্বান্গণ দ্বারা যুক্ত হইয়া সর্ব প্রকারের শিক্ষা প্রাপ্ত সভাকারী সেনার রক্ষক উত্তম সাহায্য সহিত হইয়া সনাতন বেদোক্ত রাজধর্ম নীতি দ্বারা প্রজার পালন করিয়া এই লোক ও পরলোকে সুখই প্রাপ্ত করিবেন, কর্ম হইতে বিরুদ্ধে থাকিলে তুমি সুখও পাইবে না । কোন মনুষ্য মূর্খের সাহায্যে সুখের বৃদ্ধি করিতে পারেনা এবং কখনও বিদ্বান্দিগের মতে চলা মনুষ্য সুখ ছাড়িয়া দেয় না । ইহার ফলে রাজা সর্বদা বিদ্যা, ধর্ম ও আপ্ত বিদ্বান্দিগের সাহায্যে রাজ্যের রক্ষা করিতে থাকিবেন । যাহার সভা বা রাজ্যে পূর্ণবিদ্যাযুক্ত ধার্মিক মনুষ্য সভাসদ্ বা কর্মচারী হয় এবং যাহার সভা বা রাজ্যে মিথ্যাবাদী ব্যভিচারী অজিতেন্দ্রিয়, নির্মম বচনের বক্তা অন্যায়কারী এবং ডাকাইত ইত্যাদি না হয় এবং আপনিও এইপ্রকার ধার্মিক হন্ তো সেই পুরুষ চক্রবর্ত্তী রাজ্য করার যোগ্য হয়, ইহার বিপরীত নহে ॥ ৩৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
এ॒ষ তে॑ নির্ঋতে ভা॒গস্তং জু॑ষস্ব॒ স্বাহা॒ऽগ্নিনে॑ত্রেভ্যো দে॒বেভ্যঃ॑ পুরঃ॒সদ্ভ্যঃ॒ স্বাহা॑ য়॒মনে॑ত্রেভ্যো দে॒বেভ্যো॑ দক্ষিণা॒সদ্ভ্যঃ॒ স্বাহা॑ বি॒শ্বদে॑বনেত্রেভ্যো দে॒বেভ্যঃ॑ পশ্চা॒ৎসদ্ভ্যঃ॒ স্বাহা॑ মি॒ত্রাবরু॑ণনেত্রেভ্যো বা ম॒রুন্নে॑ত্রেভ্যো বা দে॒বেভ্য॑ऽউত্তরা॒সদ্ভ্যঃ॒ স্বাহা॒ সোম॑নেত্রেভ্যো দে॒বেভ্য॑ऽউপরি॒সদ্ভ্যো॒ দুব॑স্বদ্ভ্যঃ॒ স্বাহা॑ ॥ ৩৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
এষ ত ইত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । বিরাডুৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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