अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 13
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
0
याः सी॒मानं॑ विरु॒जन्ति॑ मू॒र्धानं॒ प्रत्य॑र्ष॒णीः। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया: । सी॒मान॑म् । वि॒ऽरु॒जन्ति॑ । मू॒र्धान॑म् । प्रति॑ । अ॒र्ष॒णी: । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
याः सीमानं विरुजन्ति मूर्धानं प्रत्यर्षणीः। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥
स्वर रहित पद पाठया: । सीमानम् । विऽरुजन्ति । मूर्धानम् । प्रति । अर्षणी: । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।
पदार्थ
(याः) जो (अर्षणीः) दौड़नेवाली [महापीड़ाएँ] (मूर्धानम् प्रति) मस्तक की ओर [चलकर] (सीमानम्) चाँद [खोपड़ी] को (विरुजन्ति) फोड़ डालती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई, (अनामयाः) रोगरहित होकर (बहिः) बाहिर (निः द्रवन्तु) निकल जावें, और (बिलम्) बिल [फूटन रोग भी, निकल जावे] ॥१३॥
भावार्थ
जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥
टिप्पणी
१३−(याः) (सीमानम्) नामन्सीमन्व्योमन्०। उ० ४।१५१। षिञ् बन्धने-मनिन्। मस्तकभागम्। कपालम् (विरुजन्ति) विदारयन्ति (मूर्धानम्) मस्तकम् (प्रति) प्रतिगत्य (अर्षणीः) सुयुरुवृणो युच्। उ० २।७४। ऋष गतौ-युच्, ङीप्। धावन्त्यः। महापीडाः (अहिंसन्तीः) अनाशयन्त्यः (अनामयाः) रोगरहिताः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
बहिः बिलम् [निद्रवन्तु]
पदार्थ
१. (या:) = जो पौड़ाजनक रोग-मात्राएँ (मूर्धानं प्रति अर्षणी:) = मस्तक की ओर गतिवाली होती हैं और (सीमानं विरुजन्ति) = सिर के ऊपरी भाग [खोपड़ी] को नाना प्रकार से पीड़ित करती हैं, वे सब (अनामया:) = रोगशून्य होकर (अहिंसन्ती:) = हमें हिंसित न करती हुई (बिलं बहिः) = शरीर के छिद्रों से बाहर (निवन्तु) = निकल जाएँ। (या:) = जो रोग-मात्राएँ (हृदयम् उपर्षन्ति) = हृदय की ओर तीव्र वेग से बढ़ी चली आती हैं और (कीकसाः अनुतन्वन्ति) = हँसली की हडियों में फैल जाती है (याः पार्श्वे उपर्षन्ति) = जो पीड़ाएँ दोनों पाश्वों [कोखों] में तीव्र वेदना करती हुई प्राप्त होती हैं और (पृष्टी: अननिक्षन्ति) = पीठ के मोहरों का चुम्बन करने लगती हैं, वे सब रोगरहित व अहिंसक होती हुई शरीर-छिद्रों से बाहर निकल जाएँ। २. (याः अर्पणी:) = जो महापीड़ाएँ (तिरश्ची:) = तिरछी होकर आक्रमण करती हुई (ते वक्षणास उपर्षन्ति) = तेरी पसलियों में पहुँच जाती हैं, (या:) = जो पीड़ाएँ (गुदाः अनुसर्पन्ति) = गुदा की नाड़ियों में गतिवाली होती हैं (च) = और (आन्त्राणि मोहयन्ति) = आँतों को मूर्छित [काम न करनेवाला] कर देती हैं, (या:) = जो (मज्जा:) = मज्जाओं को (निर्धयन्ति) = चूस-सा लेती हैं और सुखा-सा डालती है, (च) = और (परूंषि विरूजन्ति) = जोड़ों में दर्द [फूटन] पैदा कर देती हैं, वे सब रोगशून्य व अहिंसक होकर शरीर-छिद्रों से बाहर चली जाएँ।
भावार्थ
जो भी पीड़ादायक तत्व शरीर में विकृतियों का कारण बनते हैं, वे पसीने आदि के रूप में शरीर से बाहर हो जाएँ।
भाषार्थ
(मूर्धानम् प्रति) सिर की ओर (अर्षणीः) गति करने वाले (याः) जो [आपः] रक्तरूपी जल (सोमानम्) सीमा को (विरुजन्ति) विशेषतया रुग्ण करते हैं, वे (अहिंसन्तीः, अनामयाः) न हिंसा करने वाले, रोग रहित [आपः] रक्तरूपी जल, (बिलम्, बहिः) बलि के छिद्र से बाहर, (निर्द्रवन्तु) द्रवरूप में निकल जांय।
टिप्पणी
[अर्षणीः = ऋषी गतौ (तुदादिः) + ल्युट् + ङीप्। मन्त्र में "अर्षणीः" में बहुवचन और स्त्रीलिंङ्ग "आप" का सूचक है, और आप पद रक्त-जल का निर्देशक है (अथर्व० १०।२।११) से रक्त-आप मूर्धा की ओर गति करते हुए अपने में विलीन यक्ष्म-क्रिमियों [Germes] को ले जाते हैं, और सिर की सीमा [meninges१] को रुग्ण कर देते हैं। उपचार द्वारा ये क्रिमि मूत्ररूप२ में जब मूत्रमार्ग से बाहर निकल जाते हैं, तब सिर हिंसा रहित और रोगरहित हो जाते हैं। क्रिमियों अर्थात् Germs के लिये देखो (अथर्व० २।३१।५; ३२।१-४ ५।२३।१-१३)] [१. मस्तिष्कावरण। इस के सूजन को maningiris कहते हैं। २.रक्त में के क्रिमि, रक्त से स्रुत हुए मूत्ररूप में, मूत्र मार्ग से बाहर निकल जाते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Diseases
Meaning
Let the germs, ailments and dire pains which flow with the blood to the head and afflict the top of the brain turn unafflictive and un-infective and let them flow out of the system through the excretory organs.
Translation
They, that cause severe pain in the nape of neck, and that peirce through to the crown, may those (diseases) flow out through the orifice without causing any harm or sickness.
Translation
Let the dire pains which rend as under the upper part of head and brow depart and pass away out of you without creating any disease and without inflecting heart.
Translation
The penetrating stabs of pain which rend asunder the skull and head, let them depart and pass out of the body, free from disease and harming not.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(याः) (सीमानम्) नामन्सीमन्व्योमन्०। उ० ४।१५१। षिञ् बन्धने-मनिन्। मस्तकभागम्। कपालम् (विरुजन्ति) विदारयन्ति (मूर्धानम्) मस्तकम् (प्रति) प्रतिगत्य (अर्षणीः) सुयुरुवृणो युच्। उ० २।७४। ऋष गतौ-युच्, ङीप्। धावन्त्यः। महापीडाः (अहिंसन्तीः) अनाशयन्त्यः (अनामयाः) रोगरहिताः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal