अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 19
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
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ये अङ्गा॑नि म॒दय॑न्ति॒ यक्ष्मा॑सो रोप॒णास्तव॑। यक्ष्मा॑णां॒ सर्वे॑षां वि॒षं निर॑वोचम॒हं त्वत् ॥
स्वर सहित पद पाठये । अङ्गा॑नि । म॒दय॑न्ति । यक्ष्मा॑स: । रो॒प॒णा: । तव॑ । यक्ष्मा॑णाम् । सर्वे॑षाम् । वि॒षम् । नि: । अ॒वो॒च॒म् । अ॒हम् । त्वत् ॥१३.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
ये अङ्गानि मदयन्ति यक्ष्मासो रोपणास्तव। यक्ष्माणां सर्वेषां विषं निरवोचमहं त्वत् ॥
स्वर रहित पद पाठये । अङ्गानि । मदयन्ति । यक्ष्मास: । रोपणा: । तव । यक्ष्माणाम् । सर्वेषाम् । विषम् । नि: । अवोचम् । अहम् । त्वत् ॥१३.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।
पदार्थ
(ये) जो (रोपणाः) व्याकुल करनेवाले (यक्ष्मासः) क्षयरोग (तव) तेरे (अङ्गानि) अङ्गों को (मदयन्ति) उन्मत्त कर देते हैं, (सर्वेषाम्) [उन] सब (यक्ष्माणाम्) क्षयरोगों के (विषम्) विष को (त्वत्) तुझ से (अहम्) मैंने (निः) निकालकर (अवोचम्) बता दिया है ॥१९॥
भावार्थ
जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥
टिप्पणी
१९−(ये) (अङ्गानि) शरीरावयवान् (मदयन्ति) उन्मत्तानि कुर्वन्ति (यक्ष्मासः) असुगागमः। यक्ष्माः। क्षयरोगाः (रोपणाः) सुयुरुवृञो युच्। उ० २।७४। रुप विमोहने-युच्। व्याकुलीकराः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १० ॥
विषय
यक्ष्माविष-निराकरण
पदार्थ
१. (ये) = जो (यक्ष्मास:) = रोगजनक पदार्थ ते अङ्गानि मदयन्ति-तैरे अङ्गों को मदयुक्त करते है-कम्पित-सा करते हैं और (तव रोपणा:) = तेरी व्याकुलता व मूर्छा का कारण बनते है, (अहम्) = मैं (सर्वेषां यक्ष्माणां विषम्) = उन सब रोगों के विष को (त्वत् निरवोचम्) = तेरे शरीर से बाहर निकालकर बताता हूँ। २. (विसल्पस्य) = नाना प्रकार के फैलनेवाले पीड़ाकारी रोग [dry spreading iteh] (विधस्य) = गिल्टियों की सूजन, (वातीकारस्य) = बाय की पीड़ा (वा अलजे:) = और आँख के भीतर दाने या रोहे फूलना आदि सब रोगों के विष को मैं तुझसे पृथक् किये देता हूँ|
भावार्थ
पीड़ाजनक व कम्पित करनेवाले विसल्प आदि सब रोगों के विष को शरीर से पृथक् करके हम स्वस्थ बनें।
भाषार्थ
(ये यक्ष्मासः) जो यक्ष्मरोग या सूक्ष्मकीटाणु (तव) तेरे (अङ्गानि) अङ्गों को और (रोपणाः) रोपणों को (मदयन्ति) मदयुक्त करते या सुला देते हैं, उन (सर्वेषां यक्षमाणाम् विषम्) सब प्रकार के यक्ष्मों के विष को (त्वत्) तुझ से (निर्) पृथक् करने की विधि (अहम्) मैंने (अवोचम्) कह दी है।
टिप्पणी
[रोपणाः= Tendons= मांस तन्तुः जिन के द्वारा मांसपेशियां अस्थियों के साथ जुड़ी रहती हैं। यक्ष्म कीटाणुओं के लिये देखो (मन्त्र १३)]
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Diseases
Meaning
I have given you the formula of the elimination of the root and poison of all the consumptive diseases, fevers, cancers and gripers which afflict, inflame and exhaust your body systems.
Translation
Your growing wasting diseases, that intoxicate (madayanti) your limbs, the poison of all wasting diseases, I have expelled from you by my advice.
Translation
Let the consumption with Colic pain which makes your limbs insensible run away, O man; as I have uprooted the poison-tant of all consumptions from you.
Translation
The perplexing, wasting maladies which make thy limbs insensible, I have evoked the poison of all such maladies out of thee.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(ये) (अङ्गानि) शरीरावयवान् (मदयन्ति) उन्मत्तानि कुर्वन्ति (यक्ष्मासः) असुगागमः। यक्ष्माः। क्षयरोगाः (रोपणाः) सुयुरुवृञो युच्। उ० २।७४। रुप विमोहने-युच्। व्याकुलीकराः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १० ॥
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