अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 21
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - विराट्पथ्या बृहती
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
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पादा॑भ्यां ते॒ जानु॑भ्यां॒ श्रोणि॑भ्यां॒ परि॒ भंस॑सः। अनू॑कादर्ष॒णीरु॒ष्णिहा॑भ्यः शी॒र्ष्णो रोग॑मनीनशम् ॥
स्वर सहित पद पाठपादा॑भ्याम् । ते॒ । जानु॑ऽभ्याम् । श्रोणि॑ऽभ्याम् । परि॑ । भंस॑स: । अनू॑कात् । अ॒र्ष॒णी: । उ॒ष्णिहा॑भ्य: । शी॒र्ष्ण: । रोग॑म् । अ॒नी॒न॒श॒म् ॥१३.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
पादाभ्यां ते जानुभ्यां श्रोणिभ्यां परि भंससः। अनूकादर्षणीरुष्णिहाभ्यः शीर्ष्णो रोगमनीनशम् ॥
स्वर रहित पद पाठपादाभ्याम् । ते । जानुऽभ्याम् । श्रोणिऽभ्याम् । परि । भंसस: । अनूकात् । अर्षणी: । उष्णिहाभ्य: । शीर्ष्ण: । रोगम् । अनीनशम् ॥१३.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।
पदार्थ
(ते) तेरे (पादाभ्याम्) दोनों पैरों से, (जानुभ्याम्) दोनों जानुओं से, (श्रोणिभ्याम्) दोनों कूल्हों से और (भंससः परि) गुह्य स्थान के चारों ओर से, (अनूकात्) रीढ़ से और (उष्णिहाभ्यः) गुद्दी की नाड़ियों से (अर्षणीः) महापीड़ाओं को और (शीर्ष्णः) शिर के (रोगम्) रोग को (अनीनशम्) मैंने नाश कर दिया है ॥२१॥
भावार्थ
जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥
टिप्पणी
२१−(ते) तव (पादाभ्याम्) पद्भ्याम् (जानुभ्याम्) दॄसनिजनि०। उ० १।३। जन जनने, जनी प्रादुर्भावे−ञुण्। जङ्घोपरिभागाभ्याम् (श्रोणिभ्याम्) अ० २।३३।५। नितम्बाभ्याम् (परि) सर्वतः (भंससः) अ० २।३३।५। गुह्यस्थानात् (अनूकात्) अ० ४।१४।८। पृष्ठवंशात् (अर्षणीः) म० १३। महापीडाः (उष्णिहाभ्यः) अ० २।३३।२। ग्रीवानाडीभ्यः (शीर्ष्णः) शिरसः (रोगम्) (अनीनशम्) अ० १।२३।४। नाशितवानस्मि ॥
विषय
नीरोग अङ्ग
पदार्थ
१. (ते पादाभ्याम्) = तेरे चरणों से, (जानुभ्याम्) = गोड़ों से (श्रोणिभ्याम्) = कूल्हों से (परिभंसस:) = जघन भाग से, (अनूकात्) = रौढ़ से (उष्णिहाभ्य:) = गर्दन की नाड़ियों से (अर्षणी:) = तीन वेदनाओं को तथा (शीर्षणः रोगम्) = सिर के रोग को (अनीनशम्) नष्ट कर देता हूँ।
भावार्थ
हम पैर, श्रोणि, भंसस्, अनूक व उष्णिहा' जन्य पीड़ाओं को तथा सिर के रोग को दूर कर स्वस्थ बनें।
भाषार्थ
(ते) तेरे (पादाभ्याम्) पैरों से, (जानुभ्याम्) घुटनों से, (श्रोणिभ्याम्) कटि प्रदेशों से (भंससः परि) जघन प्रदेश से, (अनूकात्) पृष्ठवंश से, (उष्णिहाभ्यः) गर्दन की नाड़ियों से, (अर्षणीः१) फैलने वाले यक्ष्मों को, तथा (शीर्ष्णः) सिर के (रोगम्) रोग को (अनीनशम्) मैंने नष्ट कर दिया है।
टिप्पणी
[१. मन्त्र १३,१६ ॥]
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Diseases
Meaning
I have eliminated the pain and disease from your feet, knees, hips, loins, spine, back of the neck and the head, with careful mantric diagnosis and formulaic medication.
Translation
From your feet, from the knees, from the hips, from the anus, from the spine, from the napes of the neck, I have banished the piercing pains and the ailments of your head.
Translation
O man ! I, the physician drive away the penetrating pain from your feet, from your knees, from your hips and hinder parts and also from your spine, from your neck and nape.
Translation
I have dispelled the piercing pains from thy feet, knees, hips, and hinder parts, and spine, and from the arteries of the neck, the malady that racked the head.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(ते) तव (पादाभ्याम्) पद्भ्याम् (जानुभ्याम्) दॄसनिजनि०। उ० १।३। जन जनने, जनी प्रादुर्भावे−ञुण्। जङ्घोपरिभागाभ्याम् (श्रोणिभ्याम्) अ० २।३३।५। नितम्बाभ्याम् (परि) सर्वतः (भंससः) अ० २।३३।५। गुह्यस्थानात् (अनूकात्) अ० ४।१४।८। पृष्ठवंशात् (अर्षणीः) म० १३। महापीडाः (उष्णिहाभ्यः) अ० २।३३।२। ग्रीवानाडीभ्यः (शीर्ष्णः) शिरसः (रोगम्) (अनीनशम्) अ० १।२३।४। नाशितवानस्मि ॥
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