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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 14
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
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    या हृद॑यमुप॒र्षन्त्य॑नुत॒न्वन्ति॒ कीक॑साः। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । हृद॑यम् । उ॒प॒ऽऋ॒षन्ति॑ । अ॒नु॒ऽत॒न्वन्ति॑ । कीक॑सा: । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या हृदयमुपर्षन्त्यनुतन्वन्ति कीकसाः। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । हृदयम् । उपऽऋषन्ति । अनुऽतन्वन्ति । कीकसा: । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 14
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    हिन्दी (3)

    विषय

    समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।

    पदार्थ

    (याः) जो [महापीड़ाएँ] (हृदयम्) हृदय में (उपर्षन्ति) घुस जाती हैं और (कीकसाः) हँसली की हड्डियों में (अनुतन्वन्ति) फैलती जाती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई... १३ ॥१४॥

    भावार्थ

    जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥

    टिप्पणी

    १४−(याः) अर्षण्यः (उपर्षन्ति) ऋषी गतौ। प्रविशन्ति (अनुतन्वन्ति) अनुलक्ष्य विस्तीर्यन्ते (कीकसाः) अ० २।३३।२। जत्रुवक्षोगतास्थीनि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    बहिः बिलम् [निद्रवन्तु]

    पदार्थ

    १. (या:) = जो पौड़ाजनक रोग-मात्राएँ (मूर्धानं प्रति अर्षणी:) = मस्तक की ओर गतिवाली होती हैं और (सीमानं विरुजन्ति) = सिर के ऊपरी भाग [खोपड़ी] को नाना प्रकार से पीड़ित करती हैं, वे सब (अनामया:) = रोगशून्य होकर (अहिंसन्ती:) = हमें हिंसित न करती हुई (बिलं बहिः) = शरीर के छिद्रों से बाहर (निवन्तु) = निकल जाएँ। (या:) = जो रोग-मात्राएँ (हृदयम् उपर्षन्ति) = हृदय की ओर तीव्र वेग से बढ़ी चली आती हैं और (कीकसाः अनुतन्वन्ति) = हँसली की हडियों में फैल जाती है (याः पार्श्वे उपर्षन्ति) = जो पीड़ाएँ दोनों पाश्वों [कोखों] में तीव्र वेदना करती हुई प्राप्त होती हैं और (पृष्टी: अननिक्षन्ति) = पीठ के मोहरों का चुम्बन करने लगती हैं, वे सब रोगरहित व अहिंसक होती हुई शरीर-छिद्रों से बाहर निकल जाएँ। २. (याः अर्पणी:) = जो महापीड़ाएँ (तिरश्ची:) = तिरछी होकर आक्रमण करती हुई (ते वक्षणास उपर्षन्ति) = तेरी पसलियों में पहुँच जाती हैं, (या:) = जो पीड़ाएँ (गुदाः अनुसर्पन्ति) = गुदा की नाड़ियों में गतिवाली होती हैं (च) = और (आन्त्राणि मोहयन्ति) = आँतों को मूर्छित [काम न करनेवाला] कर देती हैं, (या:) = जो (मज्जा:) = मज्जाओं को (निर्धयन्ति) = चूस-सा लेती हैं और सुखा-सा डालती है, (च) = और (परूंषि विरूजन्ति) = जोड़ों में दर्द [फूटन] पैदा कर देती हैं, वे सब रोगशून्य व अहिंसक होकर शरीर-छिद्रों से बाहर चली जाएँ।

    भावार्थ

    जो भी पीड़ादायक तत्व शरीर में विकृतियों का कारण बनते हैं, वे पसीने आदि के रूप में शरीर से बाहर हो जाएँ।

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    भाषार्थ

    (याः) जो [आपः] रक्त जल (हृदयम् उपसर्पन्ति) हृदय तक सर्पण करते हैं, और (कीकसाः) हंसलियों तथा पसलियों के (धनु) साथ-साथ (तन्वति) फैल जाते हैं, वे (अहिंसन्तीः) न हिंसा करने वाले, (अनामयाः) रोगरहित रक्त-जल (बिलम् बहिः) वस्तिछिद्र के बाहर (निर्द्रवन्तु) द्रवरूप में निकल जाय।

    टिप्पणी

    [भावार्थं (मन्त्र १३)। कीकसः= कीकसाभ्यः “जत्रुवक्षोगतास्थिभ्यः" (अथर्व० २।३३।२. सायण)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Diseases

    Meaning

    Let the germs, ailments and dire pains which flow with the blood, affect the heart and spread over the chest bones turn unafflictive and trouble free and let them flow out of the system through the excretory organs.

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    Translation

    They, that pierce through to the heart and spread out to the breast-bones may those (diseases) flow out through the orifice without causing any harm or sickness.

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    Translation

    Let the pangs that stab the heart reach upto the breast-bone and connected parts depart and pass away out of you without creating any disease and inflicting any hurt.

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    Translation

    The pangs that stab the heart and reach the breast-bone and connected parts, let them depart and pass out of the body, free from disease and harming not.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(याः) अर्षण्यः (उपर्षन्ति) ऋषी गतौ। प्रविशन्ति (अनुतन्वन्ति) अनुलक्ष्य विस्तीर्यन्ते (कीकसाः) अ० २।३३।२। जत्रुवक्षोगतास्थीनि। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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