अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 15
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम्
छन्दः - विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
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याः पा॒र्श्वे उ॑प॒र्षन्त्य॑नु॒निक्ष॑न्ति पृ॒ष्टीः। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठया: । पा॒र्श्वे इति॑ । उ॒प॒ऽऋ॒षन्ति॑ । अ॒नु॒ऽनिक्ष॑न्ति । पृ॒ष्टी: । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
याः पार्श्वे उपर्षन्त्यनुनिक्षन्ति पृष्टीः। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥
स्वर रहित पद पाठया: । पार्श्वे इति । उपऽऋषन्ति । अनुऽनिक्षन्ति । पृष्टी: । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।
पदार्थ
(याः) जो [महापीड़ाएँ] (पार्श्वे) दोनों काँखों में (उपर्षन्ति) घुस जाती हैं और (पृष्टीः) पसलियों को (अनुनिक्षन्ति) चुबा डालती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई... १३ ॥१५॥
भावार्थ
जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥
टिप्पणी
१५−(पार्श्वे) अ० २।३३।३। कक्षयोरधोभागौ (अनुनिक्षन्ति) णिक्ष चुम्बने। निरन्तरं पीडयन्ति (पृष्टीः) अ० २।७।५। पार्श्वस्थीनि। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
बहिः बिलम् [निद्रवन्तु]
पदार्थ
१. (या:) = जो पौड़ाजनक रोग-मात्राएँ (मूर्धानं प्रति अर्षणी:) = मस्तक की ओर गतिवाली होती हैं और (सीमानं विरुजन्ति) = सिर के ऊपरी भाग [खोपड़ी] को नाना प्रकार से पीड़ित करती हैं, वे सब (अनामया:) = रोगशून्य होकर (अहिंसन्ती:) = हमें हिंसित न करती हुई (बिलं बहिः) = शरीर के छिद्रों से बाहर (निवन्तु) = निकल जाएँ। (या:) = जो रोग-मात्राएँ (हृदयम् उपर्षन्ति) = हृदय की ओर तीव्र वेग से बढ़ी चली आती हैं और (कीकसाः अनुतन्वन्ति) = हँसली की हडियों में फैल जाती है (याः पार्श्वे उपर्षन्ति) = जो पीड़ाएँ दोनों पाश्वों [कोखों] में तीव्र वेदना करती हुई प्राप्त होती हैं और (पृष्टी: अननिक्षन्ति) = पीठ के मोहरों का चुम्बन करने लगती हैं, वे सब रोगरहित व अहिंसक होती हुई शरीर-छिद्रों से बाहर निकल जाएँ। २. (याः अर्पणी:) = जो महापीड़ाएँ (तिरश्ची:) = तिरछी होकर आक्रमण करती हुई (ते वक्षणास उपर्षन्ति) = तेरी पसलियों में पहुँच जाती हैं, (या:) = जो पीड़ाएँ (गुदाः अनुसर्पन्ति) = गुदा की नाड़ियों में गतिवाली होती हैं (च) = और (आन्त्राणि मोहयन्ति) = आँतों को मूर्छित [काम न करनेवाला] कर देती हैं, (या:) = जो (मज्जा:) = मज्जाओं को (निर्धयन्ति) = चूस-सा लेती हैं और सुखा-सा डालती है, (च) = और (परूंषि विरूजन्ति) = जोड़ों में दर्द [फूटन] पैदा कर देती हैं, वे सब रोगशून्य व अहिंसक होकर शरीर-छिद्रों से बाहर चली जाएँ।
भावार्थ
जो भी पीड़ादायक तत्व शरीर में विकृतियों का कारण बनते हैं, वे पसीने आदि के रूप में शरीर से बाहर हो जाएँ।
भाषार्थ
(याः) जो [आपः] रक्त जल (पार्श्वे) दो पार्श्वों के (उप) समीप समीप (अर्षन्ति) गति करते हैं, और (पृष्टीः) छाती के पीछे की अस्थियों का (अनुनिक्षन्ति) निरन्तर चुम्बन करते हैं, वे (असन्तीः) न हिंसा करने वाले (अनामयाः) रोगरहित [आपः] रक्तजल (बिलम् बहिः) वस्ति के छिद्र से (निर्द्रवन्तु) द्रवरूप में निकल जांय। निक्षन्ति=णिक्ष चुम्बने (भ्वादिः)।
टिप्पणी
[भावार्थ (मन्त्र १३)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Diseases
Meaning
Let the germs, ailments and dire pains which affect the sides and pierce the bones of the back of the chest and the spine turn unafflictive and trouble free and let them flow out of the system through the excretory organs.
Translation
They, that pierce through to the sides and stab into the ribs may those (diseases) flow out through the orifice without causing any harm or sickness.
Translation
Let the piercing pangs that penetrates the sides and pierce the ribs depart, and pass away out of you without creating any disease and inflicting any hurt.
Translation
The pangs that penetrate the sides and pierce their way along the ribs, let them depart and pass out of the body, free from disease and harming not.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(पार्श्वे) अ० २।३३।३। कक्षयोरधोभागौ (अनुनिक्षन्ति) णिक्ष चुम्बने। निरन्तरं पीडयन्ति (पृष्टीः) अ० २।७।५। पार्श्वस्थीनि। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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