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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 20
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
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    वि॑स॒ल्पस्य॑ विद्र॒धस्य॑ वातीका॒रस्य॑ वाल॒जेः। यक्ष्मा॑णां॒ सर्वे॑षां वि॒षं निर॑वोचम॒हं त्वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽस॒ल्पस्य॑ । वि॒ऽद्र॒धस्य॑ । वा॒ती॒ऽका॒रस्य॑ । वा॒ । अ॒ल॒जे॒: । यक्ष्मा॑णम् । सर्वे॑षाम् । वि॒षम् । नि: । अ॒वो॒च॒म् । अ॒हम् । त्वत् ॥१३.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विसल्पस्य विद्रधस्य वातीकारस्य वालजेः। यक्ष्माणां सर्वेषां विषं निरवोचमहं त्वत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽसल्पस्य । विऽद्रधस्य । वातीऽकारस्य । वा । अलजे: । यक्ष्माणम् । सर्वेषाम् । विषम् । नि: । अवोचम् । अहम् । त्वत् ॥१३.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।

    पदार्थ

    (विसल्पस्य) [विसर्प रोग, हड़फूटन] के, (विद्रधस्य) हृदय के फोड़े के, (वातीकारस्य) गठिया रोग के, (वा) और (अलजेः) अलजि [नेत्र रोग] के, (सर्वेषाम्) [इन] सब (यक्ष्माणाम्) क्षयरोगों के (विषम्) विष को (त्वत्) तुझ से (अहम्) मैंने (निः) निकालकर (अवोचम्) बता दिया है ॥२०॥

    भावार्थ

    जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥

    टिप्पणी

    २०−(विसल्पस्य) म० २। विसर्परोगस्य (विद्रधस्य) अ० ६।१२७।१। हृदयव्रणस्य (वातीकारस्य) वातरोगस्य (वा) च (अलजेः) अल भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणेषु−क्विप्। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। अज गतिक्षेपणयोः−इन्। शक्तिनाशकस्य नेत्ररोगविशेषस्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    यक्ष्माविष-निराकरण १. (ये) = जो (यक्ष्मास:) = रोगजनक पदार्थ ते अङ्गानि मदयन्ति-तैरे अङ्गों को मदयुक्त करते है-कम्पित-सा करते हैं और (तव रोपणा:) = तेरी व्याकुलता व मूर्छा का कारण बनते है, (अहम्) = मैं (सर्वेषां यक्ष्माणां विषम्) = उन सब रोगों के विष को (त्वत् निरवोचम्) = तेरे शरीर से बाहर निकालकर बताता हूँ। २. (विसल्पस्य) = नाना प्रकार के फैलनेवाले पीड़ाकारी रोग [dry spreading iteh] (विधस्य) = गिल्टियों की सूजन, (वातीकारस्य) = बाय की पीड़ा (वा अलजे:) = और आँख के भीतर दाने या रोहे फूलना आदि सब रोगों के विष को मैं तुझसे पृथक् किये देता हूँ|

    पदार्थ

    पीड़ाजनक व कम्पित करनेवाले विसल्प आदि सब रोगों के विष को शरीर से पृथक् करके हम स्वस्थ बनें।

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    भाषार्थ

    (विसल्पस्य) विसर्पी रोग के, (विद्रधस्य) विदरणशील व्रण विशेष के (वातीकारस्य) उदर में वायु के प्रकोप के, (वा) तथा (अलजेः) अलजि के— (सर्वेषां यक्ष्मणाम्) इन सब यक्ष्मों के (विषम्) विष को (त्वत्) तुझ से (निर्) निकाल देने की विधि (अहम्) मैं ने (अवोचम्) कह दी है।

    टिप्पणी

    [विसल्पस्य, श्वेतकुष्ठ। विद्रधि= सम्भवतः विशेष प्रकार की दाद, या carbuncle,१ फोड़ा अथवा ringworm२]। [१. परस्पर संनिकृष्ट नाना फुंसियां, जो कि समय पा कर नानामुखी एक बड़ा फोड़ा बन जाता है। २. त्वचमा लाल, किनारे कुच्छ उठे हुए, ऐसा फोड़ा।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Diseases

    Meaning

    I have given you the formula of the elimination of the root and poison of all the consumptive diseases, infective and contageous, heart sore, rheumatic and allergies.

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    Translation

    Of the very painful, of the catarrhal, of the rheumatic or of the ophthalmic - the poison of all wasting diseases I have expelled from you by my advice and treatment.

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    Translation

    Let the influence of piercing pain, abscesses, rheumatism and opthlmia run away O man; as I have uprooted the poison-tant of all consumption from you,

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    Translation

    Of piercing pain, of abscesses, rheumatic ache, opthalmia – I have evoked the poison of all diseases out of thee.

    Footnote

    Alaji: Disease of the eye attended with the appearance of small red pimples at the juncture of the cornea and sclerotica.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(विसल्पस्य) म० २। विसर्परोगस्य (विद्रधस्य) अ० ६।१२७।१। हृदयव्रणस्य (वातीकारस्य) वातरोगस्य (वा) च (अलजेः) अल भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणेषु−क्विप्। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। अज गतिक्षेपणयोः−इन्। शक्तिनाशकस्य नेत्ररोगविशेषस्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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