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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 17
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - सर्वशीर्षामयापाकरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनिवारण सूक्त
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    या गुदा॑ अनु॒सर्प॑न्त्या॒न्त्राणि॑ मो॒हय॑न्ति च। अहिं॑सन्तीरनाम॒या निर्द्र॑वन्तु ब॒हिर्बिल॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । गुदा॑: । अ॒नु॒ऽसर्प॑न्ति । आ॒न्त्राणि॑ । मो॒हय॑न्ति । च॒ । अहिं॑सन्ती: । अ॒ना॒म॒या: । नि: । द्र॒व॒न्तु॒ । ब॒हि: । बिल॑म् ॥१३.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या गुदा अनुसर्पन्त्यान्त्राणि मोहयन्ति च। अहिंसन्तीरनामया निर्द्रवन्तु बहिर्बिलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । गुदा: । अनुऽसर्पन्ति । आन्त्राणि । मोहयन्ति । च । अहिंसन्ती: । अनामया: । नि: । द्रवन्तु । बहि: । बिलम् ॥१३.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 17
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    हिन्दी (3)

    विषय

    समस्त शरीर के रोग नाश का उपदेश। इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सूक्त ३३ से करो।

    पदार्थ

    (याः) जो [महापीड़ाएँ] (गुदाः) गुदा की नाड़ियों में (अनुसर्पन्ति) रेंगती जाती हैं (च) और (आन्त्राणि) आँतों को (मोहयन्ति) गड़बड़ कर देती हैं, वे (अहिंसन्तीः) न सताती हुई... १३ ॥१७॥

    भावार्थ

    जैसे उत्तम वैद्य निदान पूर्व बाहिरी और भीतरी रोगों का नाश करके मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बनाता है, वैसे ही विद्वान् लोग विचारपूर्वक अविद्या को मिटा कर आनन्दित होते हैं ॥१॥ यही भावार्थ २ से २२ तक अगले मन्त्रों में जानो ॥

    टिप्पणी

    १७−(याः) अर्षण्यः (गुदाः) अ० २।३३।४। मलत्यागनाडीः (अनुसर्पन्ति) अनुक्रमेण प्राप्नुवन्ति (आन्त्राणि) अ० ९।७।१६। नाडीविशेषान् (मोहयन्ति) व्याकुलीकुर्वन्ति। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    बहिः बिलम् [निद्रवन्तु]

    पदार्थ

    १. (या:) = जो पौड़ाजनक रोग-मात्राएँ (मूर्धानं प्रति अर्षणी:) = मस्तक की ओर गतिवाली होती हैं और (सीमानं विरुजन्ति) = सिर के ऊपरी भाग [खोपड़ी] को नाना प्रकार से पीड़ित करती हैं, वे सब (अनामया:) = रोगशून्य होकर (अहिंसन्ती:) = हमें हिंसित न करती हुई (बिलं बहिः) = शरीर के छिद्रों से बाहर (निवन्तु) = निकल जाएँ। (या:) = जो रोग-मात्राएँ (हृदयम् उपर्षन्ति) = हृदय की ओर तीव्र वेग से बढ़ी चली आती हैं और (कीकसाः अनुतन्वन्ति) = हँसली की हडियों में फैल जाती है (याः पार्श्वे उपर्षन्ति) = जो पीड़ाएँ दोनों पाश्वों [कोखों] में तीव्र वेदना करती हुई प्राप्त होती हैं और (पृष्टी: अननिक्षन्ति) = पीठ के मोहरों का चुम्बन करने लगती हैं, वे सब रोगरहित व अहिंसक होती हुई शरीर-छिद्रों से बाहर निकल जाएँ। २. (याः अर्पणी:) = जो महापीड़ाएँ (तिरश्ची:) = तिरछी होकर आक्रमण करती हुई (ते वक्षणास उपर्षन्ति) = तेरी पसलियों में पहुँच जाती हैं, (या:) = जो पीड़ाएँ (गुदाः अनुसर्पन्ति) = गुदा की नाड़ियों में गतिवाली होती हैं (च) = और (आन्त्राणि मोहयन्ति) = आँतों को मूर्छित [काम न करनेवाला] कर देती हैं, (या:) = जो (मज्जा:) = मज्जाओं को (निर्धयन्ति) = चूस-सा लेती हैं और सुखा-सा डालती है, (च) = और (परूंषि विरूजन्ति) = जोड़ों में दर्द [फूटन] पैदा कर देती हैं, वे सब रोगशून्य व अहिंसक होकर शरीर-छिद्रों से बाहर चली जाएँ।

    भावार्थ

    जो भी पीड़ादायक तत्व शरीर में विकृतियों का कारण बनते हैं, वे पसीने आदि के रूप में शरीर से बाहर हो जाएँ।

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    भाषार्थ

    (याः) जो [आपः] रक्त-जल (गुदाः अनु) गुदा के अवयवों के साथ साथ (सर्पन्ति) गति करते हैं, (च) और (आन्त्राणि) आन्तों को (मोहयन्ति) मूढ़ावस्था में कर देते हैं, वे [उपचार द्वारा, या चिकित्सा द्वारा] (अहिंसन्तीः) हिंसा न करते हुए (अनामयाः) और रोग रहित हुए [मूत्ररूप में] (बिलम् वहिः) वस्ति के छिद्र से बाहर (निर्द्रवन्तु) द्रवरूप में निकल जांय।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Diseases

    Meaning

    Let those that affect the rectum and desensitise the intestines turn unafflictive and trouble free and flow out through the excretory organs.

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    Translation

    They, that creep through the bowels and make the intestines lethargic may those (diseases) flow out through the orifice without causing any harm or sickness.

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    Translation

    Let the pains which spread out through the bowls and creep disordering the intestines depart and pass away out of you without creating any disease and inflicting any hurt.

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    Translation

    The pains that through the bowels creep, disordering the inward parts, let them depart and pass out of the body, free from disease and harming not.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(याः) अर्षण्यः (गुदाः) अ० २।३३।४। मलत्यागनाडीः (अनुसर्पन्ति) अनुक्रमेण प्राप्नुवन्ति (आन्त्राणि) अ० ९।७।१६। नाडीविशेषान् (मोहयन्ति) व्याकुलीकुर्वन्ति। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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