अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 130/ मन्त्र 1
को अ॑र्य बहु॒लिमा॒ इषू॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठक: । अ॒र्य॒ । बहु॒लिमा॒ । इषू॑नि: ॥१३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
को अर्य बहुलिमा इषूनि ॥
स्वर रहित पद पाठक: । अर्य । बहुलिमा । इषूनि: ॥१३०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 130; मन्त्र » 1
विषय - मनुष्य के लिये पुरुषार्थ का उपदेश।
पदार्थ -
(कः) कौन मनुष्य (बहुलिमा) बहुत से (इषूनि) इष्ट वस्तुओं को (अर्य) पावे ॥१॥
भावार्थ - मनुष्य विवेकी, क्रियाकुशल विद्वानों से शिक्षा लेता हुआ विद्याबल से चमत्कारी, नवीन-नवीन आविष्कार करके उद्योगी होवे ॥१-६॥
टिप्पणी -
[सूचना−पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]१−(कः) (अर्य) ऋ गतौ-इत्यस्य रूपम्। अर्थात्। प्राप्नुयात् (बहुलिमा) पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा। पा० ।१।१२२। बहुल-इमनिच्। बहूनि (इषूनि) इषु इच्छायाम् उप्रत्ययः कित्। इष्टवस्तूनि ॥