अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 130/ मन्त्र 17
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
अथो॑ इ॒यन्निय॒न्निति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअथो॑ । इ॒यन्ऽइय॒न् । इति॑ ॥१३०.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
अथो इयन्नियन्निति ॥
स्वर रहित पद पाठअथो । इयन्ऽइयन् । इति ॥१३०.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 130; मन्त्र » 17
विषय - मनुष्य के लिये पुरुषार्थ का उपदेश।
पदार्थ -
(अथो) फिर वह [पुत्र] (इयन्-इयन्) चलता हुआ, चलता हुआ [होवे], (इति) ऐसा है ॥१७॥
भावार्थ - विद्वान् लोग गुणवती स्त्री के सन्तानों को उत्तम शिक्षा देकर महान् विद्वान् और उद्योगी बनावें। ऐसा न करने से बालक निर्गुणी और पीड़ादायक होकर कुत्ते के समान अपमान पाते हैं ॥१-२०॥
टिप्पणी -
१७−(अथो) अनन्तरम् (इयन्नियम्) इण् गतौ-शतृ, इयङ् इत्यादेशः, द्वित्वं च। यन् यन्। गच्छन् गच्छन्-स भवतु (इति) एवम् ॥